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कोरोना संकट: यही वक़्त है बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की मांग लेकर उठ खड़े होने का

हमारा हेल्थ सिस्टम बहुत समय से बीमार था, कोरोना की वजह से यह पर्दा उठ गया है और हक़ीक़त का बदसूरत चेहरा जो भारत के सिस्टम में मौजूद है, वह सबको दिखने लगा है।
कोरोना संकट: यही वक़्त है बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की मांग लेकर उठ खड़े होने का
Image courtesy : The Economic Times

वह कहानी आपने जरूर सुनी होगी, जिस कहानी में दरवाजे पर लगा पर्दा बहुत खूबसूरत होता है और घर के अंदर का पूरा माहौल बहुत अधिक बदसूरत। हिंदुस्तान की हकीकत भी ऐसी ही है।

‘बर्डेन ऑफ डिजीज इन इंडिया’ नाम की रिपोर्ट में प्रकाशित एक आकलन के मुताबिक भारत में सीधे-सीधे कुपोषण के कारण हर साल 73 हजार लोगों की मौत होती है। फिर, कुछ ऐसे रोग हैं जिनका बड़ा गहरा संबंध गरीबी से है, मिसाल के लिए डायरिया (साल में 5.2 लाख लोगों की मौत), टीबी (साल में 3.75 लाख लोगों की मौत), शिशु मृत्यु (साल में 4.45 लाख शिशुओं की मौत), मलेरिया(1.85 लाख लोगों की मौत)।

भारत में रोग से मरने वालों की यह तस्वीर है। लेकिन ना तो चुनाव का मुद्दा बनती है और ना ही मीडिया में इसे जगह मिलती है। क्योंकि हर जगह कोशिश चलती रहती है कि किसी तरह से विज्ञापन प्रचार राष्ट्रवाद से पैदा हुए नशे में यह सब किसी खूबसूरत पर्दे में छिपाकर रखा जाए।

कोरोना की वजह से यह पर्दा उठ गया है और हक़ीक़त का सबसे बदसूरत चेहरा जो भारत के सिस्टम में मौजूद है, वह सबको दिखने लगा है। लोग ऑक्सीजन की कमी से मर रहे हैं। वेंटिलेटर की कमी से मर रहे हैं। बिस्तर की कमी से मर रहे हैं। डॉक्टर ना मिलने की कमी से मर रहे हैं। दवाई ना मिलने की कमी से मर रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि लोग जितने कोरोना की वजह से नहीं मर रहे है, उतना इसलिए मर रहे हैं क्योंकि उनकी पहुंच स्वास्थ्य सुविधाओं तक नहीं हो पा रही है।

जब भारत की सबसे बदसूरत तस्वीर दिख रही है तो सबसे जरूरी सवाल भी पूछने चाहिए। सबसे गहरी चर्चाओं को छेड़ना चाहिए।

भारत जैसे गरीब मुल्क में सबसे गहरी चर्चा का एक बिंदु तो यह भी है कि फ्री और सस्ती स्वास्थ्य सुविधाएं सबके लिए उपलब्ध हों। यह तभी हो पाएगा जब सरकार स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराएगी ना कि निजी कंपनियों के समंदर में जनता को फेंक देगी।

यह चर्चाएं हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बननी चाहिए थीं। लेकिन नहीं बनी। क्योंकि हमने मनोरंजन और चुनावी हार जीत के आगे पूरे भारत की हकीकत को पीछे धकेल दिया। यह सवाल जब मैंने अपने गांव के पंचायती चुनाव के उम्मीदवार से पूछा कि आप यह बताइए कि आप फ्री में स्वास्थ्य सुविधाओं का समर्थन करेंगे या नहीं? उनका जवाब था कि फ्री में तो कुछ भी नहीं होना चाहिए। आखिरकार जो डॉक्टर है, उसे पैसा तो मिलना चाहिए। मैंने कहा कि सरकार उसे पैसा देगी। जिस तरह से सरकारी मास्टर को दिया जाता है। वह नहीं माने। कहने लगे कि जो सक्षम है, उन्हें पैसा देना चाहिए। मैंने उनके सामने कुछ आंकड़े रखें कि काम करने वालों में से तकरीबन 80 फ़ीसदी से अधिक लोग ₹10 हजार से कम की मेहनताना पर जीते हैं। उन्हें अगर कोई गंभीर बीमारी हो जाए तो वह कैसे इसका का इलाज करा पाएंगे? उन्होंने इस बात को हंसकर टाल दिया। कहा कि यह मुमकिन नहीं है। बिना पैसे के कोई भी काम नहीं करेगा। बातचीत लंबी थी उनकी तरफ से राय यही थी कि फ्री में कुछ नहीं होना चाहिए। पैसे का हिसाब किताब जरूर होना चाहिए। तकरीबन यही राय अधिकतर हिंदुस्तानियों की बना दी गई है।

