ढहता लोकतंत्र : राजनीति का अपराधीकरण, लोकतंत्र में दाग़ियों को आरक्षण!
आजादी के 75 बरस। आगामी 15 अगस्त को देश आजादी का अमृतकाल मनाएगा। सरकार गदगद है और देश की जनता में उल्लास। आजादी का अमृतकाल, मने यह कौन नहीं चाहता! लेकिन चाहत तो यह भी है कि हमारा लोकतंत्र अक्षुण भी रहे। इसका इकबाल भी बुलंद हो। लेकिन सवाल है कि भारत क्या अपने लोकतंत्र को जीवंत, मजबूत और आदर्श बनाये रखने में सफल हुआ है?
एक सफल लोकतंत्र के जितने भी आयाम हैं क्या भारत उसपर खरा उतरा है? किसी भी लोकतंत्र की साख उसकी विधायिका पर ज्यादा निर्भर है। नेता के गुण-अवगुण और चरित्र लोकतंत्र को ज्यादा प्रभावित करते हैं। आजादी के बाद भारतीय विधायिका और उसके नेताओं की जनता के प्रति वफादारी और उत्तरदायित्व की तूती बोलती थी लेकिन अब वही विधायिका आपराधिक कुकृत्यों से कलंकित है। राजनीति में आपराधिक तत्वों का आधिपत्य है और संसद से लेकर विधान सभाएं अपराधी, दागी नेताओं से भरी हुई है। ऐसे में भला एक ईमानदार लोकतंत्र की कल्पना कैसे की जा सकती है।
आजादी के अमृतकाल की दुदुम्भी और शंखनाद से इतर जब राजनीति के अपराधीकरण पर हम नजर डालते हैं तो शर्म से सिर झुक जाता है। जो सदन कभी जनता के सवालों पर गूंजता था,एक से बढ़कर एक वक्ताओं के ऐतिहासिक भाषणों की संसद से लेकर सड़क तक चर्चा होती थी, लोकतंत्र की इस खूबी पर दुनिया को भी जलन होती थी आज वही लोकतंत्र ,वही सदन दागी नेताओं की उपस्थिति और उसके खेल से शर्मसार है। भारतीय संसद के अबतक के इतिहास पर नजर डाले तो लगता है कि जिस तेजी से संसद और विधान सभाओं में दागी नेताओं की उपस्थिति बढ़ रही है, एक दिन ऐसा आएगा जब संसद में बेदाग़ नेता-मंत्रियों की सूची तैयार करने में भी परेशानी होगी।
संसद और विधान सभाओं का अगला भविष्य क्या होगा यह कोई नहीं जानता। लेकिन मौजूदा सदन की कहानी को गौर से पढ़ें और देखे तो लगता है कि भले ही महिलाओं को संसदीय राजनीति के लिए अब तक 33 फीसदी आरक्षण का लाभ तो नहीं मिला हो लेकिन सच यही है कि गुपचुप तरीके से सभी राजनीतिक दलों ने सदन में दागी नेताओं के लिए 33 फीसदी से ज्यादा सीटें आरक्षित कर रखी है। इसे आप दागियों के पैरों तले लोकतंत्र को कुचलना कहिये या फिर दागियों के प्रति लोकतंत्र की आस्था। यही हाल धनकुबेर नेताओं का भी है। अगर दागियों के लिए 33 फीसदी से ज्यादा सीटें आरक्षित है तो धनकुबेर नेताओं के लिए भी 80 फीसदी से ज्यादा सीटें आरक्षित हैं।
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हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि देश की संसद और विधान सभाएं दागी नेताओं की पहुँच और उनके बदनाम चरित्र से दागदार हुई है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि संसदीय राजनीति करने वाले बहुत सारे नेताओं पर राजनीतिक मुक़दमे भी बड़ी तादाद में दर्ज होते रहे हैं। कभी विरोधी पक्ष सामने वाले की राजनीति को दागदार बनाने के लिए झूठे मुक़दमे दर्ज करने में कोई कोताही नहीं बररते तो कभी एक ही पार्टी के सामानांतर नेता दूसरे की तुलना