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कोरोना: अनलॉक के बाद भी घरेलू कामगार महिलाएं आर्थिक तंगी का शिकार

महामारी के फैलाव और शारीरिक दूरी बनाए रखने की मजबूरियों ने घरेलू कामगारों की जिंदगी मुसीबत में डाल दी है। अनलॉक की प्रक्रिया शुरू होने के बाद भी किसी तरह बस उनका गुजारा चल पा रहा है।
(किरण और सुनीता)
(किरण और सुनीता)

उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले की रहने वाली सुनीता देवी (44) अपने पति और बच्चों समेत कुल 6 लोग नोएडा के मोरना इलाके में एक ही कमरे में रहती हैं। वो नोएडा सेक्टर-34 की एक आरडब्ल्यूए सोसायटी के 4-5 घरों में साफ-सफाई और सब्जी काटने का काम करती थीं। सुनीता बताती हैं कि वो जिन घरों में काम करती थीं, उनमें से किसी ने मार्च के बाद पैसे नहीं दिए। बता दें कि देश में 24 मार्च से संपूर्ण लॉकडाउन लागू हो गया था।

सुनीता कहती हैं, "पहले सभी घर में काम कर 7,000 रुपये महीने का कमा लेती थी. इतने समय से घर में ही बैठी थी, लेकिन अब इस महीने से सिर्फ एक घर में काम करना शुरू किया है, जहां 2 हजार रुपये मिलेंगे।"

नोएडा में अधिकतर सोसायटी ने सोशल डिस्टैंसिंग के नियम का पालन करने के लिए फिलहाल घरेलू कामगारों में सिर्फ एक घर में काम करने की अनुमति दी है। इसके कारण उनकी जिंदगी पर गहरा असर पड़ रहा है।

सुनीता बताती हैं कि उनके इलाके में कुछ लोगों ने 2-3 बार राशन जरूर पहुंचाया, लेकिन इतने लंबे समय तक सिर्फ उस पर गुजारा करना कठिन हो चुका है। वे कहती हैं, "3,000 रुपये कमरे का किराया है, लेकिन तीन महीने से नहीं दे पायी हूं। मकान मालिक बार-बार आकर किराये की मांग करता रहता है, लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे चुकाऊंगी।"

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(सुनीता और उसका बेटा शिवनंदन)

सुनीता के पति भी मजदूरी करते थे और बेटा भी काम करता था, लेकिन लॉकडाउन में सबका काम बंद होने के कारण परिवार की स्थिति दयनीय हो चुकी है। हालांकि उनके पति ने भी इस महीने दोबारा काम शुरू किया है। वो बताती हैं कि पहले उन्हें 9 हजार रुपये प्रति महीने मिलते थे लेकिन अब उससे भी कम वेतन मिलेगा।

लॉकडाउन के दौरान घरेलू कामगारों को सैलरी नहीं मिलने की कहानी सिर्फ सुनीता की नहीं है। डोमेस्टिक वर्कर्स सेक्टर स्किल काउंसिल (DWSSC) के सर्वे के मुताबिक, लॉकडाउन पीरियड में करीब 85 फीसदी घरेलू कामगारों को सैलरी नहीं दी गई। 23.5 फीसदी कामगारों को अपने घर वापस लौटना पड़ा। वहीं, 38 फीसदी ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें भोजन का प्रबंध करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

30 फीसदी लोगों ने यह भी कहा कि लॉकडाउन पीरियड में गुजारा करने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। ये सर्वे दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और तमिलनाडु में अप्रैल महीने में किया गया था। DWSSC केंद्रीय कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय के तहत एक गैर-लाभकारी संस्था है।

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(मोरना के एक सड़क की तस्वीर)

सुनीता के अलावा नोएडा के इस तंग इलाके में कई घरेलू कामगार महिलाएं रहती हैं। यह तस्वीर मोरना गांव के सड़क की है। नोएडा के अलग-अलग इलाकों को जोड़ने वाली मेट्रो लाइन से कुछ दूरी पर बसे मोरना की इस सड़क के दोनों तरफ खुला नाला हर जगह देखने को मिल जाता है।