पूंजीवादी दुनिया से सजी-धजी मीडिया ने समाज के साथ यही सबसे खराब काम किया है। सबको लगने लगा है कि पैसा सबसे बड़ा है और इंसानी जिंदगी इससे छोटी चीज है। हकीकत केवल यह है कि पैसा विनिमय का एक तरह का साधन है। जिसके जरिए लेनदेन होता है। इसका विकास इसलिए हुआ है कि इंसान की जरूरतें आसानी से पूरी हो जाए। जरूरतें ऊपर हैं और पैसा नीचे। जरूरतें पूरा करने के लिए पैसे का इस्तेमाल किया जाता है। यह इंसान की जरूरत नाम की चिड़िया लोगों के मन से उड़ा दी गई है। सब लोग ईमानदारी से भी सोचते हैं तो पैसे को ध्यान मे रखते हैं, जरूरत को नहीं।

एक व्यक्ति के तौर पर हमारी बुनियादी जरूरतें पूरा करने की ज़िम्मेदारी पूरे समाज की होती है। और समाज की तरफ से इन्हीं सब कामों को पूरा करने के लिए सरकार की व्यवस्था की जाती है। ताकि ऐसे नियम कायदे कानून बनें ताकि सबकी जरूरतें पूरी हों। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं होता है। अब तक स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्या हुआ है-

पूंजीवादी समाज की गहरी समझ रखने वाले न्यूज़क्लिक के हमारे सहयोगी बप्पा सिन्हा लिखते हैं कि आपके अस्पताल, ऑक्सीजन प्लांट, दवा कम्पनी सब निजी हैं तो उनका डिजाइन ही इस तरह है कि औसत मांग के लिए मैनपावर, स्टॉक, इंफ़्रा रखने से मैक्सिमम लाभ मिलेगा, मैक्सिमम डिमांड के लिए रखने से उनकी नजर में 'वेस्टेज' ज्यादा होगी। यही वजह है कि निजी हेल्थ ढाँचा डिजाइन्ड ही है कि वो औसत लोड पर दक्ष दिखेगा, ओवरलोड होते ही कोलैप्स करेगा। ये डिजाइन ही ऐसा है। यही इस समय हो रहा है। स्वास्थ्य सुविधाएं निजी होने की वजह से वह हमेशा लाभ कमाते आई हैं। गरीब लोग रोजाना मरते गए हैं। लेकिन उनकी सुनवाई नहीं हुई है। अब जब प्राइवेट हेल्थ केयर का ढांचा ही टूट गया तो उन्होंने पूरी तरह से हाथ खड़े कर दिए हैं। जबकि इस पूरी संरचना में बहुत बड़ी आबादी अब तक केवल नुकसान में रही है।

इस नुकसान का अंदाजा आप इन आंकड़ों से लगा सकते हैं जिसे अब तक हिंदुस्तान सहते आया है लेकिन जिस पर कोई चर्चा नहीं होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हर दस हजार की आबादी पर तकरीबन 44 स्वास्थ्य कर्मी (डॉक्टर, नर्स और सब मिलाकर) होने चाहिए। लेकिन भारत में यह आंकड़ा महज 23 स्वास्थ्य कर्मी (डॉक्टर, नर्स, केयरटेकर फिजीशियन सब मिलाकर) के आस पास पहुंचता है। भारत के तकरीबन 14 राज्य में हर 10 हजार की आबादी में 23 से भी कम स्वास्थ्य कर्मी है। 10 हजार की आबादी पर हॉस्पिटल में केवल तकरीबन 8 बिस्तर हैं। भारत की 68 फ़ीसदी आबादी अपनी जरूरत के हिसाब से दवाइयां नहीं खरीद पाती है। स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्चे को अगर हर आदमी पर बांट दिया जाए तो उनकी जेब से तकरीबन 60 फ़ीसदी हिस्सा खर्च होता है। आर्थिक असमानता से भरे भारतीय समाज में इन आंकड़ों का का मतलब यह है कि कई लोग बीमारी का खर्चा या तो उठा नहीं पाते होंगे या अगर उठाते भी होंगे तो मरने के कगार पर पहुंच जाते हैं। यह भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली की तस्वीर है। इसी तरह के तमाम आंकड़े दिए जा सकते हैं जो भारत की स्वास्थ्य संरचना की बदहाली को दिखाते हैं।

