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ग़रीबी में कमी के दावे झूठे क्यों हैं?

सरकारी पद्धति का मतलब यही है कि समय के साथ-साथ ग़रीबी रेखा को बार-बार कम करके आंका जाता है। अगर किसी परीक्षा में पास होने का अंक शून्य कर दिया जाता है, तो फेल होने वालों की संख्या भी शून्य हो जाएगी।
poverty in india
प्रतीकात्मक तस्वीर।

मीडिया में, विश्व बैंक और सरकारों द्वारा जो दावे किए जा रहे हैं उनकी भरमार है कि पिछले तीन दशकों में नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण ग्लोबल साउथ के देशों में लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकाल लिया गया है। नीति आयोग ने इस साल की शुरुआत में एक प्रेस विज्ञप्ति में दावा किया था कि 2022-23 तक भारत में गरीबी लगभग शून्य हो जाएगी, जिसका असर केवल 5 फीसदी आबादी पर रहेगा।

हालांकि, पोषक आहार के सेवन पर ठोस आंकड़े बताते हैं कि पिछले तीन दशकों में भुखमरी काफी बढ़ी है, ग्रामीण और शहरी आबादी के दो तिहाई से अधिक लोग कैलोरी और प्रोटीन सेवन की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त खर्च करने में असमर्थ हैं; वैश्विक भूख सूचकांक पर भारत की बहुत कम रैंकिंग (2023 में 125 देशों में से 111) जारी है, और जबकि कुछ स्वास्थ्य संकेतकों में सुधार हुआ है, जबकि अन्य संकेतक खराब हो गए हैं।

जो लोग सरकारी दावों पर विश्वास करते हैं, वे कहते हैं, ‘जब गरीबी कम हो गई है तो भुखमरी कैसे बढ़ सकती है?’ प्रश्न इसके उलट होना चाहिए, अर्थात ‘जब भूख बढ़ी है तो गरीबी कैसे कम हो सकती है?’

भूख में वृद्धि के बारे में जानकारी प्रत्यक्ष है, जो आसानी से उपलब्ध और सत्यापन योग्य आंकड़ों पर आधारित है, जबकि आधिकारिक गरीबी अनुमान अतार्किक और अपारदर्शी गणना पद्धतियों पर आधारित हैं, जिससे बड़े पैमाने पर गरीबी में कमी का दावा पूरी तरह से झूठा साबित होता है। देश की अतार्किक पद्धति को विश्व बैंक का समर्थन हासिल है जो गरीबी में कमी के झूठे दावे को दोहराता है।

आधिकारिक पद्धति अतार्किक क्यों है, और गरीबी में कमी का निष्कर्ष झूठा क्यों है? वह इसलिए है क्योंकि इस पद्धति का मतलब समय के साथ गरीबी रेखाओं को बार-बार कम आंकना है, जिससे इन गरीबी रेखाओं पर मिलने वाले पोषण सेवन में कमी आई है। गरीबों को एक ऐसे मानक से नीचे गिना गया है जिसे खुद ही घटने दिया गया है; लेकिन समय के साथ किसी भी वैध तुलना के मामले में मानकों यानी स्टैंडर्ड को स्थिर रखा जाना चाहिए।

अगर कोई स्कूल 30 साल की अवधि के दौरान परीक्षा देने वाले छात्रों में फेल होने वाले छात्रों के अनुपात को कम करने में बड़ी सफलता का दावा करता है, मान लीजिए कि शुरुआत में फेल होने वाले सभी छात्रों में से 55 फीसदी से घटकर सिर्फ़ 5 फीसदी रह गए हैं, तो हम शायद ही इस दावे पर यकीन करें जब हम पाते हैं कि इसी अवधि में पास होने वाले छात्रों के अंकों को चुपचाप शुरुआती साल के 100 में से 50 से घटाकर अंतिम साल में 100 में से 15 कर दिया गया है। 100 में से 50 पास अंक को स्थिर रखने पर हम पाते हैं कि फेल होने वालों का प्रतिशत बढ़ गया है।

