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टीका रंगभेद के बाद अब टीका नवउपनिवेशवाद?

कोविड-19 के ख़िलाफ़ दुनिया के टीकाकरण का तक़ाज़ा है कि टीकों के उत्पादन को दुनिया भर में फैला दिया जाए। मिसाल के तौर पर अफ्रीका, जिसकी आबादी 130 करोड़ की है, अपनी ज़रूरत के 99 फीसद टीकों का आयात करता है।
टीका

प्रधानमंत्री ने 7 जून के अपने भाषण में आंशिक रूप से अपनी उस कोविड-19 टीका नीति को वापस ले लिया है, जिसकी व्यापक पैमाने पर आलोचना हो रही थी। बहरहाल, यहां हम इसी की चर्चा करेंगे कि किस तरह उन्होंने भारत के टीकाकरण के इतिहास का झूठा विवरण दिया है, कि भारत पहले अपनी जनता का टीकाकरण ही नहीं कर पाया था और वह घरेलू स्तर पर टीके बना ही नहीं पाता था। और मिस्टर मोदी के अनुसार, अब ही कहीं जाकर भारत, घरेलू स्तर पर दो टीकों का उत्पादन शुरू कर पाया है। इस झूठी प्रस्तुति के जरिए, वह टीके के मामले में अपनी सरकार की घनघोर विफलता को ढांपने की कोशिश कर रहे थे, जिसके चलते भारत में दुनिया की सबसे ज्यादा टीका उत्पादन क्षमता मौजूद होने के बावजूद, देश में टीके के उत्पादन को बढ़ाया नहीं जा सका था।

सच्चाई यह है कि भारत, सबसे पहले घरेलू तौर पर टीकों का उत्पादन शुरू करने वाले चंद देशों में से एक है। इस काम में मुंबई के हॉफकीन इंस्टीट्यूट, कसौली के सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट, कुनूर के पॉस्तर इंस्टीट्यूट, चेन्नै की बीसीजी वैक्सीन लैबोरेटरी, आदि सार्वजनिक संस्थाओं ने कुंजीभूत  भूमिका (key role) अदा की थी। यही वह आधार था जिसके बल पर भारत ने छोटी चेचक तथा पोलियो के उन्मूलन का अपना कार्यक्रम और सार्वभौम इम्यूनाइजेशन कार्यक्रम, सफलता के साथ चलाया है। अपने इसी टीका विकास आधार और 1970 के भारत के पेटेंट कानून के योग के सहारे, भारत ने जेनरिक दवाओं तथा टीकों के वैश्विक दवाखाने के रूप में खुद को स्थापित किया है। भारत, दुनिया भर में टीकों के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ताओं में से एक है और उसकी यह हैसियत 2014 के चुनाव में मोदी तथा भाजपा के जीतने के काफी पहले से है।

दूसरा मुद्दा, आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के उनके दावे का है, जो इससे पहले तक स्वतंत्रता के बाद से चले आते, स्वनिर्भर भारत के लक्ष्य से अलग है। मोदी की योजना में आत्मनिर्भर का अर्थ भारत में चीजों का उत्पादन करना है, जिसका घरेलू पैमाने पर ज्ञान या क्षमताओं का विकास करने से कुछ लेना-देना नहीं है। पहले जो स्वनिर्भरता या आत्मनिर्भरता की संकल्पना थी, उसमें सिर्फ स्थानीय स्तर पर उत्पादन पर ही ध्यान नहीं था बल्कि उसमें आवश्यक ज्ञान का विकास भी शामिल था, जिसके बिना हम परनिर्भर ही बने रहते।

लेकिन, मोदी के अनुसार भारत के आत्मनिर्भर होने के लिए तो इतना ही काफी है कि चीजों का उत्पादन यहां पर हो, फिर चाहे इस उत्पादन की प्रौद्योगिकी बाहर से उधार ही ली गयी हो, वह चाहे रफाल विमान हो या कोविड-19 का टीका। इसीलिए, मोदी बार-बार इसका दावा करते हैं कि सीरम इंस्टीट्यूट द्वारा निर्मित ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका का टीका, भारत के दो स्वदेशी टीकों में से एक है, जबकि इस टीके का बौद्धिक संपदा अधिकार ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका के पास है, न कि भारत के पास।

