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अनिश्चित नौकरियाँ, कम कमाई और अवैतनिक रोज़गार से भारत की अर्थव्यवस्था ख़तरे में

हालांकि, आधिकारिक रिपोर्ट में कहा गया है कि श्रम भागीदारी बढ़ी है और बेरोज़गारी कम हुई है।
workers and labour
प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार : Mint

भारत में नौकरियों की स्थिति पर हाल ही में जारी एक सरकारी रिपोर्ट ने संकेत दिया है कि दो प्रमुख रोजगार संकेतकों - श्रम बल भागीदारी दर और श्रमिक जनसंख्या अनुपात - दोनों में सुधार दिखा है, और बेरोजगारी दर में गिरावट आई है। 2022-23 के लिए आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) नामक रिपोर्ट, लगभग 4.2 लाख व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले लगभग 1 लाख घरों के वार्षिक सर्वेक्षण पर आधारित है।

नौकरियों का संकट लंबे समय से भारतीय अर्थव्यवस्था को परेशान कर रहा है और 2019 में मंदी के बाद से यह और भी बदतर हो गया है। महामारी के दौरान बड़े पैमाने पर आर्थिक लॉकडाउन के कारण यह और बढ़ गया था और तब से इसमें गिरावट आ रही है। इसलिए जारी किए गए नए डेटा पर सरकार और उसके समर्थकों से बहुत जश्न मनाने वाली टिप्पणियाँ मिलीं हैं। लगभग एक महीने के समय में होने वाले महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों और अगले साल की शुरुआत में होने वाले आम चुनावों के मद्देनज़र, यह कल्पना की गई थी कि नौकरियों की गंभीर स्थिति में कुछ हद तक राहत से सत्तारूढ़ सरकार को मदद मिलेगी।

हालाँकि, पीएलएफएस रिपोर्ट में दिए गए डेटा के विवरण से पता चलता है कि यह आशावाद गलत है। रिपोर्ट एक वास्तविकता को दर्शाती है जहां अवैतनिक श्रम, विशेष रूप से महिलाओं का श्रम, काफी बढ़ गया है, अनौपचारिक काम बढ़ गया है, कृषि तेजी से काम का मुख्य आधार बन रही है और कम भुगतान वाले स्व-रोज़गार दुनिया पर हावी है।

चूंकि 2020 से 2022 तक वाले साल महामारी से प्रभावित थे और रोजगार के अवसर काफी काम हो गए थे, इसलिए वर्तमान रिपोर्ट (2022-23) की तुलना 2018-19 की पीएलएफएस रिपोर्ट से करना शिक्षाप्रद होगा, जो महामारी से हले के वर्ष की आखिरी रिपोर्ट है। इससे यह भी पता चलेगा कि पिछले पांच वर्षों में नौकरियों का परिदृश्य कितना बदल गया है। श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर), जो काम करने वाली आबादी और काम चाहने वालों का हिस्सा है, इस अवधि में लगभग 50 प्रतिशत से बढ़कर 58 प्रतिशत हो गई है। श्रमिक जनसंख्या अनुपात (डब्ल्यूपीआर), जो कि श्रम बल में वास्तव में काम करने वाले व्यक्तियों की हिस्सेदारी है, भी 35 प्रतिशत से बढ़कर 41 प्रतिशत हो गी है। विशेष रूप से, वर्तमान पीएलएफएस रिपोर्ट कहती है कि महिला एलएफपीआर लगभग 25 प्रतिशत से बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई है जबकि महिला डब्ल्यूपीआर 18 प्रतिशत से बढ़कर 27 प्रतिशत हो गई है। यह एक महत्वपूर्ण छलांग है. आइए अब इसकी बारीकियों पर नजर डालते हैं ।

स्व-रोज़गार में वृद्धि

2018-19 में, स्व-रोज़गार के तरत  काम करने वाले सभी व्यक्तियों में से 52 प्रतिशत व्यक्ति थे, इनमें नियमित वेतन या वेतन कमाने वाले 24 प्रतिशत थे और केजुअल श्रमिक 24 प्रतिशत थे। 2022-23 तक, स्व-रोज़गार की हिस्सेदारी बढ़कर 57 प्रतिशत हो गई थी, जबकि नियमित वेतन पाने वालों और केजुअल श्रम दोनों की हिस्सेदारी में गिरावट आई थी। (नीचे चार्ट देखें)

