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बांसगांव संसदीय क्षेत्र: क्या परिणाम चौंकाने वाले हो सकते हैं?

साल 2019 में इस सीट पर बीजेपी के कमलेश पासवान ने जीत की हैट्रिक लगाई थी। कमलेश पासवान को कुल 5 लाख 46 हजार 673 वोट मिले, वहीं बसपा के सदल प्रसाद 3 लाख 93 हजार 205 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहे थे 
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गोरखपुर के दक्षिणांचल में स्थित बांसगांव कई नदियों के कछार में बसा होने के कारण लगातार बाढ़ की विभीषिका झेलता है। यहां की ज़मीन उबड़-खाबड़ है, जनसंख्या का अधिक घनत्व होने के बावज़ूद फसल अच्छी नहीं हो पाती, लेकिन अपराध की फसल यहां पर खूब लहलहाती है। हरिशंकर तिवारी और श्रीप्रकाश शुक्ला यहीं की पैदावार हैं। हरिशंकर तिवारी तो बाद में अपराध से राजनीति में गए और काफ़ी शीर्ष पर पहुंचे। पूर्वांचल में होने वाले अधिकांश अपराधों में यहीं के शूटरों का नाम सामने आता है। इस क्षेत्र के श्रीनेत, राजपूत और ब्राह्मण बड़ी संख्या में रोज़गार के लिए थाईलैंड (बैंकाक) जाते हैं और वे छोटा-मोटा सभी काम वहां पर करते हैं, जो वे अपने इलाक़े में उच्च जाति का होने के कारण नहीं कर सकते। इस इलाक़े के पिछड़ेपन के कारण लम्बे समय से इसे जिला बनाने की मांग होती रही, लेकिन यह मांग अभी भी अधूरी है। बांसगांव लोकसभा की गोरखपुर जिले के अंतर्गत आने वाली दूसरी लोकसभा सीट है। यह सीट 1962 में अस्तित्व में आई थी। 80 लोकसभा सीटों में बांसगांव सीट संख्या 67 है, यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित भी है, इस सीट पर श्रीनेत राजपूतों का दबदबा है, लेकिन दलितों के बड़े नेताओं में शुमार महावीर प्रसाद यहीं से 4 बार चुनाव जीते। महावीर प्रसाद का नाम प्रदेश के बड़े नेताओं में शामिल किया जाता है।

अगर बात करें इस सीट के लोकसभा इतिहास की तो यहां अब तक 15 बार लोकसभा चुनाव हुए हैं-पहली बार 1962 में इस सीट पर चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस नेता महादेव प्रसाद चुनाव जीते। 1967 के चुनाव में एसएसपी के टिकट पर मोलाहू यहां से सांसद चुने गए, वहीं 1971 के चुनाव में कांग्रेस के रामसूरत यहां से सांसद बने। 1977 भारतीय लोकदल के फिरंगी प्रसाद यहां से सांसद बने। 1980 के चुनाव में महावीर प्रसाद कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते, इसके बाद 1984 और 1989 के चुनाव में भी महावीर प्रसाद यहां से सांसद चुने गए। 1991 के चुनाव में यहां बीजेपी ने एंट्री मारी और राजनारायण यहां से सांसद बने। 1996 के चुनाव में समाजवादी पार्टी की सुभ्रावति देवी यहां से चुनाव जीती। 1998 और 1999 के चुनाव में बीजेपी के राजनारायण सांसद बने। 2004 के चुनाव में महावीर प्रसाद चौथी बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते, वहीं 2009,2014 और 2019  के चुनाव में बीजेपी के कमलेश पासवान सांसद बने।

इस लोकसभा सीट के अंतर्गत 5 विधानसभा सीटें आती हैं, जिनमें 2 सीटें देवरिया जिले से ली गई हैं और तीन सीटें गोरखपुर जिले से, देवरिया जिले के अंतर्गत आने वाली सीटें रूद्रपुर और बरहज है, वहीं चौरी-चौरा,बांसगांव और चिल्लूपार सीटें गोरखपुर में आती हैं।

2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने सभी पार्टियों का सूफड़ा साफ करते हुए पांचों सीटों पर क़ब्ज़ा जमाया था। 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में बांसगांव सीट पर कुल मतदाताओं की संख्या 17 लाख 27 हजार 798 थी, जिनमें पुरूष मतदाताओं की संख्या 9 लाख 47हज़ार 139 थी जबकि महिला वोटरों की संख्या 7 लाख 80 हज़ार 564 थी, वहीं ट्रांस जेंडर वोटरों की संख्या 95 रही।

