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केरल में हुई हथिनी की मौत न केवल दुखद है, बल्कि घोर निंदनीय भी। लेकिन उसकी आड़ में झूठ और नफ़रत फ़ैलाना, उसे सांप्रदायिक रंग देना, इसे किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता और न उन सैकड़ों ग़रीबों और प्रवासी मज़दूरों की मौत का मंज़र भुलाया जा सकता है जो सरकारी अव्यवस्था और एक अनियोजित लॉकडाउन का शिकार हो गए।
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केरल में हुई हथिनी की मौत न केवल दुखद है, बल्कि घोर निंदनीय भी। लेकिन उसकी आड़ में झूठ और नफ़रत फ़ैलाना, उसे सांप्रदायिक रंग देना, इसे किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता और न उन सैकड़ों ग़रीबों और प्रवासी मज़दूरों की मौत का मंज़र भुलाया जा सकता है जो सरकारी अव्यवस्था और एक अनियोजित लॉकडाउन का शिकार हो गए। प्रधानमंत्री से लेकर अन्य मंत्रियों और सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने इन पर एक शब्द नहीं बोला। चाहे वो पैदल चलते मज़दूर भूख-प्यास से मारे गए हों, बस-ट्रक से कुचले गए हों या ट्रेन से। इन नेताओं की ओर से उस मासूम बच्चे के लिए भी संवेदना के दो बोल न निकले जिसकी मां ने रेलवे स्टेशन पर दम तोड़ दिया। और वो मासूम बच्चा ये जान भी न पाया कि उसकी मां अब उसे छोड़कर चली गई है। वो तो उसके आंचल से ऐसे खेल रहा था जैसे सोयी मां अभी उठ जाएगी। ऐसे हृदयविदारक दृश्य देखकर हर कोई कांप उठा सिवाए सत्ता में बैठे नेताओं और उनके समर्थकों के। ऐसे में जब रोज़-ब-रोज़ आदमी का क़त्ल किया जो रहा हो, कभी गाय के नाम पर कभी हाथी के नाम पर प्रेम दिखाना नकली सा लगता है। 

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