स्व-रोज़गार  से जुड़े वे लोग हैं जो कृषि से लेकर छोटे दुकानदारों, रिक्शा चालकों, मरम्मत श्रमिकों और विभिन्न प्रकार के सेवा प्रदाताओं जैसी आश्चर्यजनक विविध नौकरियों में काम कर रहे हैं, जिनमें नौकरी की सुरक्षा बहुत काम होती है, व्यावहारिक रूप से कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं होती है और उस पर वेतन भी काम होता है। तो यह पहला संकेत है कि बढ़ा हुआ रोजगार जीवित रहने के लिए किसी भी तरह का काम करने की हताश लोगों को दर्शाता है।

महिलाओं के लिए अवैतनिक रोज़गार अधिक

पुरुष और महिला श्रमिकों को जिस तरह का काम मिल रहा है, उसे देखकर एक और चिंताजनक प्रवृत्ति सामने आती है। सबसे खास बात यह है कि स्वरोजगार में महिलाओं की हिस्सेदारी उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है, जो 2018-19 में 53 प्रतिशत से बढ़कर 2022-23 में 65 प्रतिशत हो गई है। इसके साथ ही इसी अवधि में नियमित वेतन वाले रोजगार में महिलाओं की संख्या लगभग 22 प्रतिशत से 16 प्रतिशत और केजुअल श्रम में 25 प्रतिशत से 19 प्रतिशत तक की  गिरवाट आई है।

सर्वेक्षण रिपोर्ट स्व-रोज़गार के तहत काम करने वाले व्यक्तियों का विवरण भी देती है - वे जो खुद के कर्मचारी या मालिक हैं और जो "घरेलू उद्यमों में सहायक" हैं। यह बाद वाली श्रेणी अवैतनिक श्रमिक हैं, जो परिवार के सामूहिक श्रम में मदद करते हैं। स्व-रोज़गार महिलाओं में, खुद श्रमिक होने  और मालिओं की हिस्सेदारी 2018-19 में 23 प्रतिशत से बढ़कर 2022-23 में 28 प्रतिशत हो गई है, जबकि इसी अवधि में अवैतनिक सहायकों की हिस्सेदारी 31 प्रतिशत से बढ़कर 38 प्रतिशत हो गई है। (नीचे चार्ट देखें)

इसी काम में महिलाओं की भागीदारी में बहुप्रशंसित उछाल की व्याख्या निहित है। ऐसा लगता है कि कमाई के दयनीय स्तर को देखते हुए, महंगाई/मुद्रास्फीति के कारण कम हो गई है, और नौकरियों की मौजूदा कमी के कारण, महिलाओं को परिवार के अन्य सदस्यों की कमाई को पूरा करने के लिए अतिरिक्त काम करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। कदम-दर-कदम परिवार जीवन-यापन के साधन जुटा रहे हैं। ध्यान दें कि यह मुख्य रूप से महिलाएं ही हैं जो इस "स्वरोजगार" कार्य को मुख्य रूप से निभा रही हैं। जहां तक पुरुषों का सवाल है, स्व-रोज़गार में उनकी हिस्सेदारी 52 प्रतिशत से बढ़कर 54 प्रतिशत हो गई है। उसी अवधि में, खुद जो श्रमिक भी हैं और मालिक भी उनकी हिस्सेदारी 44 प्रतिशत से बढ़कर 44.3 प्रतिशत हो गई है, जबकि अवैतनिक सहायक की हिस्सेदारी 7.6 प्रतिशत से बढ़कर 9.3 प्रतिशत हो गई है।

गैर-कृषि अनौपचारिक क्षेत्र की तरह कृषि रोज़गार भी अधिक मज़दूरों को काम देता है

रोजगार में वृद्धि दर्शाने वाले क्षेत्रों को देखकर काम की प्रकृति पर अधिक रोशनी डाली जाती है जिस पर लोग निर्भर हैं। पिछले पांच सालों में कृषि में रोजगार 41 प्रतिशत से बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया है। मामूली वृद्धि दर्शाने वाला एक अन्य क्षेत्र निर्माण से जुड़ा है जहां रोजगार 12 प्रतिशत से बढ़कर 13 प्रतिशत हो गया है। इन दोनों क्षेत्रों में कम वेतन, काम की उपलब्धता की मौसमीता, सामाजिक सुरक्षा की कमी और कठिन कामकाजी स्थितियां प्रमुख हैं। अन्य सभी प्रमुख क्षेत्रों - विनिर्माण, व्यापार और होटल, परिवहन और संचार, और यहां तक कि "अन्य सेवाएं" जिनमें प्रशासनिक और व्यक्तिगत सेवाएं, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि शामिल हैं - में रोजगार में गिरावट देखी गई है। यह अर्थव्यवस्था की स्थिति के बारे में बहुत कुछ बताता है।