अब एक नजर पिछले लोकसभा चुनावों के नतीजों पर डालें तो साल 2019 में इस सीट पर बीजेपी के कमलेश पासवान ने जीत की हैट्रिक लगाई थी। कमलेश पासवान को कुल 5 लाख 46 हजार 673 वोट मिले, वहीं बसपा के सदल प्रसाद 3 लाख 93 हजार 205 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहे थे जबकि पीएसपी के सुरेंद्र प्रसाद भारती को 8 हजार 717 वोट मिले थे,जो तीसरे स्थान पर रहे।

अब एक नजर 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों पर डालें तो साल 2014 में इस सीट पर बीजेपी के कमलेश पासवान ने दूसरी बार जीत दर्ज की थी। कमलेश को कुल 4 लाख 17 हज़ार 959 वोट मिले जबकि दूसरे नंबर पर बसपा के सदल प्रसाद रहे। सदल को कुल 2 लाख 28 हज़ार 443 वोट मिले, वहीं तीसरे नंबर पर समाजवादी पार्टी के गोरखप्रसाद पासवान रहे। गोरखप्रसाद को कुल 1 लाख 33 हज़ार 675 वोट मिले।

साल 2009 की बात करें, तो बीजेपी के युवा नेता कमलेश पासवान पहली बार यहां से सांसद चुने गए थे, इस चुनाव में कमलेश को कुल 2 लाख 23 हज़ार 11 वोट मिले। दूसरे नंबर पर बसपा के श्रीनाथ जी रहे, श्रीनाथ को कुल 1 लाख 70 हज़ार 224 वोट मिले, वहीं तीसरे नंबर पर सपा के शारदा द्विवेदी रहे, शारदा को इस चुनाव में कुल 1 लाख 13 हज़ार 170 वोट मिले थे।

साल 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के महावीर प्रसाद यहां से चौथी बार सांसद चुने गए, इस चुनाव में महावीर प्रसाद को कुल 1 लाख 80 हज़ार 388 वोट मिले। दूसरे नंबर पर बसपा के सदल प्रसाद रहे,सदल प्रसाद को कुल 1 लाख 63 हज़ार 947 वोट मिले, वहीं तीसरे नंबर पर सपा से सभापति पासवान रहे, सभापति को कुल 1 लाख 35 हज़ार 501 वोट मिले।

एफवीओ-बांसगांव लोकसभा सीट उत्तरप्रदेश की 67 नंबर सीट 

बांसगांव सीट पर जातीय समीकरणों की बात करें, तो इस सीट पर सबसे ज़्यादा मतदाता अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के बताए जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ इनकी संख्या करीब 8.34 लाख है जबकि 2.5 लाख मतदाता अनुसूचित जाति के हैं, वहीं सवर्ण मतदाताओं की संख्या भी करीब 5 लाख है और डेढ़ लाख मुस्लिम मतदाता हैं। अनुसूचित जाति में पासवान जाति के लोग काफ़ी मज़बूत है।
 
अब बात अगर 2024 के लोकसभा चुनावों की करें, तो भाजपा ने एक बार फ़िर कमलेश पासवान पर भरोसा जताया है, कमलेश पासवान पिछले डेढ़ दशक से इस सीट पर क़ाबिज़ हैं, वहीं इंडिया गठबंधन ने सदल प्रसाद को मैदान में उतारा है, सदल प्रसाद बीते डेढ़ दशक से इस सीट पर बसपा के टिकट पर चुनाव लड़े हैं लेकिन हमेशा ही उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा है, लेकिन क्या इस बार कुछ भिन्न परिणाम आ सकते हैं। सुरक्षित सीट होने के बावज़ूद यहां से कभी भी बसपा चुनाव नहीं जीत सकी। इस वर्ष लोकसभा में चुनाव में प्रारम्भ में ऐसा लग रहा था कि वह भाजपा को एक बड़ी चुनौती दे सकती है, इसका कारण यह है कि यहां से बसपा ने अपना उम्मीदवार श्रवण कुमार निराला को बनाया था, वे मीडिया में बहुत ज़्यादा चर्चित नहीं हैं, लेकिन पिछले दिनों गोरखपुर में सभी भूमिहीनों को एक एकड़ जमीन दिलाने की मांग को लेकर इन्होंने बहुत बड़ा आंदोलन किया था, इस आंदोलन के कारण श्रवण कुमार निराला को दो बार जेल जाना पड़ा। पहली बार इन्होंने 22 दिन जेल में बिताए। इनके साथ दलित एक्टिविस्ट एवं पूर्व आईपीएस एसआर दारापुरी, पत्रकार डॉ० सिद्धार्थ सहित 10 लोगों को गोरखपुर प्रशासन ने 307 जैसी गंभीर धारा लगाकर जेल में डाल दिया था, अभी वे सभी लोग जमानत पर हैं। श्रवण कुमार निराला का मामला तो काफी दिलचस्प है, श्रवण कुमार निराला छात्र राजनीति से बसपा में आए। छात्र जीवन में निराला अंबेडकरवादी राजनीति करते थे, विश्वविद्यालय में दलित सहित सभी आरक्षित वर्गों के छात्रों का जीरो फीस पर एडमिशन कराने का आंदोलन श्रवण कुमार निराला ने किया और उसमें बड़ी सफलता मिली।

