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खुला पत्र : क्या नागरिक समाज देश का दुश्मन है?

अखिल भारतीय और केन्द्रीय सेवाओं के पूर्व सिविल सेवकों के समूह ने देशवासियों के नाम एक खुला पत्र जारी करके नागरिक समाज को देश और शासन के दुश्मन के रूप में रेखांकित किए जाने पर चिंता जताई है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : सोशल मीडिया

अखिल भारतीय और केन्द्रीय सेवाओं के पूर्व सिविल सेवकों के समूह ने देशवासियों के नाम एक खुला पत्र जारी करके नागरिक समाज को देश और शासन के दुश्मन के रूप में रेखांकित किए जाने पर चिंता जताई है और इस सिलसिले में प्रधानमंत्री, रक्षा प्रमुख और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार आदि द्वारा दिए गए बयानों पर आपत्ति जाहिर की है।

इन पूर्व अफ़सरों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से देश की शासन व्यवस्था में एक चिंताजनक दिशा-परिवर्तन देखा जा रहा है। हमारे गणतंत्र के आधारभूत मूल्य और शासन प्रणाली के सर्वमान्य सिद्धांत, जिन्हें हम अपरिवर्तनीय मानते थे, निरंतर एक अभिमानी और बहुसंख्यकवादी सरकार के निशाने पर हैं। धर्म-निरपेक्षता और मानव अधिकारों के प्रतिष्ठित सिद्धांत आज निंद्य समझे जाने लगे हैं। उनकी रक्षा के लिए प्रयासरत नागरिक समाज के समर्पित कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और बेमियाद नज़रबंदी ऐसे काले क़ानूनों के तहत की जा रही हैं, जो हमारी विधि-संहिता पर कलंक हैं। व्यवस्था के स्तर पर उन्हें राष्ट्रद्रोही और विदेशी एजेंट क़रार कर उनकी छवि धूमिल करने की पूरी कोशिश की जाती है।

इस खुले पत्र पर 102 पूर्व अफ़सरों ने हस्ताक्षर किए हैं।

पूरा पत्र हिंदी में इस प्रकार है: -

 

नागरिक समाज: शासन का दुश्मन?

28 नवंबर, 2021

प्रिय देशवासियो,

हमारा ग्रुप अखिल भारतीय और केन्द्रीय सेवाओं के भूतपूर्व सिविल सेवकों का समूह है। हमने अपने सेवाकाल के दौरान केन्द्रीय और विभिन्न प्रदेश सरकारों में काम किया है। हमारा ग्रुप किसी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं करता, और तटस्थता एवं निष्पक्षता में विश्वास रखता है। हम भारतीय संविधान के लिये प्रतिबद्ध हैं।

पिछले कुछ वर्षों से देश की शासन व्यवस्था में एक चिंताजनक दिशा-परिवर्तन देखा जा रहा है। हमारे गणतंत्र के आधारभूत मूल्य और शासन प्रणाली के सर्वमान्य सिद्धांत, जिन्हें हम अपरिवर्तनीय मानते थे, निरंतर एक अभिमानी और बहुसंख्यकवादी सरकार के निशाने पर हैं। धर्म-निरपेक्षता और मानव अधिकारों के प्रतिष्ठित सिद्धांत आज निंद्य समझे जाने लगे हैं। उनकी रक्षा के लिए प्रयासरत नागरिक समाज के समर्पित कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और बेमियाद नज़रबंदी ऐसे काले क़ानूनों के तहत की जा रही हैं, जो हमारी विधि-संहिता पर कलंक हैं। व्यवस्था के स्तर पर उन्हें राष्ट्रद्रोही और विदेशी एजेंट क़रार कर उनकी छवि धूमिल करने की पूरी कोशिश की जाती है।

