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गुजरात के बाद बनारस मॉडल : “भगवान बचाए ऐसे मॉडल से”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र हो और मॉडल की बात न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। गुजरात की तर्ज पर अब बनारस मॉडल पेश किया जा रहा है, लेकिन इसकी हक़ीक़त क्या है बता रहे हैं बनारस से वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत।
गुजरात के बाद बनारस मॉडल : “भगवान बचाए ऐसे मॉडल से”

दावा

बनारस में इंटीग्रेटेड काशी कोविड रिस्पांस सेंटर, “मेस” फार्मूले पर मरीजों का बारीकी से अध्ययन कर रहा है। “मेस” मतलब मानीटरिंग (निगरानी), एनालिसिस (विश्लेषण), स्ट्रेटजी (रणनीति) और एग्जीक्यूशन (क्रियान्वयन)। इस फार्मूले के तहत हर दिन किस क्षेत्र में कितने मरीज मिले, इसका बारीकी से अध्ययन किया जाता है और रोगियों की संख्या को काबू में करने के लिए टेस्ट, ट्रेस व ट्रीट मॉडल पर काम किया जाता है। इसे ही कहा जा रहा है बनारस मॉडल। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का दावा है कि बनारस मॉडल से कोरोना संक्रमण पर तेजी से लगाम लग रही है।

प्रचार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 मई को गुजरात में चक्रवात तूफान ताउते के हालात का निरीक्षण करने के बाद गुजरात सरकार को नसीहत दी कि उन्हें वाराणसी मॉडल अपनाना चाहिए। बनारस ने वह मॉडल विकसित किया है जो कोरोना संक्रमण से लड़ने में पूरी तरह कारगर है। वहां हर रोज मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस मॉडल की समीक्षा कर रहे हैं, जिससे कोरोना संक्रमण पर तेजी से लगाम लग रही है। देशभर के कई राज्यों, शहरों की तुलना में बनारस में परेशानी नहीं हुई, ना ही ऑक्सीजन को लेकर ज्यादा मुश्किलों का सामना करना और ना ही अस्पताल को लेकर उतनी परेशानी हुई जितनी देश के दूसरे शहरों में थी।

हक़ीक़त

वाराणसी के जाने-माने पत्रकार आलोक त्रिपाठी इस बनारस मॉडल को जुमलेबाजी करार देते हैं। वे कहते हैं, “ यह थेथरोलाजी का मॉडल है। शायद यह मॉडल है मौतों और नाकामियों को तोपने (छिपाने) का। ऑक्सीजन न मिलने से बनारस घराने के विख्यात खयाल गायक राजन मिश्र की मौत हो गई तो सिंपैथी का काढ़ा परोसने के लिए बीएचयू में उनके नाम पर 10 मई 2021 को अस्थायी अस्पताल खोला गया। 30 मई यानी सिर्फ बीस दिनों में इस अस्पताल में 502 रोगियों को भर्ती किया गया, जिनमें से 298 ने दम तोड़ दिया। मौतों का ग्राफ बढ़ा तो इस आंकड़े को तोप दिया गया। बाकी अस्पतालों में कितनी मौतें हुई होंगी, यह बता पाना बेहद कठिन है।”

कोरोना के चलते दम तोड़ते लोगों और उनके तीमारदारों की बेबसी, लाचारी और अपनों को खोने के गम की अनगिनत कहानियां हैं। मोदी की काशी में शायद ही कोई ऐसा शख्स होगा, जिसके अपनों को धूर्त वायरस कोरोना ने शिकार न बनाया हो। चाहे वो किसी के परिजन हों, रिश्तेदार हों, मित्र या फिर पड़ोसी। पत्रकार आलोक तंज कसते हुए कहते हैं, “श्मशान घाटों पर लाशों को कंधा देने के लिए आंसू बहाते लोगों को 25-25 हजार रुपये खर्च करने पड़े। एंबुलेंस वालों ने मरीजों को तीन-चार किमी पहुंचाने के लिए 17 से 80 हजार रुपये तक वसूले। ऑक्सीजन सिलेंडर तीन-तीन हजार रुपये में बेचे गए। पीएम नरेंद्र मोदी की काशी का क्या यही है बनारस मॉडल? यह तो लूट का मॉडल है। कोरोना के चलते जितनी दुश्वारियां बनारस वालों ने झेली, उतनी शायद ही किसी इलाके के लोगों ने झेली होंगी।”

