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नागरिकता संशोधन अधिनियम और एनआरसी : तथ्य और मिथक

आख़िर ऐसी क्या चुनौती सरकार के सामने थी जिसको लेकर भारतीय संविधान की मूलभावना के खिलाफ नागरिकता अधिनियम में संशोधन करना पड़ा?
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पिछले एक माह से देश के विभिन्न भागों में व्यापक विरोध प्रदर्शन हो रहा है और शायद ही भारत का कोई भाग नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और एनआरसी के विरुद्ध हो रहे है विरोध से अछूता रहा होगा l ऐसा विरोध शायद पिछले कुछ सालो में देखने को नहीं मिला जिसमें सभी वर्ग और सभी जाति धर्म के लोग शामिल हुए हों। लेकिन भाजपा सरकार द्वारा पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम ने देश की जनता को फिर से एक साथ-एक नारे में खड़ा कर दिया हैl इस आंदोलन की सुंदरता यह है कि लोग बिना किसी राजनीतिक दल के नेतृत्व के भी स्वतः इन कानून के खिलाफ आंदोलन में शामिल हो रहे हैं l 

आख़िर ऐसी क्या चुनौती सरकार के सामने थी जिसको लेकर भारतीय संविधान की मूलभावना के खिलाफ नागरिकता अधिनियम में संशोधन करना पड़ा। पिछले कुछ साल से जिस प्रकार देश की राजनीति का रंग बदला रहा है उससे भारत की विविधता पर गहरा प्रहार हो रहा है, हमारा देश विविधता से पूर्ण देश है, यही विविधता इस देश की संस्कृति बन गयी। और यही संस्कृति इस देश की आत्मा है। देश की राजनीतिक वातावरण में देशभक्त और देशद्रोही के नारे गूंज रहे हैंl सत्ता, मीडिया और राजनीतिक दल के नेता व आईटी सेल बहुत ख़तरनाक साजिश करके समाज का ध्रुवीकरण करने में व्यस्त हैl यदि सरकार का समर्थन करना ही देशभक्ति है तो भाजपा से पहले की सरकार का समर्थन करने वाले लोग आज देशभक्त क्यों नहीं है? भारत में लोकतांत्रिक सरकारें तो 1952 के प्रथम आम चुनाव से बन रही हैं।

सीएए और एनआरसी का संबंध

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के ऐतिहासिक पहलू को समझना बहुत जरूरी है क्योंकि असम में एनआरसी होने का कारण कुछ और हैं जबकि राष्ट्रव्यापी एनआरसी कराने मकसद कुछ और हैl पूरे असम में असमिया संस्कृति और वहां के संसाधन की सुरक्षा के लिए ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) ने आंदोलन किया था। जिसके कारण 15 अगस्त 1985 को तत्कालीन केंद्र, राज्य सरकार ने ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के साथ असम समझौता किया था। उसमें सहमति बनी थी कि 24 मार्च 1971 के बाद आये हुए सभी अवैध प्रवासी चाहे वह किसी भी धर्म का हों को वापस भेजा जाये। असम में एनआरसी कराने के लिए नागरिकता संशोधन अधिनियम का सहारा नहीं लिया गया। किन्तु भाजपा जिस राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) कराने के लिए परेशान है, वह बिना नागरिकता संशोधन अधिनियम के नहीं हो सकता है l

भाजपा सरकार सीएए के पीछे यह भी तर्क प्रस्तुत कर रही है कि मुस्लिम को इसलिए सम्मिलित नहीं किया गया क्योंकि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए हुए अल्पसंख्यक शरणार्थी को नागरिकता दी जाएगी और तीनों देश का धर्म इस्लाम है। परन्तु नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध कर रहे लोगों का यह तर्क है कि जब पहले से ही इस देश में एक नियमित प्रक्रिया के तहत नागरिकता देने का प्रावधान है तो नागरिकता संशोधन क़ानून बनाने की आवश्यकता क्या थी?