इसी तरह, गरीबी में कमी के सरकारी दावे भी तब बेमानी हो जाते हैं, जब हम देखते हैं कि 1973-74 के शुरुआती वर्षों में गरीबी रेखा हासिल करने के लिए ग्रामीण इलाकों में 2,200 कैलोरी तथा शहरी इलाकों में 2,100 कैलोरी के आधिकारिक पोषण मानदंडों की तुलना में, अगले चार दशकों में अधिकांश राज्यों में आधिकारिक गरीबी रेखा पर उपलब्ध ऊर्जा के उपभोग घटकर 1,700 कैलोरी या उससे भी कम रह गया तथा प्रोटीन उपभोग, जो ऊर्जा उपभोग से अत्यधिक संबद्ध है, में भी कमी आई है।

तेंदुलकर समिति की गरीबी रेखा (जिसका वर्तमान में नीति आयोग द्वारा अनुपालन किया जा रहा है) के अनुसार, वर्ष 2011-12 में ग्रामीण गुजरात में गरीबी का अनुपात 21.9 फीसदी था, तथा इसकी प्रति व्यक्ति मासिक गरीबी रेखा 932 रुपये थी। लेकिन हम पाते हैं कि इस स्तर पर ऊर्जा का सेवन केवल 1,670 कैलोरी था, जबकि 2,200 कैलोरी हासिल करने के लिए 2,000 रुपये या आधिकारिक गरीबी रेखा से दोगुने से अधिक खर्च करने की आवश्यकता थी, तथा 87 फीसदी व्यक्ति इस स्तर से नीचे थे। आधिकारिक गरीबी 21.9 फीसदी तथा वास्तविक गरीबी 87 फीसदी में कोई मामूली अंतर नहीं है।

ग्रामीण पंजाब में, निम्नतम 7.71 फीसदी आधिकारिक गरीबी अनुपात, प्रतिदिन 1,800 कैलोरी प्रदान करने वाली राशि पर था, जबकि वास्तविक गरीबी रेखा, जिस पर 2,200 कैलोरी हासिल की जा सकती थी, बहुत अधिक थी, जिसमें 38 फीसदी लोग इससे नीचे थे।

2009 में, ग्रामीण पुडुचेरी में, आधिकारिक गरीबी अनुपात लगभग शून्य 0.2 फीसदी था, यह इसलिए था क्योंकि बहुत कम गरीबी रेखा के तहत प्रतिदिन केवल 1,040 कैलोरी की अनुमति थी - भुखमरी का स्तर, जबकि 2,200 कैलोरी के मानदंड तक पहुंचने में असमर्थ वास्तविक गरीबों की संख्या 58 फीसदी थी। यहां आधिकारिक गरीबी रेखा इतनी कम थी कि इसके नीचे कोई अवलोकन नहीं किया गया, क्योंकि लोग मर चुके थे। इसी तरह शहरी गरीबी आधिकारिक अनुमानों में गिरावट की तुलना में उच्च और बढ़ती गरीबी को दर्शाती है।

नीति आयोग का दावा है कि 2023-24 में केवल 5 फीसदी लोग गरीबी में रह जाएंगे, यह 2011 के तेंदुलकर गरीबी रेखा मूल्य सूचकांक पर आधारित है, जो 2023-24 तक है। संशोधित मिश्रित स्मरण अवधि के तहत उच्चतम उपभोग व्यय को लेते हुए, और आधिकारिक तथ्य सर्कुलर में मूल्य सूचकांक डेटा का इस्तेमाल करते हुए, 2023-24 तक गरीबी रेखाएं ग्रामीण/शहरी इलाकों के लिए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 57/69 रुपये हैं। यह खाद्य भाग में 26.6/27 रुपये और गैर-खाद्य भाग में 30.4/42 रुपये ग्रामीण/शहरी हैं, जो खाद्य और गैर-खाद्य पर खर्च किए गए औसत के हिस्से को गणना में लेते हैं।