बनारस में कोरोना का खौफनाक मंजर इस बार जैसा कभी नहीं दिखा था। पहली बार शमशान घाटों पर शवों को जलाने के लिए लाइन लगानी पड़ी। मौतों के आंकड़ों को छिपाने के लिए बनारस में आधा दर्जन श्मशान घाट बना दिए गए। इसके बावजूद अनगिनत लाशों को न कफन नसीब हुआ और जलाने के लिए लकड़ियां। गंगा में तैरती लाशें सरकार की नाकामियों की गवाह बनती रहीं।

व्यापारी नेता बदरुद्दीन अहमद कहते हैं, “कब्रिस्तानों की बात की जाए तो यहां करोना से मरने वालों के लिए उनके परिजनों को दो गज जमीन के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ी। कब्रिस्तानों में जगह कम पड़ गई। लाशों को दफनाने के लिए खुदाई करते-करते मजदूरों के हाथों में छाले पड़ गए हैं।”

झूठे सब्ज़बाग़ दिखा रही सरकार

कोरोना की दूसरी लहर में बनारस में न दवा, न ऑक्सीजन, न अस्पतालों में बेड और न इलाज करने वाले विशेषज्ञ डॉक्टर कहीं दिखे। अस्पतालों में बेड ढूंढने के लिए आपाधापी और आखिर में श्मशानों और कब्रिस्तानों में जगह के लिए ठेलाठेली।

बनारस में पहले मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट पर शव जलाए जाते थे। मौतों का ग्राफ बढ़ा तो लोगों को लाचारी में वरुणा-गंगा के संगम तट सराय मोहाना में अंतिम संस्कार करना पड़ा। सामने घाट, रामनगर, रामेश्वर और शहंशाहपुर के पास शीतला माता मंदिर के समीप गंगा के तीरे लोगों को लाशें जलानी पड़ी।

अराजीलाइन इलाके के पत्रकार सोनू दुबे बताते हैं, “हमने शीतला घाट पर शव जलाने के दौरान रोते हुए पहली बार किसी डोम राजा को देखा। कितना भयावह और दर्दनाक मंजर था वो।”

बनारस शहर में ऐसा दर्दनाक मंजर अब से पहले कभी किसी ने नहीं देखा गया था। हरिश्चंद्रघाट पर मजबूरी में लोगों ऊपरी चबूतरों पर भी लाशें जलाने के लिए लोगों को विवश होना पड़ा। इस घाट से लगायत बंगालीटोला, अस्सी और लंका तक के लोग अब भी दहशत में हैं। लाशों को जलाने के लिए लकड़ियों की भारी किल्लत बरकरार है। यहां अब भी इलेक्ट्रिक शवदाह गृह पर रोजाना लाइनें लगानी पड़ रही हैं।”

हेल्थ महकमें के आंकड़ों पर यकीन किया जाए तो एक जून तक बनारस में कोरोना से मरने वालों की तादाद सिर्फ 765 रही। जबकि पंडित राजन मिश्र अस्थायी कोविड अस्पताल में महज बीस दिन में 298 लोगों ने दम तोड़ दिया।

हैरत की बात यह है कि बीएचयू के अस्पतालों में मरने वालों का आंकड़ा स्वास्थ्य महकमा अपने खाते में नहीं जोड़ रहा है। दीगर बात है कि ज्यादातर मौतें बीएचयू के अस्पतालों में हुई हैं। बीएचयू प्रशासन बीमार लोगों के ठीक होने का का ब्योरा तो देता है, लेकिन मरने वालों का नहीं।

उधर, वाराणसी प्रशासन या स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी हर दिन जो आंकड़े जारी कर रहे हैं, वह श्मशान घाटों पर होने वाले दाह संस्कारों और अस्पतालों में होने वाली मौतों से कहीं से मेल ही नहीं खाते। आंकड़ों में जमीन और आसमान का फर्क है।