में अपने को श्रेष्ठ बनाने के लिए सामने वाले नेताओं को दागी बनाने से नहीं चूकते। लोकतंत्र का यह खेल भी काम मनोरंजक नहीं। उदहारण के लिए मौजूदा समय में कांग्रेस की राजनीति करने वाले कन्हैया कुमार को ही ले सकते हैं। कन्हैया कुमार पर देश विरोधी नारे लगाने का मामला दर्ज है। उन्हें देशद्रोही भी कहा गया लेकिन आज तक उनकी गिरफ्तारी नहीं हुई। लेकिन उनके चेहरे पर भारत विरोध और देशद्रोह का दाग लगने की बात विपक्षी पार्टियां कहने से नहीं चूकती।
संसदीय राजनीति करने वाले अधिकतर नेताओं पर कोई न कोई मुकदमा दर्ज है। इस मामले में सबसे ज्यादा मुक़दमे वाम दलों के नेताओं पर हैं। वजह है जनता की समस्या और जनता के अधिकार को लेकर वाम दलों के नेता सबसे ज्यादा आगे रहते हैं। सरकार की नीतियों का विरोध करते हैं और परिणाम उनके ऊपर दर्ज मुक़दमे के रूप में सामने आता है। हाल के वर्षों में देश के कई इलाकों में जिस तरह धर्म और जाति के नाम पर खेल होते दिख रहे हैं इसमें भी बड़ी संख्या में नेताओं पर मुक़दमे दर्ज हो रहे हैं। कई नेताओं पर चुनाव के दौरान दिए गए भाषण भी मुक़दमे के कारण बनते हैं। यही हाल कांग्रेस ,बीजेपी और अन्य दलों के नेताओं का भी है जो जनता की मांग को लेकर मुक़दमे के शिकार हो जाते हैं। खासकर जबसे देश की राजनीति में क्षेत्रीय दलों का विस्तार हुआ है और राज्यों में उसकी शक्ति बढ़ी है ,राजनीतिक मुक़दमे ज्यादा बढ़ते गए हैं।
हालांकि इस बारे में अभी तक कोई साफ़ खाका सामने नहीं है कि कितने फीसदी नेता राजनीतिक मुक़दमे के शिकार है लेकिन माना जा रहा है कि 30 से 35 फीसदी देश के नेता राजनीतिक साजिश के तहत मुकदमों के जाल में फसे हैं। राजनीतिक साजिश के शिकार नेताओं की कहानी को यहां आगे बढ़ाने की जरूरत नहीं है लेकिन यह तय है कि नेता राजनीतिक मुकदमों के शिकार होते हैं लेकिन उससे भी बड़ा सच ये है कि राजनीति का अपराधीकरण तेजी से होता जा रहा है।
ऐसे में एक सवाल उठता है कि क्या राजनीति वाकई गुंडों का खेल है? लोकसभा से लेकर विधान सभाओं में दागी नेताओं की भरमार है तो राज्यसभा और विधान परिषद में करोड़पतियों और धनकुबेर व्यापारियों का अधिपत्य। दागी नेता हमारे लिए कानून बना रहे हैं तो करोड़पति नेता हमारे आर्थिक विकास की नीतियां बनाते हैं। गजब का तमाशा है। इसे हम लोकतंत्र कहिये या फिर दागी तंत्र या धनकुबेर तंत्र। सच यही है मौजूदा राजनीति लोकतंत्र को चिढ़ा रही है और दागी-धनकुबेर नेताओं की वजह से लोकतंत्र हांफ रहा है।
पहले के जमाने में डाकुओं के गिरोह होते थे। मिलकर ये सब अपने टारगेट को लूटते थे। लेकिन अब राजनीति के दम पर वही खेल जारी है। देश की राजनीतिक पार्टियां गिरोह में बदल गई है। देश में शायद ही कोई दल हो जो यह दावा कर सके कि उसका दामन पूरी तरह साफ़ है। धर्म के नाम पर राजनीति करने वाला दल भी दागियों, अपराधियों को अपने पाले में किये हुए है। और शायद सबसे ज़्यादा।
आज का सच यही है कि लोकतंत्र का हम कितना भी गुणगान करते रहे लेकिन गुंडई करने वालो से लेकर चोरी ,हत्या,बलात्कार ,ठगी और डकैती के आरोपी भारत की छाती को रौंद रहे हैं और लोकतंत्र को कलंकित किये हुए हैं। ऐसे में भारत का लोकतंत्र किसी प्रहसन से कम नहीं है।