टीकों के उत्पादन पर बौद्धिक संपदा अधिकार को लेकर लड़ाई, सिर्फ पेटेंटों पर लड़ाई नहीं है बल्कि टीके के उत्पादन के लिए जरूरी तकनीकी और व्यावहारिक ज्ञान या कौशल (know-how) तक पहुंच को लेकर भी लड़ाई है। इस पहुंच के बिना, टीका प्रौद्योगिकी का नियंत्रण बड़ी दवा कंपनियों के ही हाथों में रहेगा और तब ये कंपनियां ही तय कर रही होंगी कि सीरम इंस्टीट्यूट जैसी कंपनियों को अपने टीकों के उत्पादन के लाइसेंस दें या नहीं या कितने अर्से के लिए ऐसे लाइसेंस दें। और ऐसे उत्पादकों से तथा उपभोक्ताओं से कितने इजारेदाराना मुनाफे वसूल कर लें। टीके का विकास करने वाली कंपनियां, संबंधित ‘ज्ञान’ पर अपनी मिल्कियत के बल पर ऐसा कर रही होंगी।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, सिर्फ 50 अरब डालर में 2022 के मध्य तक सारी दुनिया का टीकाकरण करना और महामारी को खत्म करना संभव है। ऐसा करने में अमीर देशों के भी हित दांव पर हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की गणनाएं (ए प्रपोजल टु एंड द कोविड-19 पेंडेमिक, मई 2021) दिखाती हैं कि अगर महामारी जारी रहती है तो, 2025 तक पूरी दुनिया का 90 खरब डालर का नुकसान हो जाएगा यानी महामारी को खत्म करने के लिए जरूरी राशि से 200 गुना नुकसान।

वर्तमान आंकड़ों के अनुसार, अफ्रीका में 1 फीसद से भी कम लोगों का पूरी तरह से टीकाकरण हो पाया है और एशिया में 2.5 फीसद लोगों का, जबकि अमरीका तथा यूके के करीब 42 फीसद का। इस रफ्तार से अमीर देश तो अगले तीन से छ: महीने में अपनी पूरी आबादी का टीकाकरण कर लेंगे, जबकि बाकी दुनिया को इसी काम में तीन साल और लग जाएंगे। जी-7 ने हाल ही में जो यह घोषणा की है कि वह 2022 के मध्य तक इन देशों के लिए टीके की 100 करोड़ खुराकें मुहैया कराएगा, बिल्कुल अपर्याप्त है और विश्व व्यापार संगठन के आकलन के हिसाब से दुनिया को जितनी खुराकों की जरूरत होगी, उसका आठवां हिस्सा भर है।

यह स्पष्ट है कि जब तक अनेकानेक देशों में टीके के उत्पादन में तेजी नहीं लायी जाएगी, टीकों का उत्पादन जरूरत के मुकाबले बहुत कम बना रहेगा और महामारी कहीं ज्यादा अर्से तक चलती रहेगी। लेकिन, सवाल यह है कि अमरीका के नेतृत्व में धनी देश यह रास्ता क्यों नहीं अपना रहे हैं, जिस पर चलकर महामारी को कहीं जल्दी खत्म किया जा सकता है?

इस सवाल के जवाब के लिए हमें, टीकों के उत्पादन में बढ़ोतरी के लिए मौजूद विकल्पों पर नजर डालनी होगी। कोविड-19 के खिलाफ दुनिया के टीकाकरण का तकाजा है कि टीकों के उत्पादन को दुनिया भर में फैला दिया जाए। मिसाल के तौर पर अफ्रीका, जिसकी आबादी 130 करोड़ की है, अपनी जरूरत के 99 फीसद टीकों का आयात करता है। यह स्थिति चलती नहीं रह सकती है। जब तक टीका उत्पादन सुविधाओं की विशाल संख्या उपलब्ध नहीं होगी, सारी दुनिया के लिए टीकों की आपूर्ति अमरीका तथा भारत जैसे कुछ गिने-चुने बड़े टीका उत्पादकों के ही हाथों में रहेगी, जिनके घरेलू तकाजे उनकी अंतर्राष्ट्रीय जिम्मेदारियों पर भारी पड़ते रहेंगे।

2020 की मई में संपन्न 73वीं विश्व स्वास्थ्य एसेंबली ने, कोविड-19 के खतरे का सामना करने के लिए टीकों, दवाओं तथा जांच किटों के उत्पादन की प्रौद्योगिकी को साझा करने पर एक प्रस्ताव स्वीकार किया था। अकेले अमरीका ने ही इस प्रस्ताव का विरोध किया था। इस प्रस्ताव का आशय था कि टीकों, दवाओं तथा जांच किटों पर तमाम बौद्धिक संपदा अधिकारों को निलंबित किया जाए और दुनिया भर से संबंधित प्रौद्योगिकी तथा ज्ञान का साझा किया जाए ताकि स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सके।