एक अखबार के लिए बीएचयू को कवर करने वाले पत्रकार विजय सिंह कहते हैं, “सरकार ने रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (डीआरडीओ) के माध्यम से एक हजार बेड का अस्पताल बनाने का ऐलान किया। बना तो सिर्फ 750 बेड। इस अस्पताल का जिम्मा विशेषज्ञ चिकित्सकों को सौंपा जाना था, लेकिन रेजिडेंट और एसोसिएट डाक्टरों के अलावा पैरा मेडिकल स्टाफ के हवाले कर दिया गया। यही हाल बीएचयू के ट्रामा सेंटर का रहा। बनारस के लोग अब बीएचयू के किसी भी अस्पताल में भर्ती होने से डरते हैं। शायद लोगों को लगता है कि यहां कोरोना मरीजों के जीने की गारंटी कतई नहीं होती। जो बच गया वो खुद के रहम से।”

“भगवान बचाए ऐसे मॉडल से”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में शहर में कुल 88 घाट हैं। ज्यादातर घाटों पर ध्यान, स्नान और पूजा-पाठ होता है। गंगा में इतनी लाशें मिलीं कि लोग गंगा जल से आचमन करना तक भूल गए। बनारस में पहले संत-महात्माओं और सांप काटे लोगों को ही जलसमाधि दी जाती थी, लेकिन पहली बार लाचारी में लोगों को जहां-तहां गंगा में लाशें फेंकनी पड़ी।

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, “कोरोना की आंधी चली तो इलाज करने के बजाय सरकार ने नारा लगाना शुरू कर दिया- “जहां बीमार-वहीं उपचार”। लोगों को पैरासीटामाल जैसी मामूली दवा तक नसीब नहीं हो सकी। जनता के गुस्से पर मरहम लगाने के लिए बीएचयू में अस्थायी अस्पताल तब खोला गया जब बड़ी संख्या में जिंदगियों को कोरोना लील गया। हड़बड़ी में अस्पताल भी बना तो प्रशासन डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ का इंतजाम नहीं कर सका। हाल यह है कि अभी भी पंडित राजन मिश्र कोविड अस्पताल में मरीजों की देखभाल ठीक ढंग से नहीं हो रही है। जो भर्ती हुए उनमें आधे मर गए। जो बचे वो अपनी किस्मत से।”

पत्रकार प्रदीप यह भी कहते हैं, “कोविड से बचाव के लिए जब काम करना था तब दुनिया के मंचों पर 56 इंच का सीना चौड़ा करके दिखाया जा रहा था। कोरोना का मजाक उड़ाया जा रहा था। बनारस में बीमारों की संख्या लाख के पार पहुंच गई, तब हुक्मरानों की नींद टूटी। इस शहर में कोई घर नहीं रहा होगा, जो अपनों को न खोया हो। बनारस मॉडल की बात करना तो मृतकों के परिजनों के दर्द और घावों पर नमक छिड़कने जैसा है। ऑक्सीजन, शव जलाने के लिए लकड़ी, एंबुलेंस और कंधा देने के लिए दर-दर भटकते लोगों के हुजूम को क्या बनारस मॉडल कहा जा सकता है? अगर यह देश का आदर्श मॉडल है तो भगवान बचाएं ऐसे मॉडल से।”

