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चौराहे पर खड़ी दुनिया

वैश्विक पूंजीवाद आज उस रास्ते पर खड़ा है, जहाँ से आगे सफ़र मुमकिन ही नहीं है, यह वैसी ही परिस्थितियां हैं, जैसी 1930 में थीं।
Crisis of capitalism
Image Courtesy: Marxist.com

फ़ाइनेंशियल टाइम्स ऑफ़ लंदन दुनिया के सबसे "प्रतिष्ठित" बुर्जुआ अख़बारों में से एक है। अब तो इस अख़बार ने वह बात मान ली है, जिसे वाम धड़ा लंबे वक़्त से कहता आ रहा है। 3 अप्रैल, 2020 को लिखे एक संपादकीय में अख़बार ने लिखा: "पिछले चार दशकों से जारी नीति निदेशकों में क्रांतिकारी बदलाव किए जाने जरूरी हैं। 

सरकार को अर्थव्यवस्था में ज्यादा सक्रिय किरदार अदा करना होगा। उन्हें सार्वजनिक सेवाओं को निवेश की तरह देखना चाहिए। ना कि उन्हें देनदारियां समझना चाहिए। सरकारों को श्रम बाज़ार को कम असुरक्षित बनाने का रास्ता खोजना होगा। पुनर्वितरण एक बार फिर एजेंडे में होगा। अब तक बेसिक इनकम और ''पूंजी पर कर'' जैसी जिन नीतियों को विचित्र माना जाता था, उन्हें अब मिलाजुलाकर चलाना होगा।

फाइनेंशियल टाइम्स जिन चीजों का सपना देख रहा है, मोदी सरकार की नीतियां उनसे एकदम उल्टी हैं। बीजेपी शासित राज्यों में श्रम कानूनों को खत्म किए जाने से श्रम बाज़ार और भी ज्यादा असुरक्षित होंगे। इन कानूनों का खात्मा मोदी की सहमति के बिना नहीं किया जा सकता था।

भारतीय राजस्व सेवा के कुछ अधिकारियों द्वारा अमीरों से ज्यादा कर लेने की सलाह देने पर उन्हें सजा दी गई थी। कुल मिलाकर मोदी सरकार अपनी बद दिमागी में  अब भी उन बातों को मान रही है जो चार दशक पहले शहरी सत्ताओं से निकली थीं, जबकि अब दुनिया आगे बढ़ चुकी है। लेकिन सरकार को इसका भान नहीं है।

लेकिन दुनिया किस तरफ बढ़ी है? FT के संपादकीय से साफ़ था कि दुनिया में "चार दशक से" जारी नीतियों की मतलब नवउदारवादी नीतियों से था, जो वैश्वीकरण की पहचान बन चुकी हैं। अब इन्हें बदलना होगा। मतलब कि पिछले चार दशक का नवउदारवादी  वैश्वीकरण अब अपने खात्मे पर आ चुका है।

1930 के दशक में उस वक़्त जारी वैश्विक पूंजीवाद अपने सफ़र में बंद रास्ते पर आकर खड़ा हो गया था। उस वक़्त उस ढांचे को बचाने के लिए कई बुर्जुआ विचारकों ने उसमें बदलाव की बात कही थी। बिल्कुल वैसे ही जैसे आज वैश्विक पूंजीवाद उसी बंद सड़क पर आकर खड़ा हो गया है और यह इस रास्ते पर पहले की तरह आगे नहीं बढ़ सकता।

दिलचस्प तौर पर 8 मई को फाइनेंसियल टाइम्स ने एक संपादकीय में लिखा,"आज की स्थिति 1930 की स्थिति से मेल खाती है। उस वक़्त अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूज़वेल्ट से लेकर ब्रिटिश अर्थशास्त्री मेनार्ड केंस ने देखा कि उदारवादी लोकतांत्रिक पूंजीवाद को बचने के लिए सभी के लिए काम करते हुए दिखाई देना होगा। उनके विचारों की जीत ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दशकों में पश्चिमी पूंजीवाद की सफलता का रास्ता बनाया। उसी वक़्त की तरह पूंजीवाद को आज पूरी तरह बदलाव की जरूरत नहीं है। भले ही इसमें सुधार किए जाने जरूरी है।"