जाहिर है कि बड़ी दवा कंपनियों के लिए तो ये टीके, दवाएं तथा जांच किट, एक नया वैश्विक बाजार ही मुहैया कराते हैं। इसलिए, कोविड-19 को जल्दी खत्म करने के इस रास्ते को अपनाने का उन्होंने डटकर विरोध किया। इसमें उन्हें धनी देशों की मदद हासिल थी और बिल गेट्स की भी मदद हासिल थी। याद रहे कि बिल गेट्स ने कंप्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम, विंडोज़ पर इजारेदाराना नियंत्रण से होने वाली वसूली के बल पर भारी दौलत जमा की है और विश्व स्वास्थ्य के कारोबार का बड़ा खिलाड़ी बन गया है। बिल गेट्स, अन्य निजी फाउंडेशनों तथा बड़ी कंपनियों ने उक्त रास्ते की जगह, स्थानीय उत्पादन के लिए लाइसेंस के आधार पर टैक्नोलॉजी का हस्तांतरण करने, जबकि बौद्धिक संपदा अधिकार बड़ी दवा कंपनियों के हाथों में ही बनाए रखने, का ही समर्थन किया था।

इन दोनों रास्तों के बीच के अंतर को बहुत आसानी से समझा जा सकता है। पहले वाले में, संबंधित प्रौद्योगिकी तथा ज्ञान तक ऐसे सभी उत्पादकों की पहुंच होगी जो ये टीके या अन्य उत्पाद बनाने में समर्थ होंगे और यह उन्हें आत्मनिर्भर बनाएगा। दूसरे रास्ते के मामले में, चूंकि बौद्धिक संपदा अधिकार बड़ी दवा कंपनियों के ही हाथों में ही बना रहेगा, ये दवा कंपनियां ही कीमत से लेकर लाइसेंस की अवधि तक, सब कुछ तय कर रही होंगी। इतना ही नहीं, नो-हाऊ के उपलब्ध नहीं कराए जाने के चलते, इन उत्पादों के मामले में आगे का सारा विकास भी, दवा कंपनियों पर ही निर्भर रहेगा। यह वैसा ही अंतर है जैसा अंतर हम पहले के स्वनिर्भर भारत और अब के मोदी शैली के आत्मनिर्भर भारत के बीच देख रहे हैं।

सच्चाई यह है कि दूसरे देशों में चंद बड़ी कंपनियों को उत्पादन के लिए लाइसेंस देने का यही मॉडल तो, बाकी दुनिया में आत्मनिर्भरता तथा देसी उत्पादन को शिकस्त देने की, बड़ी पूंजी की रणनीति के केंद्र में है।

एड्स महामारी के दौरान बड़ी दवा कंपनियों ने, दक्षिण अफ्रीका पर मुकदमे लादने की कोशिश की थी क्योंकि वह भारत से एड्स की सस्ती, जेनरिक दवाएं, उनकी पेटेंटशुदा दवाओं के तीसवें हिस्से के बराबर कीमत पर ही, खरीद रहा था। और भारत में एड्स की दवाएं सस्ते दाम पर बनाना, भारत के पेटेंट कानूनों तथा उसकी घरेलू उत्पादन क्षमता के बल पर ही संभव हुआ था। इस पूरे विवाद में बड़ी दवा कंपनियों की दुनिया भर में बड़ी बदनामी हुई थी।

इस भारी बदनामी के प्रकरण से सीखकर, वे अब एक ऐसी नीति को आगे बढ़ाने में लगे रहे हैं, जिसके तहत उनके इजारेदाराना मुनाफों और संबंधित उत्पादों का गरीब जो दाम दे सकते हैं उनके बीच के अंतर को, अस्थायी तौर पर धनी देशों तथा परोपकारी संगठन द्वारा दी जाने वाली सहायता से, भरने की कोशिश की जाती है।

धनी देशों की सरकारों और विभिन्न परोपकारी संगठनों को भी, महामारी के दौरान इस ‘परमार्थ’ के लिए बड़ी दवा कंपनियों को पैसा देने में भी कोई खास दिक्कत नहीं होती है क्योंकि इस तरह वे तीसरी दुनिया में स्वनिर्भर टीका तथा दवा उद्योग को उभरने से भी तो रोक रहे होते हैं।

