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महाराष्ट्र : मांग के बावजूद मनरेगा में काम नहीं!

“जहां मई में पिछले पांच साल में चार से आठ लाख परिवार काम कर रहे थे, वहां आज मज़दूरों की यह संख्या चार हज़ार भी नहीं हैं।”
MNREGA
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

कई वर्षों का अनुभव है कि महाराष्ट्र में आम तौर पर महात्मा गांधी के नाम पर चल रही राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना की मांग होली के बाद बढ़ जाती है और खरीफ के सत्र में काम शुरू होने के बाद इसके तहत रोज़गार की मांग कम हो जाती है। लेकिन, दुख की बात है कि इस साल अप्रैल और मई में बहुत कम ज़िलों में मनरेगा के काम चल रहे हैं। हकीकत यह है कि राज्य में फिलहाल सिर्फ 11 ज़िलों में लगभग शून्य परिवार काम करते नज़र आ रहे हैं। ज़ाहिर है कि इन ज़िलों में मनरेगा के तहत काम ही नहीं हो रहा है।

वहीं, मनरेगा वेबसाइट पर दर्ज सरकार के आंकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र में केवल 9 ज़िलों में 100 से अधिक परिवार कार्यरत हैं। जहां मई में पिछले पांच साल में चार से आठ लाख परिवार काम कर रहे थे, वहां आज मज़दूरों की यह संख्या चार हज़ार भी नहीं हैं। यह स्थिति दिखाती है कि यहां मनरेगा में काम न के बराबर रह गया है।

आखिर महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्य में मनरेगा इस स्थिति तक पहुंचा तो कैसे? वहीं, ब्लॉक विकास अधिकारियों का समूह मनरेगा को लेकर नाराज़गी जता रहा है। यह समूह कार्यान्वयन प्रावधानों में बदलाव को लेकर नाखुश है। लेकिन, यह तो एक छोटा और अस्थायी कारण हो सकता है। यहां यह समझना ज़रूरी होगा कि महाराष्ट्र में मनरेगा कार्यान्वयन की समस्याएं इतनी उलझ क्यों रही हैं। इसके लिए आइए पहले थोड़ी पृष्ठभूमि जान लेते हैं।

राज्य को सूखे से दिलाई थी राहत

हम सभी जानते हैं कि 1972 और उसके बाद के सूखे और अकाल के दौरान इस संकट से जूझ रहे ग्रामीण लोगों की मदद के लिए रोज़गार गारंटी को एक योजना के रूप में लागू किया गया था। बाद में ग्रामीण क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों और बुनियादी ढांचे को बनाने में इस योजना की शक्ति का एहसास हुआ। कई वर्षों बाद इस योजना को एक अधिनियम में बदल दिया गया। केंद्र सरकार के इस निर्णय ने गरीबों को स्थानीय स्तर पर ही उचित रोज़गार प्रदान करके ग्राम विकास के लिए संसाधन तैयार किए। इस तरह, यह योजना वर्षों से चली आ रही है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका भी निभाती आ रही है।

इधर, राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद महाराष्ट्र में इस योजना को एक नया जीवन देने का मौका मिला। समय के साथ कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को राष्ट्रीय कानून में शामिल किया गया। उन्हें महाराष्ट्र ने भी अपनाया और लागू किया। देखा जाए तो ग्राम सभा में ही मनरेगा के कार्यों की योजना बनाना और संकल्प के अनुसार योजना तैयार करना पंचायत राज के सिद्धांत का पालन करता है। हर ग्राम पंचायत में ग्राम सेवकों से मनरेगा के काम में मदद की अपेक्षा की जाती थी।

गए दशकों में सूचना प्रौद्योगिकी को जोड़कर पारदर्शिता बढ़ाने की योजना, सूचना का अधिकार अधिनियम द्वारा तय की गई थी। इसके लिए हर तहसील में कंप्यूटर और उससे जुड़ी सुविधाओं का होना ज़रूरी हो गया। महाराष्ट्र राज्य में भी यह योजना पूरे वर्ष हर एक परिवार को 100 दिन के काम की गारंटी देती है। इसके लिए केंद्र सरकार से 100 दिनों की मज़दूरी के फंड के लिए प्रावधान रखा गया था। यही वजह रही कि महाराष्ट्र के कई सूखा प्रभावित इलाकों में मनरेगा ने राहत का काम किया था।

लेकिन, दिक्कत कहां हुई?