हालांकि यह संपादकीय "महामारी के दौर में राज्य के हस्तक्षेप" के विशेष सदर्भ में लिखा गया था, लेकिन इसके वृहद प्रभाव साफ़ थे। वैश्विक पूंजीवाद आज 1930 के दशक की तरह बंद रास्ते पर खड़ा है।

कल्याणकारी पूंजीवाद समेत किसी भी पूंजीवाद में कोई भी बदलाव वैश्विक वित्त के एकाधिकार को कोरोना के बाद के काल में कमजोर करेगा। इसलिए यह वैश्विक वित्त इन बदलावों का कड़ा विरोध करेगा। तथ्य यह है कि बुर्जुआ लोगों को भले ही बदलाव की जरूरत महसूस हो रही हो, लेकिन ऐसा होने से जरूरी नहीं है कि वित्तपूंजी खुद से अपने एकाधिकार की बलि दे देगी। बल्कि 1930 के दशक से मिला इतिहास हमें यही समझाता है।

केयनेस अपने तर्क में 1929 में ही आर्थिक मंदी का शिकार ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी की समस्या को हल करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप की बात कहते हैं। लेकिन राजकोषीय घाटे को बढ़ाकर रोजगार पैदा करने के उनके सुझाव पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। केयनेस की इस बात को लिबरल पार्टी के उनके साथी और प्रमुख लॉयड जॉर्ज ने भी उठाया था। इसका विरोध एक बेहद बेवकूफाना तर्क से किया गया। कहा गया कि राजकोषीय घाटे से सिर्फ़ निजी निवेश ही इकट्ठा होता है, इससे नए रोजगारों का सृजन नहीं होता। केयनेस ने इस तर्क को खारिज करते हुए अपनी बात के पीछे की थ्योरी 1936 में लिखित में पेश की। लेकिन इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ा। पूरे 1930 के दशक में रोजगार पैदा करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप की उनकी मांग को नजरंदाज किया जाता रहा।

जैसे ही रूज़वेल्ट के नए समझौते से अमेरिका में बेरोज़गारी दर नीचे आई, उनपर अमेरिकी वित्तपूंजी ने पीछे हटने के लिए दबाव बनाया। इससे 1937 में अमेरिका में एक और मंदी आ गई। अमेरिका तभी उस मंदी से निपट पाया था, जब वहां दूसरे विश्व युद्ध के लिए हथियार बनाना चालू हो गए थे।

बड़े स्तर पर बेरोज़गारी की समस्या को दूर करने के लिए कुल मांग बढ़ाने की नीति सरकार द्वारा विश्वयुद्ध के बाद ही अपनाई गई, वह भी तब जब विकसित देशों में कामग़ार वर्ग का भार पहले से कहीं ज़्यादा हो गया। ब्रिटेन में युद्ध के बाद हुए चुनावों में लेबर पार्टी की जीत और फ्रांस-इटली में कम्यूनिस्टों की बढ़ती पकड़ से इस कामग़ार वर्ग के बढ़ते भार का साफ़ संकेत भी मिल गया था। इस बीच जब रूस पश्चिमी यूरोप के मुहाने पर पहुंचा, तो यूरोप में ''कम्यूनिस्ट टेकओवर'' की संभावना दिखने लगी। तब तक पलकें भी न झपकाने वाली वित्तपूंजी को इसी दबाव के चलते रियायतें देनी पड़ी थीं।

दूसरे शब्दों में कहें तो वित्तीय पूंजी खुद से कभी रियायतें नहीं देती। ऐसा तभी होता है जब पूंजीवादी समर्थक विचारक इन्हें अपने ढांचे को बरकरार बनाए रखने के लिए जरूरी मानते हैं। इससे इतर कुछ और सोचना केयनेस की तरह ही किसी जाल में फंसना है, जिन्हें लगता था कि दुनिया विचारों से चलती है। इसलिए सही विचारों को समय के साथ वजन मिलेगा। बल्कि इसके उलट असल जिंदगी के वर्ग संघर्ष से ही दुनिया के कदम तय होते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है कि यह विचारों से प्रेरित होता है।