अमरीका, गरीब व मंझले आय वर्ग के देशों के लिए टीकों की आपूर्ति के केंद्र के रूप में भारत का इस्तेमाल करने में यकीन करता है। इसीलिए, बिल गेट्स और उसकी विभिन्न टीका संबंधी पहलों में, भारत के सीरम इंस्टीट्यूट को, जो कि टीकों की मात्रा के हिसाब से दुनिया का सबसे बड़ा टीका उत्पादक है, टीकों की आपूर्ति के लिए अपना मुख्य आधार बनाया गया है। अमीर देश, एमआरएनए तथा अन्य टीकों की अपनी आपूर्तियों को अपने तक ही सीमित रखना चाहते हैं। बाकी दुनिया की जरूरतों के लिए, विश्व स्वास्थ्य संगठन का परमार्थी मॉडल पर गढ़ा गया, कोवैक्स प्लेटफार्म है, जिसकी टैक्नोलॉजी बड़ी दवा कंपनियों के साथ बंधी हुई है और जिसके कुछ ही खास आपूर्तिकर्ता हैं।

जाहिर है कि इस व्यवस्था में बाकी दुनिया की जरूरतें, वास्तव में दुनिया की जरूरत से, बहुत धीमी रफ्तार से पूरी की जा जाने वाली थीं। लेकिन, यह नीति पूरी तरह से नाकाम साबित हुई क्योंकि अपनी अक्षमता के चलते मोदी सरकार, देश में टीका उत्पादन का तेजी से विस्तार करने में और महामारी की जबर्दस्त दूसरी लहर पर अंकुश लगाने में, पूरी तरह से विफल रही। इस विफलता का नतीजा यह हुआ कि भारत, कोवैक्स प्लेटफार्म के लिए अपनी वचनबद्धताएं पूरी करने से पीछे हट गया और 92 कम तथा मध्यम आय वाले देशों के लिए, टीके की अपूर्ति नहीं कर पाया।

एक और भी कारण हो सकता है कि बड़ी दवा कंपनियां इस महामारी का अंत होते देखना ही नहीं चाहती हों और उसे देशज या मुकामी होते देखना चाहती हों। वास्तव में दुनिया अब इसी रास्ते पर बढ़ रही है। चूंकि आबादी के विशाल हिस्से अब भी टीके से दूर बने हुए हैं, तथा ज़्यादा-और ज़्यादा लोग इस संक्रमण की चपेट में आते रह सकते हैं और सार्स-कोव-2 वायरस को रूपांतरण के लिए उपजाऊ ठिकाना मुहैया करा सकते हैं। इससे, वायरस की हमारी टीकों से संवर्धित प्रतिरोधकता को बेधने की सामार्थ्य बढ़ जाएगी। हमारे जैसे देशों के लिए यह एक बहुत भारी खतरा है क्योंकि इसका मुकाबला करने के लिए हमें आगे भी समय-समय पर लॉकडाउन, शारीरिक दूरी आदि से, बचाव का रास्ता अख्तियार करना पड़ रहा होगा और यह अनेकानेक आर्थिक गतिविधियों को छिन्न-भिन्न ही कर देगा। लेकिन, बड़ी दवा कंपनियों के लिए यह लंबे अर्से तक भारी कमाई का जरिया बना रहेगा क्योंकि हमें हर साल इसका सामना करने के लिए, बूस्टर डोज की जरूरत पड़ रही होगी।

एक और सवाल यह है कि अगर गरीब देशों की अर्थव्यवस्थाएं, अगले दो-तीन साल तक ऐसे ही अस्तव्यस्त बनी रहती हैं, जबकि अमीर देशों में वातावरण अपेक्षाकृत कोविड-19 मुक्त बना रहता है, तो देशों के बीच वैश्विक असमानताओं पर इसका क्या असर पड़ेगा?

इतना तो हम अब तक ही देख चुके हैं कि इस महामारी की मार जितनी दुनिया के गरीबों पर पड़ी है, दुनिया के अमीरों पर उससे काफी कम ही पड़ी है। वास्तव में इस महामारी के दौरान ही दुनिया के अमीरों ने अपनी संपदा में पूरे 40 खरब डालर की बढ़ोतरी भी दर्ज करायी है। तो क्या इसका अर्थ, अमीर और गरीब देशों के बीच की खाई का और चौड़ा हो जाना ही नहीं होगा?

महाआपदा पूंजीवाद की तरह, क्या यह महामारी पूंजीवाद के ही एक रूप का मामला नहीं होगा? अगर यह सच है तो क्या कोविड के टीके, नवउदारवाद को मजबूत करने के लिए गरीब देशों की अर्थव्यवस्थाओं को बलपूर्वक खुलवाने, का एक और हथियार ही नहीं बन रहे होंगे?

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