मोदी सरकार के प्रचार-तंत्र पर प्रहार करते हुए बनारस के एमएलसी शतरुद्र प्रकाश कहते हैं, “पब्लिक की सोच को भोथरा करने के लिए सरकार झूठे नारे गढ़ती है। चाहे वो बनारस मॉडल का नारा हो या फिर जहां बीमार-वहीं उपचार का। इसका मतलब तो यह हुआ कि अस्पताल में जगह नहीं और वहां मत जाओ। आयुष्मान भारत योजना दम तोड़ चुकी है। गोल्डेन कार्ड का अता-पता नहीं। हमें तो यही लगता है कि मोदी जी मोक्ष की नगरी में लोगों को मुक्ति दिलाने में जुटे हुए हैं। काशी की तमाम विभूतियां बेचारा बनकर रह गई हैं। दुनिया के प्राख्यात सुगम संगीत के गायक पंडित छन्नूलाल मिश्र की पत्नी और बेटी इलाज में घोर लापरवाही के चलते दुनियां से रुखसत हो गईं। हो हल्ला हुआ तो जांच बैठी और बाद में वो घपले की शिकार हो गई। सीएम योगी आदित्यानाथ बनारस आए और वो भी छन्नूलाल के जख्मों पर संवेदनाओं का मरहम लगाकर लौट गए। छन्नू लाल की बेटी के साथ न जाने कितने लोगों की मौतें हुईं, उन्हें तो सरकार की संवेदनाओं के स्वर भी नसीब नहीं हुए।”

बनारस में पंचायत चुनाव के एक दिन पहले मोदी ने पश्चिम बंगाल चुनावों में अपनी व्यस्तता के बावजूद वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बनारस हाल लिया था और हेल्पलाइन बनाने का निर्देश दिया था। मोदी के आदेश पर उनके संसदीय कार्यालय में एक हेल्पलाइन नंबर 0542-2314000, 9415914000 की भी शुरुआत की गई, जहां लोग अस्पताल, बेड, ऑक्सीजन, एम्बुलेंस संबंधी मदद ले सकें। लेकिन ये हेल्पलाइन भी सिर्फ ढोंग साबित हुई। बनारस में पहले आरटीपीसीआर की रिपोर्ट चौबीस घंटे में आ जाती थी। कोरोना का वेब चला तो मरीजों के सेंपल के नतीजे अपडेट करने बंद कर दिए गए। कोरोना पीड़ितों को रिपोर्ट छह-सात दिनों में मिलने लगीं। कुछ को तो जांच रिपोर्ट तब मिली जब वो चंगा होकर घर लौट गए।

बनारस में राकेश श्रीवास्तव की पत्नी की बीते 15 अप्रैल को कोरोना से मौत हो गई। पिछले साल ही उनके इकलौते बेटे की इसी बीमारी से मौत हुए थी। मदद नहीं मिली तो राकेश श्रीवास्तव के पिता भी चल बसे। घर में अब सिर्फ वो हैं और उनकी एक छोटी सी बेटी।  राकेश कहते हैं, “अगर बनारस में कोरोना इलाज का कोई मॉडल रहा होता तो महामारी हमें जीवन भर के लिए दर्द देकर नहीं जाती। दुख इस बात का है कि उन्हें कोरोना की जांच रिपोर्ट तब मिली तब उनकी दुनिया उजड़ गई। रिपोर्ट आने के बावजूद हमें नहीं दी गई। अब बहाने गढ़े जा रहे हैं।”

बनारस की आरजे मनीषा सिंह के पिता नवीन प्रकाश सिंह (60) को शहर के एक अस्पताल में तब भर्ती किया गया जब बनारस की समूची मीड़िया ने ज़ोर लगा दिया। ऑक्सीजन और रेमेडसिवर न मिल पाने के कारण इनकी हालत गंभीर हो गई। बताती हैं, “पापा की हालत गंभीर हो रही थी और और डॉक्टर कोरोना रिपोर्ट के बिना अस्पताल में भर्ती नहीं कर रहे थे। उन्हें देखने तक के लिए तैयार नहीं थे। अगर मेरे पापा छह दिन पहले ही अस्पताल में भर्ती हो गए होते तो उनकी हालत इतनी खराब नहीं हुई होती।"

भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष हाजी अनवर अंसारी की भाभी की विगत 17 अप्रैल 2021 को कोविड से मौत हो गई। कोविडकाल में बढ़-चढ़कर जनता की सेवा करने पर पीएम नरेंद्र मोदी ने नौ जुलाई 2020 को वर्चुअल संवाद में हाजी अनवर की तारीफों के पुल बांधे थे। हजारों लोगों को मदद करने वाले हाजी अनवर इस, इस बार अपने परिजन की मदद नहीं कर सके। सीएमओ, डीएम, और भाजपा के सभी नेताओं को फोन किया, पर इन्हें भी बनारस मॉडल का एहसास तक नहीं हुआ।