हालांकि सरकार का कहना है कि यह क़ानून कहीं से भी एनआरसी से नही जुड़ा हुआ है। परंतु अगर हम बारीकी से देखे तो अप्रत्यक्ष रूप से यह क़ानून एनआरसी से जुड़ा हुआ है। जिस वजह से मुस्लिम अल्पसंख्यक में डर है। भारत का संविधान हर भारतीयों के लिये नागरिकता के अधिकार की गारंटी देता है, चाहे उनका धर्म, जाति, भाषा और लिंग कुछ भी हो। परन्तु नागरिकता संशोधन अधिनियम इस अधिकार को खत्म करता है। धर्म के आधार पर नागरिकता देने का अर्थ है सीधे-सीधे संविधान की अवहेलना करना।

असम में एनआरसी होने का ऐतिहासिक कारण है जोकि उच्चतम न्यायलय के निगरानी में हुआ था जिसका परिणाम इस अधिनियम से शून्य हो गया l असम में पूरी तरह से असफल होने के बाद भी सरकार ने कोई सबक नही लिया और अब एनआरसी पूरे देश मे लागू करना चाहती है जिसके ऊपर अभी तक कोई स्पष्टता नहीं है।

गृहमंत्री ने संसद के दोनों सदन में बार-बार बोला है कि एनआरसी पूरे देश मे लागू करेंगे जबकि प्रधानमंत्री अपने राजनैतिक रैली कह रहे हैं कि एनआरसी का कही भी ज़िक्र नही हैं। ऐसे में गृहमंत्री द्वारा सदन में दिए गए वक्तव्य को सही माना जाए या फिर प्रधनमंत्री के राजनैतिक भाषण को? इस तरह एनआरसी को लेकर सरकार कुछ स्पष्ट नहीं कर पा रही है, जिस से लोगों मे डर का माहौल है।

अब सरकार ने एनपीआर का मुद्दा देश के सामने खड़ा कर दिया है, जोकि एनआरसी करने का शुरूआती कदम हैl 26 जुलाई 2014 को पूर्व गृह राज्यमंत्री ने राज्य सभा में लिखित उत्तर देते हुए कहा था कि एनपीआर, एनआरसी का पहला कदम है और गृह मंत्रालय के वार्षिक रिपोर्ट-2018-2019 में लिखा गया है कि एनपीआर, एनआरसी का पहला कदम है फिर देश की जनता कैसे भाजपा के राजनीतिक बयान को मान कर संतुष्ट हो जाये? 

उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश ने भी देश की हालत पर चिंता जाहिर की है लेकिन देश के गृहमंत्री ने सरकार और भाजपा की मंशा को जोधपुर के रैली से साफ़ कर दिया कि शायद वह किसी प्रकार के सुझाव और सहमति पर विचार नहीं करेगीl एनपीआर पर भाजपा के द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा है कि यह जनगणना जैसा है परन्तु जनगणना में मांगे जाने वाली जानकारी और एनपीआर में मांगें जाने वाली जानकारी में बहुत अंतर हैl जनगणना और एनपीआर के लिए अलग-अलग अधिनियम भी है फिर दोनों प्रक्रिया कैसे एक हो सकती है l एनपीआर में व्यक्ति के नाम, जन्म तिथि व स्थान, माता-पिता के नाम उनके जन्म तिथि और जन्म स्थान की जरूरत होगीl

भाजपा के नेता और असम के वर्तमान मुख्यमंत्री सर्वानन्द सोनेवाल द्वारा दायर रिट याचिका के संबध में उच्चतम न्यायलय की तीन सदस्य वाली पीठ ने 12 जुलाई 2005 को अपना निर्णय दिया था कि नागरिकता संशोधन अधिनियम-2003, एनपीआर और एनआरसी से जुड़ा हुआ है तथा नागरिकता संशोधन अधिनियम-2003 नियम 4 (3) भी यह कहता है कि व्यक्तिगत जानकारी का प्रयोग एनआरसी तैयार करने के लिये किया जायेगा l

नागरिकता अधिनियम-1955 और नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019