भोजन के हिस्से वाले पैसे से केवल 1.3 लीटर सबसे सस्ता बोतलबंद पानी खरीदा जा सकता था, उसके बाद भोजन के लिए कुछ भी पैसा नहीं बचता है (गरीब लोग वास्तव में बोतलबंद पानी नहीं खरीदते हैं, उदाहरण यह दर्शाने के लिए दिया गया कि भोजन के लिए दी जाने वाली राशि कितनी कम है)।

यह सोचना कि किराए, परिवहन, यूटिलिटी, स्वास्थ्य सेवा और निर्मित वस्तुओं (शिक्षा और मनोरंजन की बात तो छोड़ ही दें) के कारण गरीब व्यक्ति की न्यूनतम गैर-खाद्य दैनिक ज़रूरतें ग्रामीण इलाके में 30.4 रुपये और शहरी क्षेत्र में 42 रुपये प्रतिदिन में पूरी हो सकती हैं, यह कड़वी हक़ीक़त एक हद उस तरक़ीब से अलग होने की जरूरत को दर्शाता है जिसे कोई भी तर्कसंगत व्यक्ति नहीं दर्शा सकता है, केवल आधिकारिक आकलनकर्ता ही ऐसा करने में सक्षम लगते हैं। उनकी तथाकथित गरीबी रेखाएं अभाव और भुखमरी की हैं, जिसमें 6.6 फीसदी ग्रामीण और 1.6 फीसदी शहरी आबादी अभी भी किसी तरह से उप-मानव अस्तित्व स्तर पर जीवित है, जिससे 5 फीसदी समग्र औसत गरीबी में होने का दावा किया जाता है। वास्तविक गरीबी रेखाएं जिस पर न्यूनतम पोषण हासिल किया जा सकता था, कम से कम 2.5 से 3 गुना अधिक थीं।

अगले तीन सालों में आधिकारिक तौर पर ‘शून्य गरीबी’ का दावा किया जा सकता है, क्योंकि आधिकारिक गरीबी रेखाएं और भी कम हो जाएंगी और उस स्तर तक पहुंच जाएंगी जहां कोई भी जीवित नहीं बचेगा। अगर किसी परीक्षा में पास होने का अंक शून्य हो जाता है, तो कोई भी फेल नहीं पाया जाएगा।

पिछले तीन दशकों में ग्रामीण और शहरी दोनों ही आबादी में वास्तविक गरीबों की हिस्सेदारी में कमी आने के बजाय उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 1993-94 में, ग्रामीण/शहरी इलाकों में गरीबों की संख्या 58.5/57 फीसदी थी, क्योंकि वे प्रतिदिन 2,200/2,100 कैलोरी के पोषण मानदंडों तक नहीं पहुंच पाते थे, जबकि 2004-05 तक, संबंधित ग्रामीण/शहरी गरीबी अनुपात बढ़कर 69.5/65 फीसदी हो गया था। सूखे के वर्ष 2009-10 में बड़ी वृद्धि के बाद, 2011-12 तक इसमें गिरावट आई और यह 67/62 फीसदी हो गई थी।

2017-18 के पोषण सेवन के आंकड़े जारी नहीं किए गए हैं, लेकिन सेवन का अनुमान रूढ़िवादी रूप से लगाया जा सकता है (बाद के वर्ष 2011-12 में खाद्य व्यय को कम करके और पोषक तत्वों की प्रति इकाई खाद्य लागत को लागू करके) और यह ग्रामीण गरीबी में 80 फीसदी से अधिक आबादी में तेज वृद्धि को दर्शाता है, जबकि शहरी गरीबी 2011-12 के लगभग उसी स्तर पर बनी हुई है। 2023-24 के लिए पूरा डेटा अभी भी जारी किया जाना है, लेकिन महामारी की वजह से आई आर्थिक मंदी और बढ़ती बेरोजगारी को देखते हुए, वास्तविक गरीबी का स्तर उच्च रहने की संभावना है।

