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बीच बहस: अवमानना बनाम संवेदनशील मामलों में न्यायालय की कार्य पद्धति व भूमिका

इन सारी आलोचनाओं के पीछे, जिन्हें बहुतों ने साझा किया है, जो मुद्दा है वह है ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी यानी न्यायिक जवाबदेही का।
न्यायालय

4 अगस्त, 2020 को हमने 16 नामचीन हस्तियों द्वारा बहादुरी-भरे ऐक्टिविज़्म का विलक्षण प्रदर्शन देखा। पूरी तरह जानते-समझते हुए कि उनका यह कृत्य उन्हें जेल तक पहुंचा सकता था, क्योंकि वे एक ऐसे व्यक्ति का समर्थन कर रहे थे जिसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अवमानना का केस चल रहा है। उन्होंने वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के समर्थन में एक हस्तक्षेप याचिका (intervention petition) दाखिल की और सर्वोच्च न्यायालय से अर्ज़ किया कि उनके विरुद्ध अवमानना की कार्यवाही समाप्त करे। 16 लोगों की इस लिस्ट में ऐसे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के नाम शामिल हैं, जो देश में सम्मान के नज़र से देखे जाते हैं।

इनमें हैं अरुणा रॉय, जयति घोष, शान्ता सिन्हा, ईएस सर्मा, पी साईनाथ, टीएम कृष्णा, जगदीप एस चोकर, अंजलि भरद्वाज, प्रभात पटनायक, बेज़वाड़ा विल्सन, निखिल डे, देब मुखर्जी, एसआर हरेमथ, पॉल दिवाकर नमला, वजाहत हबीबुल्ला और सईदा हामिद। ये सभी भारतीय लोकतंत्र की अंतरात्मा के रखवाले (conscience keeper) हैं। इन लोगों ने बाहादुरी का परिचय देते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा हेतु अपनी व्यक्तिगत आज़ादी को दांव पर लगाया, और यह अद्भुत बात है कि उन्होंने ऐसा उस न्यायपालिका से किया, जो व्यक्तिगत आज़ादी और स्वाधीनता का प्रहरी माना जाता है।

हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ पुराने निष्क्रिय अवमानना के केस पुनः जीवित कर दिये हैं और प्रशांत भूषण के हाल के कुछ ट्वीट्स (tweets) का सुओ मॉटो कॉग्नाइजैन्स (suo moto cognizance) यानी स्वत: संज्ञान लिया और उनके खिलाफ अवमानना की ताज़ा कानूनी कार्यवाही शुरू कर दी। मस्लन, 22 जून 2020 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसे ट्वीट (tweet) का संज्ञान लिया जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के पिछले 4 मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल में लोकतंत्र खंडित हुआ था। एक और ट्वीट था जिसमें प्रशांत भूषण ने पदस्थ (incumbent) मुख्य न्यायाधीश के 50 लाख कीमत वाले (भाजपा नेता के) हारले डेविडसन बाइक (Harley Davidson bike) के साथ बिना हेलमेट व मास्क पोज़ करने की आलोचना की थी। यह लॉकडाउन के समय की बात है जब दिल्ली में सड़क पर सफर करने के लिए सख़्त नियम बने थे। इससे भी बड़ी विडम्बना है कि 2009 के एक मामले को उठाया गया; 24 जुलाई 2020 को सर्चोच्च न्यायालय ने एक 11 वर्ष पुराने अवमानना के केस पर सुनवाई आरंभ कर दी जिसमें तत्कालीन ऐमिकस क्यूरे (amicus curae) हरीश साल्वे ने प्रशांत के खिलाफ एक अवमानना का मामला दर्ज किया था क्योंकि अधिवक्ता भूषण ने तहलका पत्रिका के लिए दिये गए एक साक्षात्कार में कहा था कि भारत के 16 भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीशों में से 8 भ्रष्ट थे।

प्रशांत भूषण ने 2019 में एक ट्वीट के द्वारा सीबीआई के अंतरिम निदेशक के रूप में एम नागेश्वर राव की नियुक्त पर आलोचनात्मक टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि इस मामले में अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सर्वोच्च न्यायालय को यह गलत तथ्य देकर कि नागेश्वर राव की नियुक्ति को हाई-पावरर्ड कमेटी के द्वारा विधिवत मंजूरी दी गई थी, सर्वोच्च न्यायालय को गुमराह किया था। प्रशांत ने दावा किया था कि उनकी बात का आधार था कि विपक्षी कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने, जो स्वयं एक कमेटी सदस्य थे, उन्हें बताया था कि हाई-पावर्ड कमेटी बैठी ही नहीं थी तो राव की नियुक्ति को कैसे मंजूरी दी जाती? परंतु केके वेणुगोपाल ने दावा किया था कि राव की नियुक्ति पर सकारात्मक निर्णय पर हस्ताक्षर किया गया था और संगत दस्तावेज कोर्ट को सौंपे गए थे। वेणुगोपाल को 2016 में मोदी ने अट़र्नी जनरल नियुक्त किया था। वेणुगोपाल ने एक और अवमानना केस भूषण पर ठोंक दिया था।