इससे पहले भारतीय नागरिकता नेचुरलाइज़ेश या देशीयकरण की प्रक्रिया से ही किसी को मिल सकती थीl इस से पहले के नागरिकता क़ानून के मुताबिक़, भारत में अवैध रूप से आने वाले अप्रवासी, भारतीय नागरिकता के लिए अर्ज़ी नहीं दे सकते थेl 1955 का नागरिकता क़ानून कहता था कि बांग्लादेश से आए हुए वो अप्रवासी जो बिना वैध दस्तावेज़ों के भारत आए हैं, उन्हें भारत की नागरिकता नहीं दी जा सकती है l 1955 का एक्ट ये भी कहता था कि अगर कोई व्यक्ति वैध दस्तावेज़ों के साथ भारत आया है, पर वो अपनी वीज़ा की अवधि से ज़्यादा समय भारत में रह चुका है, तो उसे भी देश की नागरिकता नहीं दी जा सकती हैl लेकिन, नया नागरिकता क़ानून, देशीयकरण की समयावधि को भी कम करता हैl

 जिन समुदायों का ज़िक्र है, वो अब केवल पांच साल भारत में गुज़ारने के बाद यहां की नागरिकता हासिल कर सकते हैंl जब कि इससे पहले के क़ानून में इन लोगों को भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए पिछले 14 साल में से 11 साल तक भारत में रहने की शर्त पूरी करनी होती थीl इस तरह नए नागरिकता क़ानून से नागरिकों के दो दर्जे बनेंगेl ये भारतीय नागरिकों को संविधान से मिलने वाले बुनियादी अधिकार का गंभीर रूप से उल्लंघन हैl जब भी राष्ट्रव्यापी एनआरसी लागू किया जायेगा तब यदि किसी भी वास्तविक भारतीय नागरिक के पास दस्तावेज नहीं होने की सूरत में मुस्लिम और यहूदी धर्म के लोगों को छोड़कर बाकी धर्मों के लोगों को नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019 के तहत नागरिकता मिल जाएगीl

सरकार द्वारा यह भी दलील दी जा रही है कि ये कानून नागरिकता देने के लिए है न की किसी भारतीय की नागरिकता लेने के लिएl यहाँ एक बुनियादी सवाल है कि अगर एनआरसी के समय किसी भारतीय मुसलमान के पास दस्तावेज नहीं हो तब सरकार क्या करेंगी? इसका ताजा उदाहरण असम में देखा गया कि भारत के पूर्व राष्ट्रपति के परिवार वालों का नाम, असम की पूर्व मुख्यमंत्री सैयद अनवर तैमूर, सनाउल्लाह जिन्होेंने भारतीय सेना में अपनी सेवा दी लेकिन इन सभी का नाम एनआरसी के फाइनल लिस्ट में नहीं आयाl ये तो ऐसे उदहारण है जोकि मीडिया के माध्यम से पता चलता है ऐसे लाखों नागरिक है जो इस समय अपनी नागरिकता के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

इससे यह भी कयास लगाया जा सकता है कि क्या आरएसएस और बीजेपी मुस्लिम अल्पसंख्यक को राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिये पर धकेलने का कार्य कर रही है ? नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019 के कारण दलित और आदिवासी समुदाय की चिंता को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है क्योंकि जब भी एनआरसी होगा तब इन समुदाय को भी अपने दस्तावेज दिखाने होंगे और यदि इनके पास पर्याप्त दस्तावेज नहीं हुए तो सरकार क्या करेगी? क्या देश के आदिवासी और दलित समुदाय के लोगों को भी शरणार्थी के आधार पर ही नागरिकता देगी? जबकि ये लोग भारत के मूलनिवासी हैंl सरकार की यह पूर्ण रूप से ज़िम्मेदारी है कि वह देश की जनता को दुविधा या किसी प्रकार के भय के वातावरण में न रखेl