वर्ष 2006 से 2008 तक महाराष्ट्र में मनरेगा के तहत रणनीति के स्तर पर महत्त्वपूर्ण निर्णयों के साथ-साथ अपेक्षा के मुताबिक जनशक्ति और आवश्यक बुनियादी सुविधाएं तैयार नहीं हुईं। वर्ष 2009 के बाद से मनरेगा को कई सरकारी फैसलों के माध्यम से कुछ छोटे और बड़े बदलावों के साथ जोड़ते हुए अमल में लाया गया। हालांकि, इस दौरान मनरेगा को अच्छा बढ़ावा मिला, फिर भी कार्यान्वयन के प्रबंधन ढांचे में मूलभूत परिवर्तन की उम्मीद थी जिसे टाला जाता रहा और अब तो हाल यह है कि इस तरफ ध्यान भी नहीं दिया जा रहा है।

इसी तरह, महाराष्ट्र में सूखे से निजात पाने के लिए रोज़गार से जुड़ी हुई जो योजना आई उसे पहले राजस्व विभाग ने लागू किया। इसके तहत राज्य के कृषि, जल संरक्षण, लोक निर्माण व वन जैसे विभिन्न विभागों ने संयुक्त रूप से सहयोग किया। फिर पंचायत राज संस्थाओं के निर्माण के बाद जिला परिषद, पंचायत समिति और ग्राम पंचायत की त्रिस्तरीय संरचना अस्तित्व में आई। चूंकि ग्रामीण क्षेत्रों में विकास कार्य इन संगठनों का मुख्य कार्य है, इसलिए अधिकांश विकास योजनाएं पंचायती राज संस्थाओं के अंतर्गत आ गईं। लिहाजा, मनरेगा इन संस्थानों के निर्माण के बाद, ग्रामीण मंत्रालय के अधीन हो गया। फिलहाल मौजूदा खामियों में से एक खामी विभिन्न विभागीय अधिकारियों और स्थानीय जनप्रतिनिधियों के बीच बढ़ती असहयोगिता की भावना भी बताई जा रही है। हालांकि, यह खामी सरकार की दखल से दूर की जा सकती है मगर हर सवाल सरकार की इच्छा-शक्ति पर आकर रुक जाता है।

यही वजह है कि इस वर्ष मांग के बावजूद काम नहीं मिल सका है, जबकि कानून में काम मांगे जाने के 15 दिनों के भीतर काम मिलना चाहिए था, लेकिन पहले तो काम नहीं दिए जाने का कारण भी बताया जाता था, अब तो इस योजना को इस हद तक हतोत्साहित किया गया है कि ग्रामीण परिवारों का इस योजना से मोहभंग ही हो रहा है। मनरेगा को लेकर उदासीनता की यह स्थिति राज्य के सभी ज़िलों में देखी जा सकती है। होना तो यह था कि ग्रामीण विकास से जुड़े राज्य के सभी पक्ष, सभी संस्थान और संगठनों को इस मोर्चे पर सक्रिय होना चाहिए और गांवों तक पहुंचना चाहिए ताकि वे अधिक से अधिक ग्रामीण परिवारों को इस योजना से जोड़ने का काम कर पाते, लेकिन हाल-फिलहाल मनरेगा के मामले में निष्क्रियता ही दिख रही है।

..तो बढ़ेगी भुखमरी?

महाराष्ट्र में 24 प्रतिशत ग्रामीण आबादी गरीबी में जी रही है। गौर करने वाली बात है कि मनरेगा पर काम करने वाले मज़दूर छोटे और सीमांत किसान हैं। उनकी कृषि, वर्षा जल पर निर्भर एक शुष्क भूमि कृषि है। 'नेशनल ड्राईलैंड एरिया अथॉरिटी' की रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र में 23 ज़िले खराब प्राकृतिक संसाधन सूचकांक वाले हैं, जबकि 18 ज़िले खराब समग्र सूचकांक वाले हैं। इस रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि इन ज़िलों से विकास कार्यों को प्राथमिकता के आधार पर कराया जाए। इस पृष्ठभूमि में यदि मनरेगा को कमज़ोर किया गया तो राज्य में भुखमरी की दर बढ़ सकती है।

इसलिए मनरेगा के कार्यान्वयन में खामियों को दूर करने की ज़रूरत है। राज्य के विदर्भ जैसे अंचल में जहां गरीब ग्रामीण बड़ी संख्या में पलायन के लिए मजबूर हैं वहां यह योजना अधिक प्रभावी हो सकती है क्योंकि यह योजना एक निश्चित लक्ष्य समूह को केंद्रित करके तैयार की गई है। लेकिन, यदि कोई सरकार राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए पूर्वाग्रहों के बिना किसी योजना का निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं कर पा रही है और सोचती है कि योजना की सफलता को उसकी पूर्ववर्ती सरकार की सफलता से जोड़कर देखा जा सकता है तो इसे इस संकेत के तौर पर देखा जाना चाहिए कि यह एक समझदार लोकतंत्र का लक्षण नहीं है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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