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प्रधानमंत्री मोदी के सांप्रदायिक विभाजनकारी नेरेटिव पर फूटा ग़ुस्सा

वक़्त आ गया है कि लोगों के बीच इस तरह की खाई को बढ़ावा देने वालों को हराया जाए और धार्मिक बहुलवाद को बनाए रखने की क्षमता रखने वाले लोगों को चुना जाए।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार, 21 अप्रैल को राजस्थान के बांसवाड़ा में अपनी पार्टी के लिए प्रचार करते समय एक बार फिर मुसलमानों के खिलाफ नफ़रत भरा भाषण दिया। यह वास्तव में एक अच्छी तरह से लिखा गया भाषण था, मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के उद्देश्य से दिया गया भाषाण था न कि 'बिना सोचे समझे' वाला भाषण था जिसका मक़सद धार्मिक आधार पर और किसी विशेष समुदाय के वोटों को अपनी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी या भाजपा के पक्ष में प्रभावित करना था।

मोदी ने एक चौंकाने वाली टिप्पणी भी की कि विपक्षी दलों के चुने जाने के बाद, हिंदू विवाहित महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले 'मंगलसूत्र', सोने के आभूषण और "माताओं और बहनों" की ज़मीन-जायदाद और अन्य कीमती चीजें हड़प ली जाएगी और उन्हें "घुसपैठियों" (मुसलमान पढ़ें) के बीच बांट दिया जाएगा। 

'नफरत के मुख्य शिल्पकार, 

आम चुनावों के बीच लोगों में धार्मिक आधार पर विभाजन पैदा करने की स्पष्ट योजना वाले जहरीले नेरेटिव ने देश को गुस्से से भर दिया है, जिससे 6 जनवरी, 2003 की इंडिया टुडे पत्रिका की कवर स्टोरी की याद आ जाती है, जिसमें मोदी को "नफरत का शिल्पकार" बताया गया था। जो जनता को "बांटता है और हावी हो जाता है।"

इन शब्दों का इस्तेमाल 2002 के गुजरात दंगों के बाद एस. प्रसन्ना राजन ने किया था, जिन्होंने लिखा था कि मोदी जैसे लोगों को "... हमेशा एक दुश्मन की जरूरत होती है, फिर वह देश के भीतर या और बाहर हो: एक ऐसा व्यक्ति जो हौवा खड़ा कर सके, लोगों को लामबंद और एकजुट कर सके और सबसे प्रभावी ढंग से उन्हें विभाजित कर सके। वे बढ़ी हुई अपेक्षाओं और अतिसक्रिय नफ़रत के शिल्पकार हैं।”

बांसवाड़ा में अपने चुनावी भाषण में मुसलमानों पर निशाना साधते हुए मोदी, इंडिया टुडे की कवर स्टोरी के हर शब्द का इस्तेमाल कर रहे थे। उन्होंने जो कहा वह एक विभाजनकारी नेरेटिव को स्थापित करने के उनके स्थापित पैटर्न का निर्माण करता है।

मोदी, जो हाल तक अपने भाजपा नेताओं और कैडर से पसमांदा मुसलमानों तक पहुंच बनाने की अपील कर रहे थे, यह दावा करते हुए कि धार्मिक पहचान की परवाह किए बिना उनके सभी कार्यक्रम और नीतियां भारत के नागरिकों के लिए बनाए गए हैं, अब मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए हिंदू-मुस्लिम बायनरी का इस्तेमाल कर रहे हैं।

मनमोहन सिंह की टिप्पणियों को तोड़-मरोड़कर पेश करना

इस संदर्भ में, मोदी ने जानबूझकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 18 साल पुराने भाषण को भी दोहराया जिसमें सिंह ने कहा था कि आबादी के पीड़ित वर्गों, जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, बच्चों, महिलाओं, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों को देश के संसाधनों पर पहला अधिकार है। उन्होंने इस पर एक शैतानी व्याख्या दी कि, सिंह ने दूसरों की कीमत पर, ज्यादातर हिंदुओं की कीमत पर, देश की संपत्ति पर कब्ज़ा करने के लिए मुसलमानों को प्रधानता दी और तदनुसार राजनीति की और उनके पक्ष में शासन की रणनीति अपनाई थी।

आदर्श आचार संहिता एवं कानून का उल्लंघन

वोट जुटाने के मक़सद से प्रधानमंत्री के चुनावी भाषण से इस तरह की सांप्रदायिक धारा प्रवाहित होने वाली कथा भी चुनाव आयोग के आदर्श आचार संहिता का घोर उल्लंघन है, जो सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, कानून का बल है। यह जन प्रतिनिधित्व (आरपी) अधिनियम, 1951 की कई धाराओं का भी उल्लंघन है, जो चुनाव के दौरान प्रचार करने वाले नेताओं और निर्वाचित होने के इच्छुक उम्मीदवारों को धर्म के नाम पर वोट मांगने से रोकता है।