बनारस मॉडल मतलब…

पिछले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधा मुकाबला करने वाली सपा नेत्री शालिनी यादव पीएम के बनारस मॉडल पर तंज कसती हैं। कहती हैं, “अब हम मुर्दों के नकली शहर में रहते हैं। न नया वाला बनारस है, न पुराना वाला। बनारस मॉडल का मतलब महादेव का मॉडल। चाहे कोई जिंदा रहे या मर जाए। पारंपरिक तरीके से अस्थियों का अंतिम संस्कार हो या फिर मजबूरी में गंगा में बहा दी जाएं। लाकडाउन के दौर में ईद भी आई, पर कपड़े भी नहीं मिले। धड़ल्ले से बिके तो सिर्फ कफन और मनमाने दाम पर लकड़ियां व मौत का सामान।”

बनारस के पत्रकार-लेखक सुरेश प्रताप सिंह कहते हैं,  “बनारस में कुतर्कों से कोरोना को पराजित किया जा रहा है। यह महामारी तो अभी भी घरजमाई बनी बैठी है। कब फुंफकार मारने लगे, पता ही नहीं चलेगा। बनारस में पहले गुजरात का मॉडल प्रचारित किया गया। फिर जापान के क्योटो मॉडल का राग अलापा गया और अब बनारस मॉडल का। बनारस मॉडल के चलते नहीं, ज्यादातर लोगों के शरीर में कोरोना से लड़ने वाली एंटी बाडीज बन गई है, इसलिए बीमारी थोड़ी थमी है। झूठी शब्दावलियां, जुमलेबाजी और ढोंग भरे नारे गढ़ने से कोरोना जैसी खतरनाक बीमारी नहीं भगाई जा सकती।”

बनारस में कोविड वेब में जिन जिस मुद्दे पर सरकार की सर्वाधिक छीछालेदर हुई, उसमें बनारस के फनकार छन्नूलाल मिश्र की पत्नी मनोरमा मिश्र और बेटी संगीता की एक हफ्ते के अंतराल पर मौत का मामला। पिछले चुनाव में श्री मिश्र पीएम नरेंद्र मोदी के प्रस्तावक थे। इन्हें आज तक न्याय नहीं मिला। जिस निजी अस्पताल में इनकी बेटी की मौत हुई उसे अफसरों ने क्लीन चिट दे दी है। बनारस घराने के सिद्ध गायक कलाकार राजन मिश्र की मौत पर पैबंद लगाने के लिए सरकार ने बीएचयू के एमपी थिएटर स्पोर्ट्स मैदान में खेल सुविधाओं को उजाड़कर उनके नाम से अस्थायी अस्पताल खोला। जबकि बीएचयू में आई हास्पिटल और बोन मैरो ट्रांसप्लांट रिसर्च सेंटर की इमारतें खाली पड़ी हुई हैं।

बनारस मॉडल दिखाने के लिए एमपी थिएटर मैदान की हरियाली तहस-नहस कर दी गई। इस मैदान की लेबलिंग कराने पर सरकार के करोड़े रुपये खर्च हुए थे। बीपीएड और एमपीएड की गतिविधियां इसी मैदान से संचालित होती थीं। कबड्डी ग्राउंड, इनडोर स्टेडियम, बास्केटबाल, टेनिस कोर्ट, एथलीट मैदान, फुटबाल कोर्ट, हाकी मैदान सब तहस नहस हो गया है। यहां पर बीएचयू की लड़कियों को खेलने के लिए साई सेंटर खोला गया था।

पत्रकार विजय कहते हैं, “एमपी ग्राउंड की तरफ़ अब कोई जाने की हिमाकत नहीं कर सकता। यहां पहले बीएचयू के एक हजार और आसपास के गांवों के करीब पांच सौ खिलाड़ी विभिन्न खेलों का अभ्यास करने यहां पहुंचते थे। बीएचयू के पास पर्याप्त भवन होते हुए भी कोरोना के नाम पर शानदार एमपी ग्राउंड को तहस-नहस कर देना उचित नहीं है। अगर यह सब बनारस मॉडल दिखाने के लिए किया गया हो तो यह नौटंकी बंद होनी चाहिए। अस्थायी अस्पताल का हाल भी अजब है, जहां कोरोना मरीजों के जिंदा बचने की उम्मीद बहुत कम होती।”