वर्षों तक परंपरागत पाठ्यक्रमों के साथ-साथ बीटेक, बीएड, एमएड जैसे लाखों की फीस वाले प्रोफेशनल कोर्सों में जीरो फीस पर एडमिशन हुआ, लेकिन अजय सिंह बिष्ट की सरकार ने यह सुविधा समाप्त कर दी है। गोरखपुर विश्वविद्यालय में एडहॉक प्रोफेसर की रिक्तियों में तथा पीएचडी हेतु प्रवेश में आरक्षण लागू करवाना श्रवण कुमार निराला की देन है। ऐसे बहुत सारे संघर्ष निराला ने छात्र राजनीति करते समय किया। बसपा में भी निराला ने कोऑर्डिनेटर जैसे महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। विधानसभा चुनाव 2017 में बसपा की करारी हार के बाद मायावती ने इन्हें विधानसभा बांसगांव से 2022 की विधानसभा चुनाव के लिए 2017 में ही प्रत्याशी घोषित कर दिया था, लेकिन 2019 में लोकसभा चुनाव के बाद इनका टिकट वापस ले लिया।

उस समय निराला ने बसपा छोड़ दिया तथा सभी भूमिहीनों को एक एकड़ ज़मीन दिलाने का आंदोलन प्रारंभ किया जिसके कारण इन्हें जेल जाना पड़ा, निराला पूर्वांचल में दलितों के उत्पीड़न पर सक्रिय संघर्ष करते हैं तथा पीड़ितों के साथ खड़े रहते हैं। इनको इस चुनाव में बांसगांव से टिकट देने के लिए मायावती ने आश्वासन दिया था, लेकिन एक 76 वर्ष के रिटायर्ड आईआरएस अधिकारी; जो अभी बीजेपी में थे तथा सपा से टिकट मांग रहे थे, उनको टिकट दे दिया। पिछले दिनों बसपा का टिकट मिलने पर श्रवण कुमार निराला से मेरी लम्बी बातचीत हुई। उन्होंने अपने पारिवारिक और राजनीतिक संघर्षों के बारे में बतलाया। गोरखपुर में चौरीचौरा के निकट एक गांव में एक दलित परिवार में उनका जन्म हुआ था, उनके पिता एक छोटे किसान थे। उन्होंने बतलाया कि “प्रारम्भ में कुछ मुद्दों पर बसपा के साथ उनके मतभेद थे, लेकिन इस बार बहन जी (मायावती) ने उन्हें ख़ुद बुलाकर बांसगांव संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने की बात की थी।” उन्होंने इस बात से भी इंकार किया, कि बसपा भाजपा की बी टीम है तथा वह उसे लाभ पहुंचाने के लिए इंडिया गठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ रही है। उन्होंने कहा कि “बसपा ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो भाजपा, सपा और कांग्रेस के मनुवाद से लड़ सकती है।” अब उनके टिकट कटने से सभी आश्चर्यचकित हैं, इस सम्बन्ध में उनसे बातचीत करने पर उन्होंने कहा कि “वे निराश नहीं हैं तथा माननीय कांसीराम जी के सपनों को पूरा करने के लिए वे अंबेडकर युवा मोर्चा के तहत इस क्षेत्र से चुनाव लड़ेंगे और 11 मई को अपना पर्चा दाखिल करेंगे।” उन्होंने कहा कि “यह इलाक़ा बहुत पिछड़ा है। आज़ादी के इतने वर्ष बीत जाने के बावज़ूद इस इलाक़े में ट्रेन तक नहीं आई। यहां से जीतने वाले सभी प्रत्याशी बाहर ही रहे हैं तथा चुनाव जीतने के बाद इस क्षेत्र में नहीं आते, लेकिन वे चुनाव जीतने के बाद अपने क्षेत्र में रहेंगे और जनसमस्याओं के लिए लगातार संघर्ष करते रहेंगे।” 

यह सम्पूर्ण प्रकरण आज की दलित राजनीति की दशा और दिशा को बतलाता है। क्या यह है प्रकरण बांसगांव संसदीय चुनाव क्षेत्र पर कोई असर डालेगा? इसे आने वाला समय ही बतलाएगा।

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