सरकारों और विश्व बैंक ने अपने लिए जो वैचारिक उलझन पैदा की है और जिसके परिणामस्वरूप गरीबी में कमी आने के उनके झूठे दावे, एक साधारण सी तार्किक गलती का नतीजा हैं। उन्होंने पहले वर्ष में पोषण मानदंडों के आधार पर गरीबी रेखा को सही ढंग से परिभाषित किया और फिर हर अगले वर्ष गलत तरीके से परिभाषा को बदल दिया, इसे पोषण मानदंडों से अलग कर दिया; और उन्होंने ऐसा हर देश के लिए किया है।

भारत में 1973-74 में, ग्रामीण इलाकों में प्रतिदिन 2,200 कैलोरी और शहरी इलाकों में 2,100 कैलोरी हासिल करने के लिए प्रति व्यक्ति मासिक व्यय 49 रुपये और 56.6 रुपये था, जिससे ग्रामीण इलाकों में 56.4 फीसदी और शहरी इलाकों में 49.2 फीसदी गरीबी का आधिकारिक अनुपात हासिल हुआ था। पोषण मानदंडों का सीधे इस्तेमाल करते हुए गरीबी रेखा की यह परिभाषा फिर कभी लागू नहीं हुई, भले ही पोषण सेवन पर आवश्यक वर्तमान डेटा हर पांच साल में उपलब्ध होता है।

इसके बजाय, 1973 की इन विशेष गरीबी रेखाओं को मूल्य सूचकांकों का इस्तेमाल करके बाद के वर्षों में अपडेट किया गया था, जैसा कि बताया गया है, बिना यह पूछे कि पोषण मानदंड मिला या नहीं इसे अपडेट किया गया था। गरीबी रेखा की एक परिभाषा से शुरू करना और चुपचाप दूसरी पूरी तरह से अलग परिभाषा पर स्विच करना तार्किक भ्रांति और अस्पष्टता की भ्रांति को दर्शाता है। इस भ्रामक पद्धति का मतलब था कि 1973-74 में उपलब्ध और उपभोग की गई वस्तुओं और सेवाओं की विशेष टोकरी को स्थिर रखा गया था - अब तक यह 50 साल पहले हो चुका है - केवल इसकी लागत को वर्तमान में मूल्य-सूचकांकित किया गया था।

हालांकि, वास्तविकता में, नव-उदारवादी बाजार-उन्मुख सुधारों के पिछले तीन दशकों में वस्तुओं और सेवाओं की वास्तव में उपलब्ध टोकरी में विशेष रूप से तेजी से बदलाव आया है (मूल्य सूचकांकों में विभिन्न वस्तुओं को दिए गए भार की तुलना में कहीं अधिक तेजी से), क्योंकि वस्तुओं और सेवाओं का निजीकरण और बाजार के जरिए मूल्य निर्धारण बढ़ गया है।

50 वर्षों के लिए निर्धारित की गई टोकरी में गरीबी की वास्तविक प्रवृत्ति को नजरअंदाज कर दिया जाता है, क्योंकि लोग गरीबी के उसी स्तर पर बने रहेंगे, बदतर स्थिति में पहुंचेंगे या बेहतर स्थिति में पहुंचेंगे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वस्तुओं और सेवाओं की प्रारंभिक टोकरी में क्या और किस तरह से बदलाव किया जाता है।

ऐतिहासिक रूप से, उन देशों में हुकूमत द्वारा अपनाई गई नीतियों के कारण गरीबी काफी हद तक कम हुई या पूरी तरह समाप्त हो गई, जहां स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और काफी हद तक आवास और उपयोगिताओं को बाजार मूल्य निर्धारण के दायरे से हटा दिया गया और इसके बजाय उन्हें सार्वजनिक वस्तु या सुविधाओं के रूप में माना गया, बजट का इस्तेमाल पूरी तरह से मुफ्त स्वास्थ्य देखभाल और बच्चों के लिए अनिवार्य मुफ्त शिक्षा प्रदान करने के लिए किया गया, या इन पर केवल नाममात्र शुल्क लगाया गया।