बनारस के जाने-माने एक्टिविस्ट डॉ. लेनिन रघुवंशी कहते हैं, “दवा, डॉक्टर, अस्पताल और ऑक्सीजन के लिए दर-दर भटकते बदहाल मरीजों को देखकर रुला देने वाला सीन अगर आदर्श है और कोई मॉडल है तो भगवान बचाए ऐसे मॉडल से। दुनिया भर के मुल्कों ने आबादी से तीन गुना अधिक कोविड इंजेक्शन बनवाकर रख लिया है। अपने यहां टीकाकरण अभियान कछुआ रफ्तार से चल रहा है। जोखिम वाली 70 फीसदी आबादी को अब तक कोविड का टीका लग जाना चाहिए था, लेकिन यह आंकड़ा अभी दूर की कौड़ी है। देश में करीब दस हजार बच्चे महामारी में अनाथ हो गए हैं, लेकिन इनके लिए सरकारों ने भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा का कोई इंतजाम नहीं किया है। जहां तक बनारस मॉडल की बात है तो कोरोना के संकट काल के दौर में सरकार को ढूंढना मुश्किल हो गया था। हमें लगता है कि सरकार शायद नए चुनावी नारे गढ़ने चली गई थी। वो नारे जिससे कोरोना से मारे गए लोगों के परिजनों के जख्मों को सहलाया जा सके।”

इसे उम्मीद कहें या लालीपॉप?

बनारस के सीएमओ डॉ. वीबी सिंह दावा करते हैं कि बनारस में पांच माह में 31 मई तक 5.18 लाख लोगों को कोविड के इंजेक्शन लगाए जा चुके हैं। जबकि बनारस शहर (देहात को छोड़कर) की आबादी 35 लाख से ज्यादा है। इनका कहना है कि किसी अस्पताल में कोरोना के लिए बेड का कहीं अभाव नहीं है। ट्रेस, टेस्ट और ट्रीट से संक्रमण की चेन को तोड़ दिया गया है। अब दहाई में मरीज आ रहे हैं। डॉ. सिंह यह भी दावा करते हैं कि तीसरी लहर रोकने के लिए किलेबंदी की जा रही है।

हाल यह ही पीएम केयर फंड से बनारस में बड़ी संख्या में वेंटिलेटर भेजे गए। प्रशासन ने बीएचयू के ट्रामा सेंटर में लेवल-तीन के मरीजों के उपचार के लिए सबसे पहले 27 वेंटिलेटर्स भेजे, जिनमें से एक हफ्ते में ही बीस वेंटिलेटरों ने काम करना ही बंद कर दिया। ट्रामा सेंटर के इंचार्ज प्रोफेसर एसके गुप्ता कहते हैं कि बड़ी संख्या में वेंटिलेटर्स के खराब होने का ब्योरा जिला प्रशासन और कंपनी को दिया जा चुका है। बड़ा सवाल यह है कि प्रशासन ने आखिर कैसा वेंटिलेटर्स परचेज किया था जो चंद दिनों में ही काम करना बंद कर दिया?

ट्रामा सेंटर के चिकित्सक एक हफ्ते से कंपनी के इंजीनियरों की बाट जोह रहे हैं और वेंटिलेटर्स की कमी के चलते गंभीर रोगी दम तोड़ते जा रहे हैं।

दिलचस्प बात यह है कि कोरोनाकाल में प्रशासन ने उन दागदार निजी अस्पतालों को भी इलाज करने की पूरी आजादी दे दी, जिन्होंने पिछले साल मरीजों और उनके तीमारदारों से जमकर लूट-खसोट की थी। यही नहीं, जिन अस्पतालों को कोविड हास्पिटल बनाने का अनुज्ञा पत्र जारी किया गया था उनमें ज्यादातर के पास प्रदूषण नियंत्रण और फायर ब्रिगेड विभाग की एनओसी (अनुज्ञा प्रमाणपत्र) तक नहीं था।