वास्तव में, न्यायपालिका यह मानती है कि धर्म के आधार पर कोई भी अपील और वोटों के लिए धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल आरपी अधिनियम के तहत एक 'भ्रष्ट आचरण' है। तो, इसकी व्याख्या यह की जा सकती है कि प्रधानमंत्री मोदी, मौजूदा कानून और परंपरा के अनुसार, भ्रष्ट आचरण में लिप्त हैं।

मोदी के भाषण की तुलना, भाजपा के महेश शर्मा की मुसलमानों से मांगी गई माफ़ी से करें

यह अजीब बात है कि प्रधानमंत्री ने रविवार को अपने भाषण में एक सुनियोजित ध्रुवीकृत एजेंडे की पटकथा लिखी, जबकि उसी दिन, उत्तर प्रदेश के गौतम बौद्ध नगर संसदीय क्षेत्र से तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ रहे भाजपा उम्मीदवार महेश शर्मा आसफाबाद चंदपुरा के दौरे पर गए थे। सिकंदराबाद में, जहां 4,000 मुस्लिम परिवार रहते हैं। 2019 के आम चुनावों में, उन्होंने प्रभावशाली अंतर से जीत हासिल की थी, लेकिन असफाबाद से उन्हें केवल 17 वोट मिले थे। शर्मा ने वहां लोगों से माफी मांगी और कहा, ''मैं अपनी और मेरी पार्टी की ओर से हुई गलती स्वीकार करता हूं।'' उन्होंने कहा कि, "हम यहां यह सोचकर नहीं आए कि यह मुस्लिम बहुल इलाका है और बदले में पिछली बार केवल 17 वोट मिले थे।" फिर उन्होंने कहा, "लेकिन आज, मैं यहां हमारे बीच खड़ी दीवार तोड़ने और आपका समर्थन मांगने आया हूं।" उन्होंने खुद को जामा मस्जिद इलाके में रहने वाले, जाकिर हुसैन कॉलेज में अध्ययन करने वाले व्यक्ति के रूप में बताया और मुसलमानों के प्रति "कभी भी शत्रुता नहीं रखने वाले" व्यक्ति के रूप में अपनी साख भी साबित करने  कोशिश की। उन्होंने अपनी और अपनी पार्टी बीजेपी द्वारा की गई गलतियों के लिए माफी की गुहार लगाई। 

यह विडंबनापूर्ण है कि एक भाजपा सांसद ने कहा कि, वह अपने और उनकी पार्टी द्वारा मुसलमानों के प्रति किए गए कृत्यों के लिए दोषी महसूस करते हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी के बांसवाड़ा में मुसलमानों को निशाना बनाने वाले नफ़रत भरे भाषण के उलट है।

चुनाव आयोग की चुप्पी 

दुख की बात है कि चुनाव आयोग जो इतने लंबे समय से चुप्पी साधे हुए है, पीएम के नफ़रत भरे भाषण के खिलाफ शिकायतों पर टिप्पणी करने से भी इनकार कर दिया है। दूसरी ओर, इसने केवल कुछ विपक्षी नेताओं को आदर्श आचार संहिता के कथित उल्लंघन के लिए नोटिस जारी किए हैं। प्रथम दृष्टया उनमें से कुछ उल्लंघन, मुसलमानों पर प्रधानमंत्री के घृणित बयानों के संदर्भ में महत्वहीन हो जाते हैं।

इस मामले पर चुनाव आयोग की चुप्पी से यह धारणा बनती है कि उसमें प्रधानमंत्री द्वारा किए गए उल्लंघनों से निपटने का साहस नहीं है और यह संविधान सभा में व्यक्त की गई बीआर अंबेडकर की आशंकाओं को सच साबित करती है, कि किसी भी संवैधानिक प्रावधान के अभाव में तत्कालीन सरकार को ऐसा करने से रोका जा सकता है। अयोग्य व्यक्तियों को चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त करके, वे "कार्यपालिका के अंगूठे के नीचे आ सकते हैं"। लोकतंत्र, संविधान और भारत के विचार को बचाने के लिए मतदाताओं से ऐसे विभाजनकारी नेताओं और उनकी पार्टियों को चुनाव में हराने की अपील करना स्पष्ट रूप से अनिवार्य हो गया है।

हिंदू-मुस्लिम एकता कायम रखने वालों को वोट देने की गांधी की अपील

इसी संदर्भ में, 2021 में न्यूज़क्लिक में प्रकाशित मेरा लेख "गांधी ने किस तरह के राजनीतिक उम्मीदवारों की आशा की थी कि मतदाता उनका समर्थन करेंगे", गांधी ने 1925 में मतदाताओं से उन उम्मीदवारों को चुनने की अपील की थी, जो दृढ़ता से विश्वास करते हैं कि हिंदू, मुस्लिम, पारसी, ईसाई और यहूदी की एकता - धर्म के आधार पर विभाजन को त्यागना है। 

वक़्त आ गया है कि इस तरह के विभाजन को बढ़ावा देने वालों को हराया जाए और धार्मिक बहुलवाद को बनाए रखने की क्षमता रखने वाले लोगों को चुना जाए।
 

एस एन साहू भारत के राष्ट्रपति के॰ आर॰ नारायणन के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटि रहे हैं। व्यक्त विचार निजी हैं। 
 

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