कम किराए पर किफायती और कम लागत वाले आवासों का हुकूमत द्वारा वित्तपोषित निर्माण करना, तथा सार्वजनिक परिवहन और उपयोगिताओं (पानी, बिजली और खाना पकाने के लिए ऊर्जा) के लिए नाममात्र शुल्क लगाना, परिवार के बजट का एक बड़ा हिस्सा भोजन, निर्मित आवश्यकताओं और मनोरंजन पर खर्च करने को सुलभ बनाता है। सार्वजनिक वस्तुओं का ऐसा प्रावधान न केवल एशिया और यूरोप के समाजवादी देशों में विशिष्ट था; बल्कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लगभग सभी पश्चिमी यूरोपीय पूंजीवादी देशों में भी इसे अपनाया गया था।

हुआ इसके विपरीत, यानी गोलबल साउथ के देशों में बाजार-उन्मुख आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद, उपभोक्ताओं के लिए उपलब्ध वस्तुओं और सेवाओं की टोकरी में भारी बदलाव आया क्योंकि इन उपायों ने स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और उपयोगिताओं को सार्वजनिक वस्तुओं की श्रेणी से काफी हद तक या पूरी तरह से हटा दिया और बाजार मूल्य निर्धारण वाली ताकतों के पक्ष में कर दिया। इन शुल्कों में आई वृद्धि ने भोजन और निर्मित आवश्यकताओं पर खर्च बढ़ने से अधिकांश आबादी की उपलब्ध आय पर बुरा प्रभाव पड़ा, जिससे अधिक लोग पोषण संबंधी तनाव में चले गए यानी वे बेहतर भोजन करने की स्थिति में नहीं रहे।

2016 की नोटबंदी, या 2021-22 की महामारी से उपजी मंदी के प्रभाव जैसे अविवेकपूर्ण विशिष्ट नीतिगत उपायों ने निस्संदेह गरीबी की समस्या को बढ़ाया है, लेकिन ये बढ़ती गरीबी के मूल कारण नहीं हैं, जो कारण इन घटनाओं से बहुत पहले से मौजूद थे।

पुनर्वितरण उपायों के माध्यम से गरीबी को काफी हद तक कम करना कोई मुश्किल काम नहीं है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग दसवां हिस्सा आबादी के लिए पर्याप्त भोजन, बुनियादी और व्यापक स्वास्थ्य सेवा, अनिवार्य मुफ्त शिक्षा, रोजगार की गारंटी और वृद्धावस्था पेंशन प्रदान करने के लिए समर्पित होना चाहिए; जिसके लिए सकल घरेलू उत्पाद का 7 फीसदी अतिरिक्त कर लगाने की जरूरत होगी जिसे अमीर और अति-अमीर यानी सुपर-रिच तबका आसानी से वहन कर सकता है।

मौजूदा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम को मजबूती से लागू करते हुए, गरीबी में बड़े पैमाने पर वास्तविक कमी लाई जा सकती है।

लेकिन इसके लिए एक अनिवार्य शर्त उन अवधारणाओं के दायरे में निहित है जो प्रयोगसिद्ध काम और उन पर आधारित निष्कर्षों का मार्गदर्शन करती हैं: गरीबी को गलत मापना, जो न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रचलित है, को त्यागना होगा, तथा गरीबी में कमी के झूठे दावों की जगह पर तथ्यात्मक और तार्किक रूप से सही अनुमानों को अपनाना होगा।

उत्सा पटनायक मार्क्सवादी अर्थशास्त्री हैं। वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज, सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में प्रोफेसर एमेरिटस हैं। उनकी किताब 'एक्सप्लोरिंग द पॉवर्टी क्वेश्चन' प्रेस में है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए कृपया नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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