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कोरोना वायरस ने बुनियादी आय के संकट को फिर उजागर किया

सूरत, मुंबई और दिल्ली जैसे औद्योगिक शहरों में अपनी रोजी-रोटी कमाने वाले लाखों मज़दूर लॉकडाउन होने के बाद जिस तरह से बदहाल और बेसहारा नज़र आए, वह वास्तव में बहुत ही भयावह स्थिति है। कोरोनो वायरस संकट ने निश्चित रूप से ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अब करोड़ों लोगों के दिल में असुरक्षा की भावना भर गई है।
मज़दूर
Image courtesy: India Today

कोरोना वायरस संकट में देशव्यापी लॉकडाउन ने भारत में गरीबों और निम्न मध्यवर्ग की वास्तविक स्थिति को बहुत ही निर्मम ढंग से उजागर कर दिया है। सूरत, मुंबई और दिल्ली जैसे औद्योगिक शहरों में अपनी रोजी-रोटी कमाने वाले लाखों मजदूर लॉकडाउन होने के बाद जिस तरह से बदहाल और बेसहारा नजर आए, वह वास्तव में बहुत ही भयावह स्थिति है। कोरोनो वायरस संकट ने निश्चित रूप से ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अब करोड़ों लोगों के दिल में असुरक्षा की भावना भर गई है।

लोग सरों पर गठरियां लादकर पैदल ही अपने घरों को जाने के लिए 1000 किलोमीटर से अधिक का सफर तय करने के लिए निकल पड़े हैं। इस देश में लाखों मजदूर सामने आए हैं, जिनकी मजदूरी अगर रुक जाए तो उनके पास अपने घर वापस लौटने के लिए किराया तक भी नहीं बचता है। कारखाने के मालिक अपने मजदूरों को 2 महीने का वेतन भी देने में असमर्थ हैं? अगर ऐसा है तो सरकार को ही उनका ख्याल रखने के लिये आगे आना होगा।

मनरेगा हो या फिर खाद्य सुरक्षा कानून, इन सभी योजनाओं तक गरीबों की पहुंच केवल उनके पैतृक घर तक ही सामित रहना एक बड़ी बाधा है। इससे प्रदेश या गृह जनपद से बाहर निकलने वाले मजदूर पूरी तरह अपने मालिकों की दया पर निर्भर हो जाते हैं। इसलिए एक सार्वभौमिक बुनियादी आय या यूबीआई के चिर-परिचित विचार की प्रासंगिकता एक बार फिर से और ज्यादा बढ़ गई है। जिससे देश के सभी नागरिक सरकार से एक नियमित आय पाने के हकदार होंगे। यह आय कम से कम इतनी जरूर हो, जो भोजन और दूसरी बुनियादी जरूरतों को हासिल करने के लिए पर्याप्त हो। स्पष्ट रूप से सार्वजनिक व्यय का एक बड़ा हिस्सा इस पर व्यय होगा।

भारत में ऐसे अध्ययन अभी तक नहीं हुए लेकिन अमेरिका में हुए एक शोध के अनुसार कोरोनो वायरस महामारी का प्रकोप बढ़ने के कारण अमेरिका जैसे देश में लगभग हर पांचवें बच्चों को खाने के लिए पर्याप्त नहीं मिल रहा है। ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि 12 साल या उससे कम उम्र के बच्चों की 17.4 प्रतिशत माताओं ने बताया कि पैसों की कमी के कारण उनके बच्चों को पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिल पा रहा है। अमेरिका में 18 से कम उम्र के बच्चों वाले घरों में खाद्य असुरक्षा 2018 की तुलना से लगभग 130 प्रतिशत बढ़ी है। स्कूल भोजन कार्यक्रम का बाधित होना भी इसका एक कारक हो सकता है।