नोएडा के आरडब्ल्यूए और अन्य सोसायटी में घरेलू कामगार, सफाई कर्मचारी, दिहाड़ी मजदूरी करने वाले कई लोग यहां गुजारा कर रहे हैं। अधिकतर 10 बाय 8 फीट के एक ही कमरे में पूरे परिवार के साथ रह रहे हैं। इसी एक कमरे में खाना बनाने से लेकर सोने तक, सभी काम करते हैं।

उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर की रहने वाली रीना (32) अपने पति और तीन बच्चों के साथ यहीं एक कमरे में रहती हैं। लॉकडाउन के बाद उनका काम पूरी तरह बंद था, लेकिन उन्हें अब भी काम नहीं मिल पाया है। वो नोएडा सेक्टर-51 की एक सोसायटी के चार घरों में काम करके 8 हजार रुपये प्रति महीने कमाती थीं। रीना जहां काम करती थी, वहां से उसे जून तक की सैलरी दी गई लेकिन उसके बाद उन्होंने भी पैसे देने बंद कर दिए।

रीना कहती हैं, "जहां काम करने जाती थीं, वे लोग बोल रहे हैं कि 2-3 महीने और इंतजार करो। दूसरी जगह कहीं काम नहीं मिल रहा है। दो महीने से घर का किराया नहीं दे पा रही हूं। मकान मालिक ने भी कभी किराया माफ नहीं किया।"

रीना के मुताबिक, घर चलाने के लिए वो ब्याज पर अब तक 20,000 रुपये का कर्ज ले चुकी हैं। वो कहती हैं, "अब तो लगता है कुछ बचा ही नहीं है। इतने दिनों में ना सही से खा पायी हूं और ना पहन पायी हूं। राशन वाले के यहां 1500 रुपये का उधार हो चुका है।"

आपको बता दें कि देश भर में घरेलू कामगारों की संख्या 50 लाख से ज्यादा है। इस साल संसद के शीतकालीन सत्र में केंद्रीय श्रम एवं रोजगार राज्यमंत्री संतोष कुमार गंगवार ने लोकसभा में बताया था कि केंद्र सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है। हालांकि उन्होंने NSSO (2011-12) के सर्वेक्षण के हवाले से बताया था कि निजी परिवारों में काम करने वाले घरेलू कामगारों की संख्या 39 लाख है, जिसमें 26 लाख महिला कामगार हैं।

इन घरेलू कामगारों में अधिकतर प्रवासी हैं और छोटे शहरों से आकर यहां काम कर रहे हैं। मैंने जितने कामगारों से बात की, उनमें सभी अशिक्षित थीं। जो भी महिलाएं शहर में 4-5 घरों में काम कर रही हैं, 8 घंटे से ज्यादा अपना समय दे रही हैं। इसके बावजूद वो 10 हजार रुपये से भी कम कमा रही हैं। इन घरेलू कामगारों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि ये निजी घरों में काम करती हैं और अब तक संगठित रूप से अच्छे वेतन की मांग नहीं कर पाई हैं और ना ही श्रम कानून का उपयोग कर पाती हैं।

रीना के मुताबिक, उन्हें एक बार जनधन खाते में 500 रुपये मिला था, लेकिन उसके बाद नहीं मिला। लॉकडाउन के दौरान किसी भी तरह का राशन कहीं से नहीं मिला।

बता दें कि लॉकडाउन की घोषणा के बाद केंद्र सरकार ने राहत पैकेज के तहत महिलाओं के जनधन खातों में 3 महीने तक 500 रुपये दिए जाने की घोषणा की थी। मोरना में ही रहने वाली लीला देवी बताती हैं कि उन्हें भी सरकार के तरफ से कोई पैसा नहीं मिला है।

