बड़े पैमाने की यह बेरोज़गारी पूंजीवाद की नाकामी है
महामारी के दौरान रिकॉर्ड बेरोज़गारी से श्रमिकों को होने वाली परेशानियां पूंजीवाद का एक उत्पाद है। ज़्यादातर समय, नियोक्ता श्रमिकों को काम पर रखने या निकालने यानी हायर ऐंड फ़ायर का फ़ैसला लेते हैं और यह फ़ैसला उनके मुनाफ़े को अधिकतम करने के विकल्प पर निर्भर करता है। इस मुनाफ़े का न तो श्रमिकों के पूर्ण रोज़गार से मतलब है और न ही उत्पादन के साधनों से कोई लेना देना है, यह पूंजीवाद का "केंद्रीय बिन्दु" है और इस तरह, पूंजीवादियों का असली मक़सद भी यही होता है। सिस्टम इसी तरह से काम करता है। पूंजीपति तभी ख़ुश होते हैं,जब उनका मुनाफ़ा ज़्यादा होता है और जब मुनाफ़ा नहीं होता हैं, तब वे परेशान हो जाते हैं। लेकिन,यह सुख-दुख उनका व्यक्तिगत नहीं होता है; बल्कि इसका लेना-देना तो सिर्फ़ कारोबार से होता है।
बेरोज़गारी ज़्यादातर नियोक्ताओं की ओर से पैदा किया गया एक विकल्प है। बेरोज़गारी के कई मामलों में नियोक्ताओं के पास कर्मचारियों को नहीं निकाले जाने का विकल्प रहता है। वे सभी को काम पर रख सकते हैं, बल्कि कर्मचारियों के बीच काम के दिन या समय को भी घटाया जा सकता है या फिर उनके काम करने के समय को अलग-अलग किया जा सकता है। नियोक्ता पेरोल पर बेकार कर्मचारियों को बनाये रखने का विकल्प चुन सकते हैं और उन नुक़सानों को भी झेल सकते हैं, जिनके बारे में उन्हें उम्मीद होती है कि वह अस्थायी होंगे।
हालांकि, बेरोज़गारी को क़रीब-क़रीब हर जगह और सभी लोगों द्वारा एक नकारात्मक, अवांछित चीज़ माना जाता है। एक तरफ़ कामगार रोज़गार चाहते हैं। दूसरी तरफ़ नियोक्ता मुनाफ़ा देने वाले कर्मचारी चाहते हैं। सरकारें वह कर राजस्व चाहती हैं, जो कर्मचारियों और नियोक्ताओं के सक्रिय सहयोग से चलता रहता है।
तो ऐसे में सवाल उठता है कि जहां कहीं भी यह पूंजीवादी व्यवस्था पिछले तीन शताब्दियों में स्थायी हो चुकी है, वहां रह-रहकर आर्थिक मंदी क्यों आती रहती है? ऐसा देखा गया है कि औसतन हर चार से सात साल में आर्थिक मंदी आती ही आती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में इस सदी में अब तक की मंदी के तीन धमाके हुए हैं: 2000 में "डॉट-कॉम"; "सब-प्राइम ऋण" 2008 में; और अब 2020 में "कोरोनावायरस"। इस प्रकार संयुक्त राज्य अमेरिका पूंजीवाद के "मानक" की तरह बन गया है। पूंजीपति बेरोज़गारी तो नहीं चाहते हैं, लेकिन वे इसे नियमित रूप से पैदा करते रहते हैं। यह उनकी प्रणाली का एक बुनियादी विरोधाभास है।
पूंजीवाद समय-समय पर बार-बार बेरोज़गारी क्यों पैदा करता है, असल में इसका अच्छा-भला कारण होता है। ऐसा करके पूंजीवाद मुनाफ़ा कमाता है (साथ ही साथ उसे नुकसान भी भुगतना पड़ता है)। "बेरोज़गारों की आरक्षित फ़ौज" को बार-बार पेश करके पूंजी निवेश को समय-समय पर बढ़ाने में मदद मिलती है और मज़दूरी में बिना किसी बढ़ोत्तरी के कामगारों को आकर्षित करने में सहूलियत होती है। अगर, सभी श्रमिक पहले से ही पूंजी निवेश के बढ़ने से पूरी तरह से नियोजित हों, तो निवेश के साथ-साथ मज़दूरी में बढ़ोत्तरी होती रहती है और इस बढ़ोत्तरी की वजह से मुनाफ़े में आने वाली गिरावट बढ़ती जाती है। चूंकि बेरोज़गारी से श्रमिक वर्ग अनुशासित रहता है। ऊपर से जो लोग बेरोज़गार होते हैं, वे नौकरी पाने के लिए अक्सर बेताब रहते हैं, ऐसे में नियोक्ताओं को मौजूदा कर्मचारियों की जगह इन बेरोज़गार उम्मीदवारों को काम पर रखने का मौक़ा मिल जाता है, जो कम पारिश्रमिक में भी काम करने के इच्छुक होते हैं। इस प्रकार, बेरोज़गारी मज़दूरी और वेतन पर एक नीचे पड़ने वाले दबाव के रूप में काम करती है और जिससे मुनाफ़े में बढ़ोत्तरी होती है।
संक्षेप में, पूंजीवाद बेरोज़गारी चाहता भी है और नहीं भी चाहता है; पूंजीवाद समय-समय पर बेरोज़गारों की एक आरक्षित फ़ौज को बढ़ाते हुए और फिर उन बेरोज़गारों को कम पारिश्रमिक पर काम पर रखते हुए इस परेशानी को लगातार बनाये रखता है।
उस आरक्षित सेना ने एक कठोर वास्तविकता को तो उजागर कर ही दिया है कि कोई भी वैचारिक चमक कभी पूरी तरह से नहीं मिटती है। हालांकि बेरोज़गारी जिस तरह से पूंजीवाद के लिए कार्य करती है, वह समाज के लिए उतनी ही अच्छी तरह से काम नहीं आती है। यह अहम फ़र्क़ सबसे ज़्यादा साफ़ तौर पर तब दिखायी पड़ता है,जब बेरोजगारी बहुत अधिक हो जाती है, जैसा कि आज है।