अर्थव्यवस्था और एनआरसी

भाजपा सरकार ने ऐसे समय में देश की जनता को सड़क पर विरोध करने को मज़बूर कर दिया है जब भारत की अर्थव्यस्था बहुत ही नाजुक दौर से गुजर रही है, अभी 8 जनवरी 2020 के भारत बंद में देश के सभी वर्गों के लोगो ने सरकार की गलत आर्थिक नीतियों का विरोध कियाl भाजपा सरकार लगातार देश की सार्वजानिक क्षेत्र का विनिवेश कर रही हैl महंगाई बेरोजगारी की मार जनता झेलने में असमर्थ है और ऐसे समय में संविधान और मानवता विरोधी सीएए को लाना शायद इतिहास में सबसे बड़ी गलती के रूप में लिखा जायेगाl 

असम की मिसाल सबके सामने है, लगभग 3.3 करोड़ लोगों के आवेदन पर कार्य करने के लिए 1600 करोड़, लगभग 50000 लोग लगे और इतना समय व्यर्थ हुआ और नतीजा कुछ नही निकला, बल्कि वहाँ के वास्तविक नागरिक भी उस सूची से बाहर हैं। जब भी एनआरसी पूरे देश में लागू किया जायेगा तो इसका नकारात्मक प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था के साथ साथ लोगों के पारिवारिक जीवन पर पड़ेगाl राष्ट्रव्यापी एनआरसी कराने के लिए लगभग 4 लाख 26 हजार करोड़ रुपये और लाखों कर्मचारियों की की आवश्यकता होगी सरकार को अपने लिए निर्णय पर देश की वर्तमान अर्थवयस्था के आधार पर विचार करने की जरूरत हैl

अभी तक सरकार ने यह स्पष्ट नही किया कि एनआरसी के लिये कौन से दस्तावेज़ वैध माने जायँगे। जो बातें सामने आई हैं उनसे यही ज़ाहिर हो रहा है कि ज़मीन की कागज़ के अलावा कुछ वैध नहीं होगा। ऐसे में जो भूमिहीन लोग होंगे वे अपनी नागरिकता कैसे साबित करेंगे, यह एक बड़ा सवाल है। सरकार अवैध घुसपैठियों एवं शरणार्थियों में कैसे भेद करेंगी? इसका भी कोई मापदण्ड तैयार नहीं किया।

सरकार को सिर्फ ये नहीं मानना चाहिये कि उसके निर्णय ही सबसे सही होते है, बल्कि वह जनता और देश के हित में विचार करेंl केवल किसी दल का चुनावी घोषणापत्र समाज का भविष्य नहीं हो सकता है इसलिए जनहित में भाजपा को अपने किये निर्णय पर दुबारा विचार करना चाहिये और जनता के विश्वास के साथ निर्णय लेने की जरूरत हैl सभी प्रकार के निर्णय सिर्फ सदन के बहुमत के आधार पर नहीं किया जा सकता है, क्योंकि लोकतंत्र में सरकार बन जाने पर जनता का विवेक सरकार के पास नहीं चला जाता बल्कि जनता के पास ही रहता है और आज भारत की जनता अपने विवेक से भाजपा सरकार के निर्णय के विरोध में है l 

देश की जनता को सरकार पर नियंत्रण और निगरानी रखने का पूरा अधिकार हैl लोकतंत्र में किसी भी जन आंदोलन को टुकड़े-टुकड़े गैंग, अर्बन नक्सल या देशद्रोही बोलकर असल में देश के मुख्य मुद्दे से ध्यान हटाने की कोशिश है, इस तरह की बातें बोलकर आरएसएस और भाजपा लोकतंत्र के मूल्यों को कम को कम कर रही हैंl महात्मा गांधी ने कहा था कि यदि भारत का स्वराज बहुसंख्यकों का शासन होगा तो मैं उसे स्वराज मानने से इंकार कर दूंगा और पूरी शक्ति से उसका विरोध करूँगा। शायद भाजपा सरकार अपने राजनैतिक फायदे के लिए गाँधी का नाम और उनके चश्मे का इस्तेमाल कर रही है, लेकिन उसका भारत को देखने का नज़रिया तो गोलवरकर और सावरकर जैसा है l

(नीतू कुमारी, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि शिक्षक हैं।)

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