2019 के लोकसभ चुनाव परिणाम को ही देखें तो आँखे फटी रह जाती है। कुल 542 सांसद चुनकर संसद में पहुंचे। इनमे से 233 सांसद दागी पाए गए हैं। यानी कि मौजूदा सदन में करीब 43 फीसदी सांसद किसी न किसी अपराध के आरोपी हैं और इनमे 159 सांसद ऐसे हैं जिनपर गंभीर आरोप हैं। इनपर डकैती, बलात्कार, हत्या और हत्या के प्रयास के आरोप हैं। यहां यह भी बता दें कि चूंकि मौजूदा सदन में एनडीए के 353 सांसद हैं, जाहिर है कि बीजेपी और एनडीए के सबसे ज्यादा सांसद दागी हैं। बाकी दलों की बात कौन करें। बीजेपी चूंकि शुचिता, देशभक्ति और अहिंसा की बात ज्यादा करती है लेकिन चुनाव में दागियों से उसे कोई परहेज नहीं।
ऐसा नहीं है कि दागी नेताओं की उपस्थिति कोई पहली बार मौजूदा लोकसभा में हुई है। पिछले 2014 और 2009 के चुनाव का भी अध्ययन करें तो यही सब देखने को मिलता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में 185 दागी नेता चुनाव जीतकर सदन में पहुंचे थे। इनमे 112 सांसदों पर हत्या, बलात्कार और हत्या के प्रयास के कई और गंभीर आरोप लगे थे। यानी कुल 34 फीसदी दागी नेता हमारे लोकतंत्र की शोभा बढ़ा रहे थे। 2009 के चुनाव में 162 अपराधी किस्म के नेता चुनाव जितने में सफल हुए थे। इनमें से 76 नेताओं पर गंभीर आरोप थे। इस तरह से 2009 दागी नेताओं का प्रतिशत करीब 30 फीसदी था। इस तरह इन तीन लोकसभा चुनाव को ही देखें तो साफ़ हो जाता है कि दागियों की संख्या लोकसभ में लगातार बढ़ती जा रही है। 2009 में दागियों की संख्या जहां 30 फीसदी थी वही 2014 के चुनाव में यह बढ़कर 34 फीसदी हो गई और 2019 के चुनाव में यह रिकॉर्ड पार करते हुए 43 फीसदी पर पहुँच गई। ऐसे में तो यह भी कहा जा सकता है कि संसद में दागियों के लिए करीब 33 फीसदी सीटों का आरक्षण लागू है। महिलाओं को आज तक संसदीय चुनाव में 33 फीसदी आरक्षण नहीं मिल पाया लेकिन दागियों के लिए सभी दलों ने मौन होकर ही 33 फीसदी का आरक्षण तय कर रखा है।
संसद में यही हाल करोड़पतियों का भी है। अब चुनाव लड़ना आम आदमी के बस की बात नहीं रह गई है। लूट, दलाली, रंगदारी के साथ ही कथित व्यापार के नाम पर जिन धनधारियों के पास अकूत संपत्ति है वही अब चुनाव लड़ सकते हैं। संसद में ऐसे नेताओं की संख्या अब लगातार बढ़ रही है। स्थिति तो यह है कि अगले चुनाव तक सम्भावना है कि पूरा सदन करोड़पतियों के हवाले होगा और आम जनता टुकुर टुकुर सब देखती रहेगी। 2009 के चुनाव में सदन पहुँचने वाले करोड़पतियों की संख्या 315 थी यानी करीब 58 फीसदी सांसद करोड़पति थे। इनकी संख्या 2014 के चुनाव में 442 हो गई यानी 82 फीसदी सांसद करोड़पति थे। मौजूदा 2019 के चुनाव में 475 करोड़पति सांसद सदन में पहुंचे जो कुल सांसदों का 88 फीसदी है। ऐसे में यह भी हैं कि करोड़पतियों के लिए भी सदन में आरक्षण हो गया है। यानी 85 फीसदी सीट करोड़पति सांसदों के लिए आरक्षित हो गई है। लोकतंत्र के इस खेल को आप क्या कहेंगे ?