इसलिए तत्कालीन पूंजीवाद को भी कथित ''कल्याणकारी पूंजीवाद'' की दिशा में मोड़ने के लिए भी जरूरी है कि कामग़ार वर्ग ऐसे एजेंडे के लिए संघर्ष करे।  लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय वित्तपूंजी इस एजेंडे का विरोध करेगी, तो हम एक बड़े वर्ग संघर्ष में उलझ जाएँगे। यह तो वक़्त ही बताएगा कि यह संघर्ष महज़ कल्याणकारी पूंजीवाद को हासिल करने के लिए होता है, या यह पूंजीवाद के परे जाकर समाजवादी विकल्प को दोबारा खड़ा करता है। जब वर्ग संघर्ष में ढांचे को बदलने के लिए हलचल होती है, तो जरूरी नहीं होता कि उसका नतीज़ा सिर्फ ढांचे तक सीमित रहे।

भारत में सत्ता पूरी तरह दुनिया में हो रहे विकास से बेपरवाह है। बड़े-बड़े शहरों के बुर्जुआ विचारकों को नव-उदारवाद का अंत दिखने लगा है, लेकिन हिंदुत्व ब्रिगेड को कुछ समझ में नहीं आता। मोदी सरकार की नवउदारवाद से गलबहियां जारी हैं। एक भयावह मानवीय संकट और उस पर बिना सोचे-समझे दी गई प्रतिक्रिया के बावजूद सरकार ने अपना रास्ता नहीं छोड़ा है।

फायनेंशियल टाईम्स द्वारा 8 मई को लिखे संपादकीय से भी भारत सरकार और यूरोपीय सरकार की स्थितियों में अंतर समझ में आ जाता है। इसमें लिखा गया, ''जैसा लॉकडॉउन के दौरान पिछले दो महीनों में हुआ, जिस तेजी से सरकार ने श्रम, कर्ज, चीजों की अदला-बदली और सेवाओं के लिए निजी बाज़ारों में दखल दिया, वह एक तरह की वामपंथी क्रांति ही थी। रातों-रात लाखों निजी क्षेत्र के कर्मचारी सरकार से अपनी तनख़्वाह ले रहे हैं और केंद्रीय बैंकों ने वित्तीय बाज़ारों को इलेक्ट्रॉनिक पैसे से भर दिया।''

भारत में निजी कंपनियों के कर्मचारियों की तनख़्वाह सरकारी पैसे से आने के बजाए, सरकार ने ही लाखों कामग़ारों को लूट लिया। इसमें 14 करोड़ प्रवासी कामग़ार भी शामिल हैं, जिनसे उनकी आय, नौकरी और निवास छीन लिया गया। उन्हें किसी भी तरह का मुआवज़ा नहीं दिया गया। यह एक हिस्से में मोदी सरकार की अमानवीयता का नतीज़ा है। लेकिन यह एक हिस्सा सरकार के वित्तपूंजी के सामने लिजलिजाहट को भी दर्शाता है। इस वित्तपूंजी को बरकरार रखने के लिए सरकार नागरिक अधिकारों और लोकतांत्रिक अधिकारों को नजरंदाज कर रही है। ऊपर से सांप्रदायिक एजेंडे से लोगों में विभाजन भी करवा रही है।

लेकिन वही रास्ता अख़्तियार करे रहना, जो पिछले चार दशकों से जारी है, फिर नवउदारवाद के अंत को न पहचान पाना अपने आप में उस मोड़ पर फंस जाना है, जहां आगे जाने का कोई रास्ता ही नहीं है। इसका मतलब होगा कि ज़्यादा तानाशाही भरे फासिस्टवादी तरीके अपनाए जाएंगे। सांप्रदायिक विभाजन को ज़्यादा तीखा करने की कोशिश की जाएगी। कामग़ार लोगों को इस पूरी कवायद के खिलाफ़ संघर्ष करना होगा, ताकि इस नव-उदारवाद के बंद रास्ते से निकलकर भविष्य के लिए नई सड़क बनाई जा सके।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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