कोरोना वायरस लॉकडाउन में कम से कम 3 करोड़ अमेरिकी श्रमिकों ने अपनी नौकरी गंवा दी है। उम्मीद की जा रही है कि बेरोजगारी की दर शायद 20 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। इतनी अधिक बेरोजगारी दर पिछली सदी की महामंदी के बाद से कभी नहीं देखी गई। जब अमेरिका जैसे अमीर कहे जाने वाले देश में ट्रम्प प्रशासन वर्तमान में लाखों नागरिकों के लिए 1,200 डॉलर का भुगतान वितरित कर रहा है, तो साफ है कि खुले बाजार को भगवान मानने वाले भी गरीबों की वास्तविक हालात से अंजान बिल्कुल नहीं हैं। सवाल तो केवल नीयत का है। अगर लोगों के हाथ में पैसा होगा तो वे किसी भी आपदा में अपनी न्यूनतम जरूरतें तो पूरी करने में सक्षम होंगे।

लोगों का रोजगार खत्म होने से जो आर्थिक क्षति होती है उससे लोगों के मन में एक तरह की निष्क्रियता भर सकती है। देशव्यापी लॉकडाउन के बाद की हजारों घटनाओं से यह स्पष्ट रूप से सिद्ध किया गया है। उस कारण से लोगों को सार्वभौमिक बुनियादी आय के विचार पर फिर से मुखर करना होगा। सभी लोगों की भोजन,आवास, शिक्षा, इलाज और परिवहन जैसी मुख्य चीजों के लिए यदि एक न्यूनतम नियमित आय मिलती है, तो किसी भी संकट के समय हमारा समाज अधिक सामूहिक लचीलेपन से उसका मुकाबला कर सकता है। इस तरह के संकटों की पुनरावृत्ति की संभावना लगातार बनी रहती है। कोविड-19  के बाद जलवायु परिवर्तन, बाढ़, सूखा, चक्रवात जैसे प्राकृतिक संकट गरीबों के लिये भय के दूसरे कारण हैं। जलवायु परिवर्तन खुद ही कई बीमारियों के खतरे को कई गुना बढ़ा देता है।

अगर हमें आम लोगों को अपने परिवार, दोस्तों और पड़ोसियों की देखभाल करने में सक्षम बनाना है, तो उनमें से कई को उस तरह के काम करने की आज़ादी की जरूरत होगी, जिससे वे कोई आमदनी या तनख्वाह नहीं पाते हैं। एक बेसिक इनकम  की गारंटी देने पर पूरा जोर लगाना होगा। लोगों को सरकारों से मजबूती के साथ पूछना चाहिए कि इस अभूतपूर्व समय में बेसिक इनकम क्यों नहीं शुरू किया जाना चाहिए?

सरकार भले ही यह दावा करे कि आज़ादी के समय देश में गरीबी की दर 70% थी और उसे कम करके अब 22% पर लिया दिया गया है। लेकिन यह खोखली आंकड़ेबाजी के अलावा कुछ भी नहीं है। केवल कुछ कैलोरी भोजन की उपलब्धता ही गरीबी का अंत नहीं मानी जा सकती है। लोगों को एक गरिमा पूर्ण जीवन के लिए जरूरी आर्थिक सामर्थ्य ही उनको वास्तव में इंसानियत के मूल्यों के प्रति सम्मान की भावना पैदा कर सकती है। किसी भी समाज को अगर न्याय पूर्ण होने का दावा करना है तो उसे अपने प्रत्येक सदस्य को इतनी बुनियादी आय तो जरूर उपलब्ध करानी चाहिए, जिससे कि वह अपने जीवन की आवश्यक जरूरतों को पूरा कर सकें। अनेक मानव अधिकारों की तरह यूबीआई को भी सभी को हासिल होना चाहिए। किसी को भी केवल नागरिक होने मात्र से ही न्यूनतम बुनियादी आय का अधिकार हासिल होना चाहिए।

नामीबिया में जनवरी 2008 में बेसिक इनकम ग्रांट (BIG) पायलट प्रोजेक्ट ओटजिवेरो-ओमिटारा क्षेत्र में शुरू किया गया, जो राजधानी विंडहोक से लगभग 100 किलोमीटर पूर्व में है। इलाके के 60 वर्ष से कम आयु के सभी निवासियों को बिना किसी शर्त प्रतिमाह 100 नामीबियाई डॉलर प्रतिव्यक्ति की बेसिक इनकम ग्रांट दी गई। यह बीआईजी पायलट प्रोजेक्ट 2004 में स्थापित नामीबिया बेसिक इनकम ग्रांट गठबंधन द्वारा डिजाइन और कार्यान्वित किया गया है और यह दुनिया का पहला सार्वभौमिक कैश- ट्रांसफर पायलट प्रोजेक्ट था।