ऐसा नहीं है कि केवल लोकसभा में ही दागी नेताओं की भरमार है। राज्यों के विधान सभाओं की स्थिति पर नजर डालें तो वह और भी डरावना है और लोकतंत्र के अपराधीकरण की पुष्टि करते हैं। यूपी के हालिया चुनाव में 403 में से 255 दागी उम्मीदवार चुनाव जीतकर विधान सभा पहुंचे हैं। इन विधायकों पर तरह-तरह के गंभीर दाग है। किसी पर बलात्कार के मामले दर्ज हैं तो किसी पर महिला उत्पीड़न के मामले। कोई हत्या के आरोपी हैं तो कोई हत्या के प्रयास के मामले में दागी है। किसी पर डकैती के आरोप हैं तो कोई ठगी और फरेबी के मामलो के सामना कर रहे हैं। इस चुनाव में बीजेपी को 255 सीटें मिली थी। बीजेपी के 255 में से 111 विधायक दागी हैं यानी बीजेपी के लगभग आधे विधायक अपराधी किस्म के हैं। सपा के 111 विधायकों में से 71 दागी हैं। इसके अलावा यूपी के इसी विधान सभा में इस बार 366 विधायक करोड़पति हैं। यानी हर दस विधायकों में से 9 करोड़पति। भारत के लोकतंत्र का यह एक नया तमीज और नया रूप है।
लेकिन अपराध के राजनीतिकरण की मौजूदगी कोई यूपी तक ही नहीं है। कमोबेश यही हाल हर सूबे और हर विधान सभा का है । मध्य प्रदेश के मौजूदा विधान सभा में 41 फीसदी विधायक दागी हैं तो महाराष्ट्र के 288 सदस्यीय विधान सभा में 176 विधायक दागी हैं और 264 करोड़पति। गुजरात के 182 विधायकों में 47 दागी हैं और 141 करोड़पति। पंजाब के 117 विधायकों में 58 पर केस दर्ज है और इनमे 27 पर गंभीर आरोप है। इस बार 87 करोड़पति विधायक सदन पहुंचे हैं। बिहार के 243 विधायकों में 136 पर आपराधिक मुक़दमे दर्ज हैं और इनमे से 27 पर गंभीर धाराएं लगी हुई है। यही हाल हरियाणा, ओडिशा, कर्नाटक, झारखंड, पश्चिम बंगाल, गोवा और पुदुच्चेरी और उत्तराखंड समेत बाकी विधान सभाओं के हैं जहां एक से बढ़कर एक दागी नेता जनप्रतिनिधि के तौर सदन में विराजे हैं।
राजनीति के आपराधिकरण पर 90 के दशक में देश में खूब चर्चा हुई थी। तबके पूर्व लोकसभा स्पीकर रवि राय ने 93 में गठित बोहरा कमेटी की रिपोर्ट सदन के पटल पर रखने की बात की थी, ताकि राजनीति के अपराधीकरण की सच्चाई सामने आ सके। लेकिन किसी भी पार्टी ने इसे स्वीकार नहीं किया। इसके पीछे का कारण यह था कि तत्कालीन गृह मंत्री को लगता था कि अगर बोहरा कमेटी की रिपोर्ट का खुलासा हो गया तो सरकार गिर जाएगी।
बोहरा कमेटी दरअसल राजनीति में बढ़ते अपराध और राजनीति के साथ अपराधियों के सांठ गाँठ पर गठित की गई थी। लेकिन इस कमेटी की रिपोर्ट तब सदन के पटल पर लाया गया जब देश में नयना साहनी कांड हुआ और राजनीति के अपराधीकरण पर हल्ला शुरू हुआ। लेकिन उस रिपोर्ट पर कभी बहस नहीं हुई। कहा गया कि रिपोर्ट आधी अधूरी है। जबकि रिपोर्ट में साफ़ तौर पर कहा गया था कि कुछ राजनेता माफिया गनिग