बनारस के सीएमओ डॉ. वीबी सिंह ने पिछले साल 16 अप्रैल को अखबारों में अधिसूचना प्रकाशित कराई थी, लेकिन ज्यादातर निजी अस्पतालों ने एनओसी लेने की जहमत नहीं उठाई। बाद में बनारस के जाने माने आरटाईआई एक्टिविस्ट संजय सिंह ने मनमाने ढंग से अस्पतालों का संचालन करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के लिए पिछले साल 15 दिसंबर 2020 को हाईकोर्ट में याचिका (संख्या-1650) दायर की। इनके अधिवक्ता धनंजय सिंह कहते हैं कि कोरोना के चलते कोर्ट बंद होने की वजह से सुनवाई नहीं हो पा रही है। जब भी होगी, मनमानी करने वाले बनारस के निजी अस्पतालों को बंद करना ही होगा।

बनारस में निजी अस्पतालों की बात छोड़ दें तो सरकारी अस्पतालों का हाल भी बुरा है। बीएचयू के सुपर स्पेशियलिटी ब्लाक के बाहर खुले में कई दिनों से पीपीई किट के फेंके जाने का मामला स्थानीय अखबारों की सुर्खियां बना हुआ है। बनारस के पांडेयपुर में स्थित जिला अस्पताल के स्नानागार को ही कूड़ाघर बना दिया गया है। कुछ इसी तरह का सीन मंडलीय अस्पताल कबीरचौरा में भी देखने को मिल रहा है।

उदासी दे गया कोरोना

बनारस में मई में सात हजार शादियां टाली जा चुकी है। शहर के करीब चार सौ मैरिज लॉन में सन्नाटा पसरा हुआ है। ज्यादातर शादियां इसलिए टाल दी गईं कि परिवार का कोई न कोई सदस्य कोरोना का शिकार हुआ। आशापुर इलाके में एक मिश्रा परिवार के बेटी की शादी की तैयारियां चल रही थी, लेकिन पिता की सांसें थम गई। खुशियां मातम में बदल गईं। जिस दिन बेटे की शादी थी, उस दिन पिता की तेरहवीं हुई। वेडिंग कारोबार को अब तक करीब एक अरब का झटका लगा है।

टेंट व्यवसायी एसोसिएशन के प्रवक्ता रोहित पाठक कहते हैं कि पिछले साल के नुकसान के भरपाई की उम्मीद भरभराकर ढह गई। इस साल हालात और भी खराब हो गए। शहर में सिर्फ सात फेरों पर ही कोरोना की मार नहीं पड़ी, धार्मिक गतिविधियां भी घरों में सिमट गई हैं। घंटा-घड़ियाल, शंख और भक्तों की जयकारों से गूंजने वाले मंदिरों में सन्नाटा पसरा हुआ है।

हेरत-हेरत हे सखी...!

जिस बनारस मॉडल का गुणगान करते हुए मोदी सरकार नहीं अघा रही है, उस पर वाराणसी के साहित्यकार भी जमकर चुटकियां ले रहे हैं। सरकार की बखिया उधेड़ रहे हैं। जाने-माने ललित निबंधकार एवं साहित्यकार डॉ. उमेश प्रसाद सिंह लिखते हैं, “मैं कबीर नहीं हूं। मगर मैं कुछ खोज रहा हूं। मैं बहुत ही मामूली चीज को अपने आसपास के जन-जीवन में, अपनी समाज-व्यवस्था में ढूंढ़ रहा हूं। जाने कब से हलकान हूं। कहीं वह मिल नहीं पा रही है। मैं अपने देश के जनतंत्र में जन को खोज रहा हूं। जन कहां है? जन के लिए क्या है....?

(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं। “बनारस लाकडाउन” एवं “बतकही बनारस की”  आपके व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह “मैं इश्क लिखूं, तुम बनारस समझना” जल्द ही प्रकाशित होने जा रहा है।)  

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