नागरिक समाज में विविध संगठित और असंगठित समूह सम्मिलित हैं। वे अपने-अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उस विस्तृत जनतांत्रिक क्षेत्र में क्रियाशील हैं, जो शासन और व्यापार की परिधि के बाहर है। समालोचना, वाद-विवाद और विमर्श का स्थल होने के कारण नागरिक समाज शासन व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण हितधारक तो है ही, वह जनाकांक्षाओं की पूर्ति के अभियान में उत्प्रेरक और सहभागी की भूमिका भी निभाता है। किन्तु आज नागरिक समाज को प्रतिकूलता के चश्मे से देखा जाता है। संवैधानिक आचरण के मानकों की अवहेलना या कार्यपालिका के अधिकारों के दुरुपयोग के सम्बन्ध में आवाज़ उठाने का दुस्साहस करने वाले "विदेशी एजेंट"और "अवाम के दुश्मन" घोषित कर दिए जाते हैं। व्यवस्था के स्तर पर विदेशी योगदान, कंपनियों की सामाजिक ज़िम्मेदारी और आयकर छूट के क़ानूनी ढाँचे में फेर-बदल करके स्वैच्छिक संस्थाओं की आर्थिक स्वतंत्रता कीबुनियाद को लगातार कमज़ोर किया जा रहा है।

शासन और नागरिक समाज के बीच संव्यवहार को लेकर हमारी चिंता पिछले सप्ताहों में शासन के शीर्षस्थ अधिकारियों द्वारा दिए गए बयानों से और बढ़ गयी है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग  के स्थापना दिवस के अवसर पर उसके अध्यक्ष, न्यायमूर्ति (से. नि.) अरुण मिश्रा ने दावा किया कि विदेशी ताक़तों के इशारे पर मानवाधिकारों के क्षेत्र में भारत के सराहनीय रिकॉर्ड पर दाग़ लगाये जा रहे हैं। प्रधानमंत्री को भी ऐसा लगा कि एक राजनीतिक चाल के तहत कुछ विशेष मामलों में मानवाधिकारों का मुद्दा उठाया जाता है, जबकि दूसरे मामलों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। और तब तो हद हो गयी, जब रक्षा प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने कश्मीर में संदिग्ध आतंकवादियों की उग्र भीड़ द्वारा हत्या को उचित ठहराते हुए लिंचिंग की जघन्य प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया।

इन संकेतों को उनकी समग्रता में देखने से स्पष्ट होता है कि नागरिक समाज को उसके कार्यक्षेत्र और आवश्यक संसाधनों से वंचित करने की एक सोची-समझी रणनीति है। इस रणनीति की रूपरेखा का उद्घाटन श्री अजित डोवाल, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, द्वारा प्रतिपादित नूतन डोवाल सिद्धांत से हुआ है। राष्ट्रीय पुलिस अकादमी, हैदराबाद में आईपीएस अधिकारियों के दीक्षांत समारोह में अपने अभिभाषण में उन्होंने कहा, 

"अब नागरिक समाज युद्ध का, या यों कहें कि युद्ध-विधा का, सीमान्त प्रदेश बन गया है। राजनीतिक और सैन्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए युद्ध अब कारगर साधन नहीं रह गये हैं। बहुत महंगे होने के अलावा उनका अंजाम भी निश्चित नहीं होता। लेकिन यह नागरिक समाज है, जिसे परोक्षतः विनष्ट किया जा सकता है, जिसे रिश्वत दी जा सकती है, जिसे विखंडित किया जा सकता है, जिसे प्रभावित कर राष्टीय हितों को क्षति पहुँचाई जा सकती है। आप का काम है कि वे (हित) पूर्णतः सुरक्षित रहें।"

उल्लेखनीय है कि परिवीक्षाधीन आईपीएस अधिकारियों को संविधान में प्रतिष्ठापित मूल्यों, जिनके प्रति निष्ठावान रहने की उन्होंने शपथ ली थी, के पालन हेतु प्रेरित करने के बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने लोक प्रतिनिधियों और उनके द्वारा बनाये गए क़ानूनों को वरीयता देने पर बल दिया।

यहाँ स्मरण दिलाना उचित होगा कि "चौथी पीढ़ी की युद्ध-विधा" शब्दावली का प्रयोग सामान्यतः राज्य और आतंकवादी तथा विप्लवकारी वर्गों जैसे ग़ैर-राज्य अभिकर्ताओं के संघर्ष के सन्दर्भ में किया जाता है। अब नागरिक समाज को भी उन्हीं की पंक्ति में खड़ा कर दिया गया है। पहले मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए प्रयास करने वालों को "अर्बन नक्सल" घोषित कर बदनाम किया जाता था। स्पष्ट है कि नूतन डोवाल सिद्धांत के अंतर्गत फ़ादर स्टेन स्वामी जैसे लोग भारतीय राज्य के मुख्यतम शत्रु माने जायेंगे और सुरक्षा बलों के ख़ास निशाने पर होंगे।