और प्राइवेट आर्मी के नेता बन गए हैं और सालों से चुनाव जीतते आ रहे हैं। इस वजह से आम आदमी की संपत्ति और सुरक्षा को गंभीर खतरा है। लेकिन इस पर आगे कोई चर्चा नहीं हुई। तब रवि राय ने कहा था कि ''संसद और विधान सभाओं में अपराधियों की पहुँच से खतरनाक स्थिति राजनीतिक दलों और उसके नेताओं की है और सरकार की है जो अपराधियों को दोषी मानते ही नहीं। और इस खेल में सभी दल सामान रूप से भागीदार हैं। जब सरकार ही ऐसे दागी नेताओं को सजा नहीं देना चाहती तो दागी दागी चिल्लाने से क्या होगा। सच यही है राजनीति में अपराध को सभी ने स्वीकार कर लिया है।''
दरअसल, राजनीतिक दलों में आपराधिक तत्वों की घुसपैठ सबसे पहले बूथ लूट की प्रक्रिया से शुरू हुई थी। जो अपराधी पहले नेताओं के अंगरक्षक थे वे अब चुनाव में घुसपैठ करने लगे थे। शुरू के तीन आम चुनाव में हत्या और बूथ कब्जाने की घटना न के बराबर थी लेकिन 1962 के तीसरे आम चुनाव के दौरान बिहार में 12 तथा असम, हरियाणा, आंध्र, मध्य प्रदेश और बंगाल में एक दो मतदान केन्द्रो पर दुबारा चुनाव हुए थे। किन्तु कोई हिंसक घटनायें नहीं घटी थीं। लेकिन उपद्रव की वजह से ही इन इलाकों में दोबारा चुनाव करने पड़े थे। लेकिन 71 के बाद यह प्रवृति बढ़ती चली गई। गुंडा गिरोह द्वारा चुनावी प्रक्रिया में हक्षतेप की प्रवृति पांचवे आम चुनाव में 1971 के को मिली। बिहार में आठ मामले सामने आये। हरियाणा में एक मामले बूथ लूट के थे। बिहार में गुंडा गिरोह ने तब कई मतपेटियों को लूट लिया था। इस वर्ष 66 मतदान केन्द्रों पर दुबारा मतदान कराने पड़े थे।
दरअसल लोकतंत्र के अवसान की कहानी यहीं से शुरू हो गई। फिर 77 के चुनाव में बूथ लूटने की कई घटनाएं सामने आयी। बिहार एक चौथाई मतदान केंद्र इसके चपेट में आये। दक्षिण भारत में भी यही कहानी देखने को मिली। और 79 से अपराधियों का राजनीति में प्रवेश शुरू हो गया। और आज की हालत ये है कि सदन में इस बात की चर्चा होती है कि सदन अब कितने सदस्य हैं जिनपर कोई दाग नहीं है।
ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र को दागदार होते देख नेताओं में चिंता नहीं थी। चिंता तो अदालतों ने भी की और चुनाव आयोग ने भी। लेकिन तमाम चिंताएं और किए गए प्रयास ढाक के तीन पात ही साबित हुए हैं। इसी कड़ी में सुप्रीम कोर्ट ने 2 मई 2002 को संविधान के अनुच्छेद 19-1 ए के तहत देश के सभी नागरिकों को संविधान प्रदत्त अधिकार की व्याख्या करते हुए व्यवस्था दी थी कि लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए मतदाताओं को संसद या विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों का इतिहास जानने का अधिकार है। लेकिन कुछ भी तो नहीं हुआ। इस पर पहल करने से सभी दल भागते रहे।