लीला कहती हैं, "पहले तो मैं पांच घरों में काम कर 15,000 रुपये तक कमा लेती थी। लेकिन अब सिर्फ 5,000 रुपये एक घर से मिल रहा है। 5 महीने गुजरने के बाद हमारी जो बचत थी वो भी खत्म हो चुकी है। पहले मैं अच्छे से पैसे बचा लेती थी, लेकिन अब अगर दूध का एक पैकेट भी लाते हैं, तो उसे 2-3 दिन चलाना पड़ता है।"

23 साल की किरण नोएडा सेक्टर-34 के चार घरों में साफ-सफाई का काम कर 7,000 रुपये महीने का कमा लेती थी। अब लॉकडाउन के बाद वो सिर्फ एक घर में काम कर पा रही हैं, जहां उन्हें 2,200 रुपये मिलेंगे। हालांकि एक-दो घरों से उन्हें लॉकडाउन के दौरान भी पैसे मिले, बाद में वो भी बंद हो गया। उन्हें भी जनधन योजना के तहत पैसे नहीं मिले।

किरण कहती हैं, "लॉकडाउन के कारण पैसे आने पूरी तरह बंद हो गए। पति का काम भी रुक गया। हमलोगों ने अपने गांव से पैसे मंगवाए। जब पूरी कमाई होती थी, उस वक्त भी बचत नहीं होती थी। अब किसी तरह खर्च को मैनेज कर रहे हैं।"

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(किरण)

नोएडा सेक्टर-37 की एक सोसायटी में सफाई कर्मचारी का काम करने वाले नरेश भी यहीं एक कमरे में अपने परिवार के साथ रहते हैं। वे कहते हैं कि यहां रह रहे कई लोग लॉकडाउन के बाद अपने घरों से अभी तक वापस नहीं आ पाए हैं।

उन्होंने कहा, "आप खुद ही देखिये, कई घरों में ताला लगा हुआ है। क्योंकि यहां आकर भी उन्हें कमाई के नाम पर कुछ नहीं मिलेगा। मैं मोरना में ही करीब 20 परिवार को जानता हूं, जो मजबूरी में लौट गए लेकिन वापस नहीं आ पाए हैं।"

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(मोरना में किराये के एक मकान में लगे ताले)

लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही प्रधानमंत्री ने कहा था कि कोई भी कंपनी या संस्था इस दौरान अपने कर्मचारियों को ना निकालें लेकिन सैकड़ों कंपनियों में छटनी भी हुई और कर्मचारियों की सैलरी में भी कटौती की गई। इस परिस्थिति में घरेलू कामगार अपने आप को और अधिक असहाय पाते हैं क्योंकि उनके पास सामाजिक सुरक्षा जैसी कोई चीज नहीं है। जिन लोगों ने दोबारा काम शुरू किया है, वे पहले की कमाई की तुलना में 70 फीसदी से भी कम पर गुजारा करने को मजबूर हैं।

पिछले साल संसद में केंद्र सरकार ने बताया था कि घरेलू कामगारों के हितों की रक्षा करने के लिए कोई अलग कानून नहीं बनाया गया है। केंद्र सरकार ने पिछले साल उनके लिए न्यूनतम मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा प्राप्त करने, दुर्व्यवहार रोकने, खुद के यूनियन का निर्माण करने, उत्पीड़न और हिंसा से संरक्षण का अधिकार सहित उनसे जुड़े कई पहलुओं पर एक राष्ट्रीय नीति बनाने का मसौदा जरूर तैयार किया था, लेकिन अभी तक इस पर अमल नहीं किया जा सका है।

इससे पहले भी घरेलू कामगारों को लेकर कई विधेयक संसद में आए, लेकिन कभी कानून नहीं बन पाया। 2010-11 में यूपीए सरकार ने भी घरेलू कामगारों के लिए राष्ट्रीय नीति का ड्राफ्ट तैयार किया था, लेकिन वह भी ठंडे बस्ते में ही रहा।

(साकेत आनंद स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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