इस बात पर विचार करें कि आज बेरोज़गार हो चुके लाखों लोग अपने बिना किसी ज़्यादातर उत्पादन के अपनी ज़्यादातर खपत को जारी रखे हुए हैं। हालांकि वे सामाजिक रूप से उत्पादित धन से अपने उपभोग को जारी रखे हुए हैं, जबकि अब वे उत्पादन भी नहीं कर रहे हैं और न ही सामाजिक संपत्ति में उस तरह से अपना योगदान ही दे पा रहे हैं, जैसा कि वे रोज़गार में रहते हुए कर रहे होते हैं।
इस तरह, बेरोज़गारी धन के पुनर्वितरण को अनिवार्य बना देती है। ऐसे में जो लोग इस समय रोज़गार में हैं, उनके द्वारा उत्पादित धन के एक हिस्से को बेरोज़गारों में बांट दिया जाना चाहिए। टैक्स उसी पुनर्वितरण को सार्वजनिक रूप से पूरा करते हैं। कर्मचारी और नियोक्ता, श्रम और पूंजी के बीच इस बात को लेकर संघर्ष होता है कि किनके करों से बेरोज़गार की खपत पर ख़र्च किया जाए। इस तरह के पुनर्वितरण को लेकर संघर्ष हो सकते हैं और ये संघर्ष अक्सर कड़वे और सामाजिक रूप से विभाजनकारी होते हैं। परिवारों के निजी क्षेत्र में भी आय और रोज़गार से हासिल होने वाले धन के कुछ हिस्से उन बेरोज़गारों द्वारा की जाने वाली खपत को सक्षम करने के लिए पुनर्वितरित किए जाते हैं, जिनमें पति-पत्नी, माता-पिता और बच्चे, रिश्तेदार, दोस्त और पड़ोसी शामिल होते हैं। श्रमिक वर्ग हमेशा उस बेरोज़गारी का सामना करने के लिए अपनी आय और धन का पुनर्वितरण कर देते हैं, जो समय-समय पर पूंजीवाद उन पर थोपता रहता है। इस तरह के पुनर्वितरण आम तौर पर श्रमिक वर्ग के भीतर कई तनावों और संघर्षों का कारण बनते हैं या इन तनावों और संघर्षों की आग के भड़कने में घी का काम करते हैं।
कई सार्वजनिक और निजी पुनर्वितरण संघर्षों से बचा जा सकता है, मिसाल के तौर पर सरकारी पुनर्नियोजन निजी बेरोज़गारी को ख़त्म कर देता है। यदि राज्य अंतिम आसरा वाला नियोक्ता बन जाता है, तो निजी नियोक्ताओं से निकाल दिये गये लोगों को राज्य सामाजिक रूप से उपयोगी कार्य करने के लिए उन्हें तुरंत काम पर रख सकता है। इसका नतीजा यह होगा कि सरकारें बेरोज़गारी भत्ते का भुगतान करना बंद कर देंगी और इसके बजाय काम पर रखे गये लोगों को उनकी मज़दूरी का भुगतान करेंगी, बदले में सरकारों को वास्तविक वस्तु और सेवायें प्राप्त होंगी और उन्हें जनता में वितरित करे देंगी। 1930 के न्यू डील ने निजी प्रतिष्ठानों से निकाले गये लाखों बेरोज़गारों के साथ ठीक यही किया था। निजी पूंजीवादी रोज़गार और बेरोज़गारी (लेकिन न्यू डील का हिस्सा नहीं) के लिए इसी तरह के किसी विकल्प को सरकार के साथ अनुबंध पर सामाजिक रूप से उपयोगी काम करने वाले श्रमिकों के सहयोग से चलते उद्यमों में बेरोज़गारों को खपाना होगा।
यह अंतिम विकल्प सबसे अच्छा है, क्योंकि यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था के एक नये कामगार सहकारिता वाले सेक्टर को विकसित कर सकता है। इससे अमेरिकी जनता को काम करने की स्थिति, उत्पाद की गुणवत्ता और क़ीमत, नागरिक ज़िम्मेदारी, आदि के मामले में पूंजीपति और कामगार सहकारी सेक्टर को एक दूसरे से तुलनात्मक रूप से समझने का प्रत्यक्ष अनुभव मिलेगा। समाज उस ठोस, अनुभव के आधार पर लोगों को एक वास्तविक, लोकतांत्रिक विकल्प प्रदान कर सकता है कि आख़िर वे पूंजीपति और कामगार सहकारी क्षेत्रों से बनी किस तरह के मिश्रण वाली अर्थव्यवस्था चाहते हैं।
(रिचर्ड डी. वोल्फ़ एमहर्स्ट स्थित मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के एमिरेट्स प्रोफ़ेसर हैं, और न्यूयॉर्क स्थित न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी के अंतर्राष्ट्रीय मामलों में ग्रेजुएट प्रोग्राम में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हैं।)
इस लेख को इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टिट्युशन की एक परियोजना, इकोनॉमी फ़ॉर ऑल द्वारा तैयार किया गया है।
अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख आप नीचे लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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