इन अवमानना के मामलों से बिना किसी तरह परेशान हुए, प्रशांत अपने द्वारा की गई आलोचना पर टिके रहे; उन्होंने हाल में एक हलफनामा दायर किया कि पिछले 4 मुख्य नयायाधीशों के कार्यकाल में लोकतंत्र का नाश हुआ क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ मामलों को सही तरीके से नहीं हल किया जैसे रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 का निषेध, मोदी सरकार द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करना, असम में एनआरसी लागू करना, सीएए के विरुद्ध आंदोलन और ढेर सारे ऐसे बुनियादी अधिकारों से जुड़े मामले, आदि। तो मुद्दा कुल मिलाकर यह हैः न्यायालय के प्रधिकार की अवहेलना के जरिये उसकी अवमानना बनाम बहुत सारे संवेदनशील मामलों में न्यायालय की कार्य पद्धति व भूमिका।

इन सारी आलोचनाओं के पीछे, जिन्हें बहुतों ने साझा किया है, जो मुद्दा है वह है ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी यानी न्यायिक जवाबदेही का। प्रशांत भूषण ने न्यायिक जवाबदेही के प्रश्न पर 1991 से ही युद्ध छेड़ रखा है और 2007 से ही कैम्पेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी ऐण्ड रिफॉर्म्स ( campaign for judicial accountability and reforms) को संयोजक की भूमिका में संचालित करते रहे हैं।

जबकि प्रशांत भूषण न्यायिक जवाबदेही और न्यायिक सुधार के लिए अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं, सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान पदाधारियों को लग रहा है कि भूषण निहित स्वार्थों द्वारा प्रेरित अभियान चला रहे हैं ताकि वे न्यायालय की छवि को कलंकित कर सकें। ऐसा इसलिये लगता है कि भूषण के खिलाफ निष्क्रिय अवमानना के मामलों को पुनर्जीवित किया गया है और नए केस दर्ज किये गए हैं। आखिर इससे पुराना एक अवमानना का मामला उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के विरुद्ध अब भी लम्बित है; यह बाबरी मस्जिद विध्वंस का केस था, जिसमें कोर्ट के आदेश का पालन नहीं हुआ था। यद्यपि मूल टाइट्ल सूट में फैसला हो चुका है और आडवाणी, जोशी व अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे में सुनवाई अंतिम चरण में है, सर्वोच्च न्यायालय सुनवाई को आगे बढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहा।

श्रृंखलाबद्ध ढंग से सर्वोच्च न्यायालय के ढेर सारे फैसलों में जनमत, और यहां तक कि जानकार न्यायिक राय बुरी तरह से विभाजित रही है। ‘लोकतंत्र खतरे में है’, यह केवल प्रशांत भूषण की राय नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के 4 आसीन न्यायाधीशों ने पहले भी देश को आगाह किया था कि न्यायालय की स्वतंत्रता खतरे में है; यह इस बात का द्योतक था कि व्यवस्था के उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों के एक हिस्से को भी वही महसूस हो रहा था जो प्रशांत ने कहा है। तब तो सोशल मीडिया पर एक सरसरी निगाह डालें तो दसियों हज़ार ऐसे लोग मिल जाएंगे जिनके विरुद्ध अवमानना के केस दर्ज किये जा सकते हैं। पूरे देश का मूड बोल रहा है कि देश में मौजूद निरंकुश राजनीतिक ताकतों ने सफलतापूर्वक न्यायपालिका को अपने कब्जे में ले लिया है, (co-opt) कर लिया है और उन्हें न्यायपालिका का पूरा समर्थन व सहयोग मिल रहा है।

अब प्रश्न उठता है कि सर्वोच्च न्यायालय, जो बढ़ती जन-आलोचना से व्यग्र हो रहा है, क्या प्रशांत भूषण के मामले को उदाहरण बनाकर और उन्हें जेल भिजवाकर अपने समस्त आलोचकों के मुंह बंद कर सकता है? वैसे तो नर्मदा बांध द्वारा विस्थापन के एक विचाराधीन मामले में अरुनधति रॉय का आलोचनात्मक लेख जब प्रकाशित हुआ था, उन्हें भी जेल भेजा गया था, पर आलोचकों को चुप नहीं कराया जा सका। यह भी एक बड़ी विडम्बना ही है कि न्यायपालिका, जो राज्य की सबसे प्रमुख संस्था होती है, जो अपने अधिकार और शक्ति को असीम मानती है, सिविल सोसाइटी के एक प्रमुख सदस्य के कुछ ट्वीट को लेकर इस कदर परेशान हो रही है। सच तो यह है कि जिस तरह मीडिया ने राज्य के चौथे खम्बे होने का गौरव अर्जित किया है, सिविल सोसाइटी ने, बावजूद इसके कि वह सरकार का लगातार कटु आलोचक बना रहा है, लोकतांत्रिक व्यवस्था के एक गैर-राज्यीय (non-state} स्तंभ की भूमिका अदा की है।