बीआईजी पायलट प्रोजेक्ट दिसंबर 2009 तक 24 महीने की अवधि के लिए चलाया गया। पायलट प्रोजेक्ट के प्रभावों का मूल्यांकन करने के लिये चार चरणों के विस्तृत अध्ययन की एक श्रृंखला चलाई गई। खाद्य गरीबी रेखा के आधार पर नवंबर 2007 में इलाके के 76% निवासी इस रेखा से नीचे थे। एक वर्ष के भीतर यह संख्या घटकर 37% रह गई। बीआईजी की शुरूआत से आय सृजन गतिविधियों (15 वर्ष की आयु से ऊपर) में लगे लोगों की दर 44% से बढ़कर 55% हो गई।

लोगों ने ईंट बनाने, रोटी बनाने और कपड़े बनाने सहित अपने छोटे व्यवसाय शुरू किये। बीआईजी ने घरों की क्रय शक्ति को बढ़ाकर एक स्थानीय बाजार बनाने में योगदान दिया। बीआईजी के परिणामस्वरूप बाल कुपोषण में भारी कमी आई। डब्ल्यूएचओ की तकनीक के उपयोग से हासिल आंकड़ों से पता चला कि कम वजन वाले बच्चों की संख्या केवल छह महीनों में घट गई। नवंबर 2007 में 42% कम वजन वाले बच्चों की संख्या जून 2008 में घटकर 17% और नवंबर 2008 में 10% रह गई।

बीआईजी की शुरुआत के बाद स्कूल फीस देने वालों की संख्या बढ़कर दोगुना (90%) हो गई। स्कूल में ड्रॉप-आउट दरें नवंबर 2007 में लगभग 40% से गिरकर जून 2008 में 5% और नवंबर 2008 में लगभग 0% हो गईं। बीआईजी को कारण नवंबर 2007 और नवंबर 2008 के बीच औसत घरेलू कर्ज 1,215 नामीबियाई डॉलर से घटकर 772 रह गया। बेसिक इनकम ग्रांट की शुरुआत ने महिलाओं की पुरुषों पर निर्भरता कम कर दी।

भारत सरकार खाद्य सब्सिडी पर 1.84 लाख करोड़ रुपये खर्च करती है। देश की 67 प्रतिशत आबादी को रियायती दर पर 2 रुपये किलो गेहूं और 3 रुपये किलो चावल सरकार देती है। जबकि इसकी वास्तविक लागत क्रमशः 25 रुपये और 35 रुपये प्रति किलो होती है। इन सरकारी योजनाओं को अगर सही तरीके से लागू किया गया होता तो शहर दर शहर खाना बांटने की नौबत शायद नहीं आती। सरकार के ही आंकड़ों के हिसाब से पीडीएस में 35 से 40% तक लीकेज है। जबकि अनाधिकारिक आंकड़ों के अनुसार इसमें दोगुना यानी करीब 70 से 80% तक लीकेज है।

गरीबों के नाम सरकारी रकम के भारी-भरकम भ्रष्टाचार की नीति को कुछ निहित स्वार्थी तत्व लगातार बढ़ावा दे रहे हैं। सरकारी योजनाओं में सबसे बड़ी 11 योजनाओं में बजट में आवंटित धनराशि का 50% खर्च हो जाता है। भारत में सरकारें गरीबी निवारण के लिए पिछले 73 सालों से हजारों योजनाएं संचालित करती रही हैं। केवल केंद्र सरकार ही 950 योजनाओं का संचालन करती है। अगर इसमें राज्यों की भी योजनाएं जोड़ दी जाए तो इनकी संख्या हजारों तक हो जाती है। इन योजनाओं के भ्रष्टाचार पर कड़ा अंकुश लगाने से संसाधनों की भारी बचत की जा सकती है।