नागरिक समाज पर हमला बोलने का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का आह्वान संवैधानिक मूल्यों और मानवाधिकारों के रक्षकों के विरुद्ध घृणा के उस आख्यान का अंग है, जिसे अधिष्ठान की प्रमुख विभूतियाँ निरंतर परोसती रही हैं।

दर्प और जनतांत्रिक व्यवहार की उपेक्षा वर्तमान व्यवस्था की मुख्य चारित्रिक विशेषताएं हैं। जिस तरह से सांसदीय मानकों को दरकिनार करते हुएभेद-भाव पर आधारित नागरिकता (संशोधन) अधिनियम को पारित कराकर नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर से सम्बद्ध किया गया और देशके विभिन्न भागों में उसे लेकर स्वतः उमड़े विरोध को जिस निर्दयता से दबाया गया, उससे यह प्रमाणित हो जाता है।

सार्वजनिक विमर्श, हितधारकों से मंत्रणा और सहयोगी राजनीतिक दलों की सहमति के बिना तीन कृषि क़ानूनों का अधिनियमन, तथा राजधानी के दरवाज़ों पर डेरा डाले हुए उत्तेजित किसानों के साथ किया गया दुर्व्यवहार भी इन्हीं विशेषताओं के गवाह हैं। चौदह महीनों तक चले किसानों के दृढ प्रतिरोध को अधिष्ठान ने चुनिंदा अपशब्दों से नवाज़ा। उन्हें "आन्दोलनजीवी", "वाममार्गी चरमपंथी" और "ख़ालिस्तानी" सरीखे ख़िताब दिए गये, और उन पर आरोप लगाया गया कि वे "विदेशी विद्ध्वंसक विचारधारा" (Foreign Destructive Ideology) के निर्देश पर कार्य कर रहे हैं। यह "विदेशी सीधा निवेश" (Foreign Direct Investment) के आद्यक्षरों के खेल पर आधारित एक विचित्र गढ़ंत थी। भले ही चुनावी विवशताओं के कारण प्रधानमंत्री ने कृषक-आक्रोश के पात्र क़ानूनों को निरस्त करने की घोषणा कर दी हो, पर देश की राजनीतिक व्यवस्था और समाज के ताने-बाने को हुई क्षति की पूर्ति आसानी से नहीं हो पाएगी।

आशा है कि सरकार ने असहमति और सविनय प्रतिरोध के बर्बरतापूर्ण दमन के दुष्परिणामों को भली भाँति समझ  लिया है। हम यह भी आशा करते हैं कि राष्ट्रीय पुलिस अकादमी के स्नातक, और आम सुरक्षा बल भी, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की वक्रपटुता से प्रभावित नहीं होंगे; वे यह याद रखेंगे कि उनका प्रथम कर्तव्य संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखना है। उन मूल्योंके समक्ष राजनीतिक कार्यपालिका की अपेक्षाएं गौण हैं। विधायिकाओं द्वारा बनाये गये क़ानून भी संवैधानिकता और जन-स्वीकृति की कसौटी पर परखे जाते हैं।

यदि यह आधारभूत सिद्धान्त स्वीकार्य न हो, तो हमें एक अन्य सन्दर्भ में लिखी गयी विख्यात जर्मन नाटककार बर्टोल्ट ब्रेख्ट की जानी-मानी व्यंग्य कविता "हल" पर नज़र डालनी होगी, जिसका समापन इन शब्दों के साथ होता है:

"ऐसे हालात में हुकूमत के हक़ में

क्या ये कहीं बेहतर नहीं होगा

कि वो इस अवाम को ख़ारिज करके

एक दीगर अवाम को चुन ले?"

सत्यमेव जयते

Constitutional Conduct Group

(... हस्ताक्षरकर्ता पृष्ठ....)   

CCG open letter_Civil Society - Enemy of the State_28 Nov 2021.pdf

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