पूरा विश्व आज इस बात को स्वीकार करता है कि एक वैश्विक दक्षिणपंथी लहर चल रही है। यह केवल किसी एक नेता या एक सत्ताधारी पार्टी की ओर इशारा नहीं है। यह इशारा है न्यायालय सहित राज्य की सभी संस्थाओं का दक्षिणपंथी दिशा में खिसकने की ओर। और, यह सिर्फ भारत की बात नहीं है। न्यायपालिका और उदार लोकतंत्र की ताकतों के बीच संघर्ष पूरी दुनिया में तीव्र होता जा रहा है। पड़ोसी देश पाकिस्तान में पूर्व प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा जिलानी तक पर अवमानना का आरोप लग चुका है। सन् 2003 में सर्वोच्च न्यायालय ने अवमानना कानूनों को सही ठहराया था और यहां से शुरुआत हुई चुनी लोकप्रिय सरकारों के नेताओं के विरुद्ध judicial witch-hunt की। श्रीलंका में सर्वोच्च न्यायालय एक लोकप्रिय लहर पर सवार होकर कार्यपालिका के कुछ सदस्यों के विरुद्ध भ्रष्टाचार-विरोधी कदम उठा रहा है, जबकि वह सत्ताधारी परिवार के भ्रष्टाचार के कुकृत्यों पर आंखें मूंदे हुए है और सिविल वार के कारण पीड़ित तमिल जनता को न्याय देने के प्रश्न को नजरंदाज कर रहा है। थाईलैंड में लोकतंत्र के पक्ष में अभियान चलाने वाले और विपक्षी नेताओं का दमन-उत्पीड़न 100 साल पुराने ‘लेसे-माजेस्टे’(Lese Majeste) क़ानून के तहत जारी है और क्रिमिनल कोर्ट सैनिक सरकार (Junta) के सक्रिय सहयोग में लगा है। गयाना में चुनाव का माखौल बनता है और वोट गिनती से पूर्व, व्यापक अनियमितताओं के बावजूद, मुख्य न्यायाधीश एक विवादास्पद नेता को राष्ट्रपति का शपथ दिलाते हैं। यूएसए में भी ग्वान्टानामों मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका को कोई भूल नहीं सकता।

यह आम ट्रेन्ड बन गया है कि कोर्ट संतुलन की ओर रुझान खोते जा रहे हैं। यह संभव हो सकता है कि सीबीआई के अंतरिम निदेशक की नियुक्ति के मामले में प्रशांत भूषण को मल्लिकार्जुन खड़गे ने गुमराह किया हो। तो, बजाय इसके कि सुप्रीम कोर्ट केके वेणुगोपाल की याचिका को स्वीकार करता, वह मल्लिकार्जुन खड़गे को बुलवा सकता था और मामले को स्पष्ट कर लेता। यह भी संभव हो सकता है कि चिढ़कर भूषण ने आरोप लगाने में कुछ अतिशयोक्ति भी की हो। आपराधिक अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की जगह न्यायालय भूषण पर रोक लगा सकता था या चेतावनी दे सकता था, जैसा कि अक्सर होता है जब न्यायपालिका पर सीधा आक्षेप किया जाता है। यदि कोर्ट के आदेशों के उल्लंघन के लिए अवमानना की कार्यवाही हो तो सैकड़ों आईएएस अफसर जेल पहुंच जाएंगे, उदाहरण के लिए शिक्षा के अधिकार के मामले में या खाद्य सुरक्षा के मामले में अथवा पर्यावरण के मामलों में।

लोकतंत्र का मुलम्मा हो या न हो, राज्य तो राज्य ही होता है। जैसा कि एक रूसी क्रांतिकारी ने कहा था कि राज्य एक ऐसी शक्ति है जिसपर क़ानून का वश नहीं होता। उदारवादी लोग भी अब न्यायपालिका और नियंत्रण व संतुलन की तथाकथित व्यवस्था के बारे में अपनी भ्रान्तियों से मुक्त हो रहे हैं। पर कुछ को अब भी लगता है कि अवमानना क़ानून में कुछ सुरक्षा उपाय संस्थापित किये जाएं तो ठीक होगा। और, बहुतों को लगता है कि अवमानना क़ानून को पूरी तरह खारिज कर दिया जाना चाहिये। परंतु यह बिना किसी लोकप्रिय जनउभार के संभव नहीं होगा। हाल की एक मिसाल है मेक्सिको में लोपेज़ ओब्राडोर के शासन में जिस तरह एक लोकप्रिय वामपंथी जनउभार ने वहां के सुप्रीम कोर्ट के स्वरूप और व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिया। ओब्राडोर का मुख्य चुनावी मुद्दा था सर्वोच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार, और जीतने के बाद उन्होंने कई लोकतांत्रिक न्यायिक सुधार लागू किये। जिन न्यायाधीशों को जीवन-काल के लिए नियुक्त किया गया था, उन्हें हटाया गया और न्यायालयों को अधिक स्वायतता दी गई। इसका परिणाम था कि कई भ्रष्टाचार-विरोधी व प्रगतिशील आदेश पारित हुए। आशा है कि कई और देश मेक्सिको की राह पर चलेंगे।

(बी. सिवरामन स्वतंत्र लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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