इसमें विशेष ध्यान वाला तथ्य यह है कि गैर-कृषि क्षेत्र में - जिसे कभी भारत के रोजगार ब्लूज़ के लिए रामबाण कहा जाता था - यह वह अनौपचारिक क्षेत्र है जो अधिकांश रोजगार चाहने वालों को आकर्षित कर रहा है। जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है, इस प्रकार के काम में पुरुषों की हिस्सेदारी 72 प्रतिशत से बढ़कर 78 प्रतिशत हो गई जबकि महिलाओं की हिस्सेदारी 54 प्रतिशत से बढ़कर 61 प्रतिशत हो गई है। स्व-रोजगार में वृद्धि के साथ देखा जाए तो यह देश में अनिश्चित रोज़गार की बढ़ती तस्वीर पेश को पेश करता है।

कम कमाई

पीएलएफएस 2022-23 रिपोर्ट में विभिन्न प्रकार के रोज़गार से औसत कमाई पर गंभीर जानकारी मिलती है। कृषि के मौसमीकाम को ध्यान में रखते हुए एक वर्ष (जुलाई 2022 से जून 2023) में चार राउंड में डेटा एकत्र किया गया था। आंकड़ों का औसत निकालने पर कम कमाई के स्तर, साथ ही पुरुषों और महिलाओं और ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच अंतर भी देखा जा सकता है।

एक केजुअल मज़दूर का औसत दैनिक वेतन मात्र 403 रुपये के बराबर है और यदि उसे पूरे 30 दिन काम मिलता है तो उसे प्रति माह 12,075 रुपये मिलेंगे। पुरुष कैज़ुअल कर्मचारी 12,990 रूपए कमाते हैं जबकि महिला श्रमिकों को केवल 8,385 रूपए प्रति माह मिलते हैं। स्व-रोज़गार श्रेणी में, औसत कमाई  13,131 रूपए प्रति माह है, जिसमें पुरुषों को औसतन 15,197 रुपये मिलते हैं जबकि स्व-रोज़गार वाली महिलाएं केवल 5,516 रुपये ही कमा पाती हैं। . नियमित वेतन या वेतन पाने वालों को औसतन 9,492 रूपए प्रति माह कमाते यहीं जबकि पुरुष 20,666 रूपए और महिलाओं को बेहद काम यानी 15,722 रूपए ही मिलते हैं. ये बेहद कम आय के स्तर औसत हैं और कई ऐसे भी हैं जो बहुत कम कमाते हैं। स्पष्ट रूप से, उपलब्ध नौकरियों की प्रकृति - जैसा कि ऊपर वर्णित है - पर्याप्त भुगतान या आय दे पा रही हैं।

पांच साल पहले (2018-19) के आय स्तरों की तुलना से आर्थिक संकट के एक और आयाम का पता चलता है। स्व-रोज़गार और नियमित वेतन/मज़दूरी वाले श्रमिकों दोनों के लिए वेतन/आय में वृद्धि समान अवधि में मूल्य वृद्धि से कम है। (नीचे चार्ट देखें) कैज़ुअल श्रमिकों ने अपने वेतन में बेहतर वृद्धि देखी है, शायद इसलिए क्योंकि शुरुआत में उनका वेतन स्तर बहुत दयनीय रूप से कम था। मूल्य वृद्धि की गणना सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी संयुक्त उपभोक्ता मूल्य सूचकांक डेटा का उपयोग करके की गई है।

कुल मिलाकर, काम की कठिन परिस्थितियों के बावजूद, नौकरियों की स्थिति गंभीर और चुनौतीपूर्ण बनी हुई है और गरिमापूर्ण जीवन जीने के मामले में यह कमाई बहुत काम है। लोगों को जो भी काम मिलता है, उसके बदले में जो भी कमाई होती है, उसे कमा कर वे अपना गुजारा किसी तरह से कर रहे हैं। यह कड़वी सच्चाई कुछ ऐसी है जिस पर नीति निर्माताओं को तत्काल और समझदारी से ध्यान देने की जरूरत है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Precarious Jobs, Low Earnings, and Unpaid Work Haunt India’s Economy

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