कई विद्यार्थी डॉक्टर नहीं बनना चाहते क्योंकि फीस बहुत अधिक है। लोग दवाई नहीं खरीद पाते क्योंकि दवाई बहुत महंगी है। इलाज को नहीं जाते हैं क्योंकि इलाज बहुत महंगा है। गांव में ऐसे कई बच्चियां हैं, जिनकी आंख की रोशनी कमजोर हो चुकी है। शरीर बचपन से ही कई तरह की परेशानियां ढो रहा है। यह बात परिवार में सबको पता है लेकिन ना इलाज होता है ना दवा मिलती है। वजह यह की कीमत बहुत अधिक है।

एक साधारण सी बात जिसे हमारी केवल पैसे कमाने के मकसद से चलने वाली मीडिया ने लोगों को नहीं समझाया है, वह यह है कि कोई भी कंपनी या बड़ा कारोबार बैंक के लोन से चलता है। बैंक में आम लोगों का पैसा जमा होता है। इस लोन का इस्तेमाल कर प्राइवेट व्यक्ति प्राइवेट कंपनी खोल सकता है। तो सरकार ऐसा क्यों नहीं कर सकती?

सरकार भी ऐसा कर सकती है? मीडिया वालों ने सरकारी कंपनियों पर लेबल लगाकर उन्हें बर्बाद कर दिया है। जबकि देशभर में स्वास्थ्य सुविधाओं की घनघोर कमी है इसलिए सरकारी अस्पताल, सरकारी डॉक्टर, सरकारी इलाज की बहुत जरूरत है। यह केवल चिंतन और मॉडल बदलने की बात है।

वैक्सीन को ही देख लीजिए। बिना वैक्सीन कोरोना की लड़ाई हार के कगार पर चली जाएगी। वैक्सीन इस समय मांग नहीं बल्कि लोगों की जीवन बचाने की जरूरत है। जीवन जीने के अधिकार के क्षेत्र में आने वाली चीज है। लेकिन इसकी भी कीमत लगा दी गई है।

अनुमानों के मुताबिक़ भारत की 69 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी 18 साल की उम्र से ऊपर है। मतलब यह आबादी वैक्सीन लगवाने की योग्यता रखती है। इस आबादी को कह दिया गया है कि अब पैसा दो और वैक्सीन लगवाओ।

सरकार ने अभी इन तक यह बात नहीं पहुंचाई है कि कोरोना नाम की बीमारी है इसके लिए इन्हें टीका लगवाना पड़ेगा। इनमें से अधिकतर लोग अभी भी कोरोना को बीमारी के तौर पर नहीं देखते हैं। तो सोचिए क्या इनमें से अधिकतर पैसा देकर टीका लगाएंगे? नहीं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्या होगा हालात बद से बदतर होते चले। लोग बदहाल होंगे। पैसा कमाने का जरिया टूटेगा। यानी एक जगह कीमत तय कर अगर बेतहाशा कमाई की जाएगी तो दूसरी जगह कमाई के साधन भी टूटेंगे।

अंत में सबसे जरूरी बात यह कि भारत की जनसंख्या तकरीबन 135 करोड़ है। इसमें से तकरीबन 1 करोड़ 60 लाख लोग कोरोना की वजह से संक्रमित हैं। भारत की आबादी में महज तकरीबन 1 फ़ीसदी हिस्सा। लेकिन इसके सामने ही भारत का पूरा हेल्थकेयर् सिस्टम टूट गया है। इसके आगे आप खुद ही विश्लेषण कर लीजिए।

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