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चितरंजन सिंह  (1952-2020) : उदार-सेकुलर मानवतावादी

इसे भारतीय  वाम राजनीति की गहरी विडंबना कहेंगे कि चितरंजन सिंह -जैसा व्यक्ति, जो लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता बन सकता था और ख़ासकर उत्तर प्रदेश में पार्टी का जनाधार बढ़ा व मज़बूत बना सकता था, मानवाधिकार कार्यकर्ता बन कर रह गया।
chitranjan singh
फोटो साभार : सोशल मीडिया

सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) व इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ) – जैसे वाम राजनीतिक संगठनों से लंबे समय तक घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे चितरंजन सिंह (14.1.1952- 26.6.2020) की कभी कम्युनिस्ट पहचान हुआ करती थी। लेकिन अपनी ज़िंदगी का उत्तरार्द्ध आते-आते वह सिर्फ़ एक बहुत लोकप्रिय व मिलनसार मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते रहे। मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल से जुड़े एक सक्रिय, जुझारू, वाम रुझान वाले नेतृत्वकारी कार्यकर्ता के रूप में उनकी पहचान ही सर्वमान्य हो चली थी। उनकी कम्युनिस्ट पहचान काफ़ी पहले ख़त्म हो चुकी थी।

इसे भारतीय  वाम राजनीति की गहरी विडंबना कहेंगे कि चितरंजन सिंह -जैसा व्यक्ति, जो लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता बन सकता था और ख़ासकर उत्तर प्रदेश में पार्टी का जनाधार बढ़ा व मज़बूत बना सकता था, मानवाधिकार कार्यकर्ता बन कर रह गया। एक कम्युनिस्ट नेता के रूप में उन्हें प्रशिक्षित करने, उभारने व सामने लाने की संभावना को गंवा दिया गया। अब इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है : पार्टी या चितरंजन? या, वे आंतरिक जटिलताएं और अंतर्विरोध, जो कम्युनिस्ट पार्टियों का पीछा नहीं छोड़ते? या, अलगाव (alienation) की वह स्थिति, जिसका शिकार चितंरजन हो चले थे?

उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के अपने गांव मनियर में 26  जून को जब चितरंजन सिंह ने आख़िरी सांस ली, उस वक़्त उनके पुराने संगठनों का शायद ही कोई साथी उनके आसपास रहा होगा। संगठनों से उनका रिश्ता शायद ख़त्म हो चला था। उनके निकट के पारिवारिक सदस्य और नये दौर के उनके कुछ नये साथी ही उनके साथ थे, और यही लोग उनकी देखभाल करते चले आ रहे थे। चितरंजन लंबे समय से बीमार थे—वह अनियंत्रित हाई ब्लड शुगर से पीड़ित थे और उनके गुर्दे भी ख़राब हो चले थे। उनका इलाज चल रहा था, लेकिन उनके अंग धीरे-धीरे काम करना बंद कर रहे थे। अपनी मौत के कुछ दिन पहले वह गहरी बेहोशी (कोमा) में चले गये थे। यह गहरी बेहोशी उस गहरी हताशा, अलग-थलग पड़ जाने के गहरे दंश को भी व्यक्त कर रही थी, जिसका सामना चितरंजन कर रहे थे।

1970 के दशक में जब नक्सलबाड़ी की लहर ने छात्रों-नौजवानों को अपनी ओर खींचना शुरू किया, तो उसके असर में चितरंजन भी आये। उस समय वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। अराजक कार्रवाइयों को छोड़ वह सशस्त्र किसान आंदोलन की धारा से जुड़े और सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) के संपर्क में आये। उन दिनों यह पार्टी भूमिगत (अंडरग्राउंड) हुआ करती थी। जब पार्टी ने 1982 में खुला राजनीतिक मंच इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ) बनाने का फैसला किया, तब चितजंरन ने उसके गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

उनके वैचारिक-राजनीतिक दृष्टिकोण में अक्सर ढुलमुलपना, अस्पष्टता, असंगति नज़र आती थी। वह उदार हृदय तो थे, लेकिन उनमें उदारतावाद भी अच्छा-ख़ासा था। बाद के दिनों में वह कम्युनिस्ट बहुत कम उदार-सेकुलर मानवतावादी बहुत ज़्यादा नजर आने लगे थे। चितरंजन को भी यही छवि ज़्यादा भाने लगी थी। उनका स्नेहिल, दोस्ताना व्यवहार उन्हें ख़ासा लोकप्रिय बना रहा था।

चितरंजन का जीवन कई उथल-पुथल व ट्रेजडी से भरा हुआ था। उनकी बेटी ने—वह उनकी एकमात्र संतान थी—आत्महत्या कर ली, जब वह बीस-बाइस साल की थी। इस आघात से चितरंजन कभी नहीं उबर सके। इसके पहले उनकी पत्नी का इंतक़ाल हो चुका था। 1980 का दशक ख़त्म होते-होते उन्होंने सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) की नेता कुमुदिनी पति से शादी कर ली। लेकिन यह शादी ज़्यादा दिन नहीं चली और दोनों का संबंध विच्छेद हो गया। कुमुदिनी ने बाद में पार्टी के महासचिव विनोद मिश्र से शादी कर ली। इस घटना से चितरंजन राजनीतिक रूप से बुझ-से गये। उन्हें लगा कि पार्टी में उनका राजनीतिक जीवन ख़त्म हो चला है। उन्होंने पार्टी से और पार्टी ने उनसे दूरी बनाना शुरू कर दिया।

राजनीतिक रूप से अलग-थलग कर दिये गये, अलगाव व हताशा में जीने वाले, अपने छोटे भाई पर आश्रित रहे चितरंजन सिंह का यह दुखद अंत कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए कुछ सवाल छोड़ गया है।

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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