फिर जनप्रतिनिधि कानून में भी संशोधन हुए। जनप्रतिनिधि 1951 की धरा 8 के तहत कुछ विशेष अपराधों के सजायाफ्ता व्यक्ति को निर्धारित समय के लिए संसद या विधान सभाओं की सदस्यता के लिए अयोग्य माना गया। लेकिन कुछ मामलों को छोड़ दें तो सब कुछ वैसे ही चलता रहा। नेताओं ने अदालती सुनवाई को आगे बढ़ाने का खेल शुरू किया ताकि न तो अपराध की पुष्टि हो सके और न ही सजा की। इसके बाद न्यायमूर्ति एच आर खन्ना, नानी पालकीवाला और न्यायमूर्ति लेटिन की समिति ने सिफारिश की थी कि ऐसे व्यक्ति को चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं दी जाए जिन्हें किसी अपराध मामलों में दोषी पाया गया हो या जिनके खिलाफ किसी फौजदारी अदालत ने आरोप तय किये हों। लेकिन सब कुछ वैसे ही चल रहा है जैसा नेता चाहते हैं।
अभी पिछले साल 2021 में ही सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी, कांग्रेस, जेडीयू, आरजेडी, सीपीआई और एलजेपी पर एक एक लाख रुपयों का जुर्माना लगाया था। सीपीएम और एनसीपी पर पिछले साल बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान अदालत का आदेश न मानने के लिए पांच लाख का जुर्माना लगाया गया। उस समय अदालत ने आदेश दिया था कि उम्मीदवारों को पार्टियों द्वारा चुनाव लड़ने के लिए चुने जाने के 48 घंटों के अंदर या नामांकन भरने से कम से कम दो सप्ताह पहले अपनी खिलाफ दर्ज सभी आपराधिक मामलों की जानकारी पार्टी की वेबसाइट पर सार्वजनिक कर देनी चाहिए। लेकिन किसी भी पार्टी ने ऐसा नहीं किया। ताजा आदेश में अदालत ने पार्टियों को कहा है कि अब से उम्मीदवार को चुन लेने के 48 घंटों के अंदर अंदर ही यह जानकारी उन्हें अपनी वेबसाइट पर डालनी होगी। उन्हें अपनी वेबसाइट के होमपेज पर आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए अलग से इंतजाम करना होगा। लेकिन होता कुछ भी नहीं दिखता।
मौजूदा सच तो यही है कि केंद्रीय मंत्रिपरिषद के 78 मंत्रियों में से 33 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। क्या ये सब सरकार को नहीं मालूम है। लेकिन सरकार और सरकार चलने वाली पार्टी भी क्या करे। दागी नेताओं को मंत्री नहीं बनाने पर वह विद्रोह कर सकता है,पार्टी छोड़ सकता है,सरकार गिर सकती है। ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि लोकतंत्र भले ही दागी हो जाए, लेकिन सरकार नहीं गिरनी चाहिए।
पुनश्च : लोकतंत्र में राजनीति का यह खेल भरमाता भी है और लुभाता भी है। लेकिन दागदार होते लोकतंत्र में आज भी कई ऐसे नेता है जो पाक साफ़ हैं और जिनकी ईमानदारी सराहनीय है। यह सिक्के का दूसरा पहलू है लेकिन इस पहलू की चमक दागी नेताओं के सामने धूमिल सी होने लगी है।
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