इनमें से कई योजनाएं तो पिछले 25 साल से चल रही हैं। फिर भी कोई भी आकस्मिक दुर्घटना आम लोगों पर एक आर्थिक विपदा बन कर टूटती है। किसी भी आपात स्थिति में सरकार की मदद का मुंह गरीब देखता ही रहता है। अगर किसानों को की बात करें तो फसल खराब हो जाए या फसल बहुत अच्छी हो जाए तो उनकी आय संकट में पड़ जाती है। मजदूरों की हालत किसी से छुपी नहीं है। इसी तरह निजी नौकरी पेशा निम्न मध्यम मार्ग के सामने आय सुरक्षा का संकट लगातार गहराता जा रहा है। इन सभी स्थितियों से निपटने के लिए न्यूनतम बुनियादी आय बहुत सहायक हो सकती है। इन सभी जन-कल्याण योजनाओं के साथ मिलकर यूबीआई भारत में या और कहीं भी गरीबी को खत्म करने का सबसे बेहतरीन औजार बन सकता है।

दरअसल भारत की सरकारें गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को ऐसे व्यक्ति के रूप में देखती है, जो खुद ही अपनी भलाई का निर्णय लेने में असमर्थ हैं। ऐसे लोगों के हाथ में नकद पैसा रखना सरकारी नीति-नियंता उचित नहीं मानते हैं। यह एक तरह से देश की मेहनतकश जनता की साधारण समझदारी का अपमान करने से कम नहीं है। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है सभी व्यक्तियों के गरीब होने के कारणों में समानता नहीं होती और उन कारणों का सामान्यीकरण करना, कहीं से भी बुद्धिमानी नहीं है। जबकि सरकार सभी गरीबों को एक समान समझकर उनके लिए योजनाएं बनाती है।  

अगर गरीब के हाथ में पैसा आने पर वह उसका दुरुपयोग ही करेगा तो फिर सरकारों को सभी कुछ मुफ्त उपलब्ध करा देना चाहिए और लोगों को योग्यता के हिसाब से काम दे देना चाहिए। लेकिन इसे भी अव्यवहारिक कहकर खारिज कर दिया जा रहा है। व्यावहारिक तरीका आखिर क्या है? बेहतर है कि गरीबों को नियमित मासिक आय की गारंटी सरकार करे। उसके साथ ही देश में भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक परिवहन जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराये। इतना ही कर देने से बहुत बड़ी समस्या लोगों के सामने से खत्म हो जाएगी और देश में सामाजिक,आर्थिक परिस्थितियां वास्तव में बहुत बेहतर हो जाएंगी।

आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को गरीबी रेखा से ऊपर करने के लिए 7620 रुपये की वार्षिक राशि पर्याप्त है। अगर भारत की 75% आबादी को भी इस दायरे में शामिल कर लिया जाए तो यह आंकड़ा जीडीपी के 4. 9 प्रतिशत के बराबर होता है। इन आंकड़ों की सत्यता और उपयोगिता पर सवाल उठाये जा सकते हैं। सरकार अपने हिसाब से आंकड़ों को तोड़ने-मरोड़ने और मनमानी व्याख्या का काम करती रहती है। फिर भी इन आंकड़ों की विस्तृत जांच-परख के बाद इस दिशा में कोई ठोस प्रयास जरूर होना चाहिये। सरकार ने इस दिशा में जो भी कदम आधे-अधूरे मन से उठाने का दिखावा किया है, उनसे संसाधनों की बर्बादी और भ्रष्टाचार के अलावा शायद कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है।

भारत की अधिकांश सरकारें जब कारपोरेट सेक्टर को बड़ी-बड़ी कर छूट या कर्ज माफी जैसी सुविधाएं देती हैं, तो गरीबों के लिए भी कुछ रेवाड़ियां बांट देती हैं। इसका प्रचार-तंत्र इन योजनाओं का बहुत ज्यादा ढोल पीटता है और कारपोरेट को बांटी गई अकूत धन की बात को दबा देता है। कोरोनावायरस संकट से अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की गई है। इसमें से कितना गरीबों के हिस्से में आएगा, यह देखने वाली बात होगी। अभी कुछ ही दिन पहले सरकार ने कारपोरेट जगत को 1 लाख 47 हजार करोड़ रुपये की कर राहत दी। जबकि अपने नागरिकों को जीवन की जरूरी सुविधाओं के लिये एक बुनियादी आय देने में संसाधनों की कमी का रोना केवल बहाना है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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