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रोज़गार पर आधिकारिक आंकड़े कहां हैं?

सरकार को आंकड़े जुटाने की मौजूदा कवायद का बारीकी से विश्लेषण करना होगा।  इसे तार्किक बनाना होगा और आंकड़े जुटाने से जुड़ी प्रशासनिक व्यवस्था को दुरुस्त भी करना होगा। 
रोज़गार

यह अच्छी खबर है कि लेबर ब्यूरो हर तिमाही किए जाने वाले अपने प्रतिष्ठान (कारोबारी कंपनियों, दफ्तरों, फैक्टरियों आदि ) आधारित रोजगार सर्वे को फिर से शुरू करेगा।

पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे यानी PLFS परिवारों के डेटा इकट्ठा करता है, लिहाजा प्रस्तावित तिमाही सर्वे प्रतिष्ठानों से आंक़ड़े इकट्ठा करने का काम करेगा। लेकिन बेहतर होगा कि अभी जो तमाम तरह के रोजगार और श्रम बाजार से जुड़े डेटाबेस हैं, उनकी समीक्षा की जाए और पता किया जाए कि गणनाओं में (स्टेस्स्टिक्स के लिहाज) में कहां दरारें हैं? क्या कमियां या खामियां हैं? तभी कोई नया सर्वे शुरू हो। वरना इसका कोई खास फायदा नहीं होने वाला।  

रोजगार के मौजूदा आंकड़े 

अभी रोजगार के आंकड़े कई स्रोतों से लिए जाते हैं। एम्पलॉयमेंट मार्केट इनफॉरमेशन ( EMI) और एम्पॉलयमेंट एक्सचेंज एक्ट 1959 ( रिक्तियों की अनिवार्य अधिसूचना के तहत) रोजगार के आंकड़े संगठित क्षेत्र से लिए जाते हैं। आर्थिक गणना (Economic Census ) के जरिये सरकार समय-समय (किसी निश्चित अंतराल में नहीं) पर परिवारों और प्रतिष्ठानों के आंकड़े जुटाती है। इस तरह यह अर्थव्यवस्था के संगठित और असंगठित क्षेत्र को कवर करती है लेकिन यह फसल उत्पादन, प्लांटेशन, लोक प्रशासन, रक्षा और अनिवार्य सामाजिक सुरक्षा जैसे सेगमेंट को छोड़ देती है। एक दशक में एक बार रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त का दफ्तर परिवारों में कामगारों की संख्या जैसे वैरिएबल्स के बारे में जानकारी जुटाता है। 

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस यानी NSSO अब तक हर पांच साल में रोजगार समेत कई परिवारों के कई वैरिएबल्स के सर्वे कराता आया है। इसके तहत वह रोजगार को ‘स्वरोजगार करने वालों ’, ‘नियमित मजदूरी पाने वाले’,  ‘वेतनभोगी’ और ‘कैजुअल वर्कर’ श्रेणी में रखता है। एनएसएसओ जो करता रहा है वही अब वार्षिक पीएलएफएस के जरिये होता है। 

अब उद्योगों का वार्षिक सर्वेक्षण यानी ASI  भी संगठित क्षेत्र के प्रतिष्ठनों में अलग-अलग वैरिएबल्स के तहत रोजगार समेत अन्य चीजों  की जानकारियां इकट्ठा करता है। असंगठित क्षेत्र में एनएसएसओ कभी-कभार सर्वे करता है। केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से बनाए गए कानूनों के तहत प्रशासनिक आंकड़े इकट्ठा किए जाते हैं। 

श्रम बाजार के तदर्थ और पूरक सर्वे 

2009 के वित्तीय संकट ने निश्चित तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था को गहरे प्रभावित किया है। लेबर ब्यूरो ने इसी साल QES शुरू किया । 2009 और 2015 के बीच यह पता करने के लिए 28 सर्वे किए गए कि अर्थव्यवस्था में सुस्ती का रोजगार पर क्या असर हुआ है? 2017 में इसने एक नई सीरीज शुरू की ताकि श्रम बाजार पर उच्च गुणवत्ता वाले आंकड़े सामने आ सकें। इसका मकसद श्रमिकों के कल्याण के लिए नई नीतियां लागू करना था। 

लेबर ब्यूरो का नई क्यूईएस सीरीज ( QES-LB) जुलाई-सितंबर 2017 से जुड़ी है। यह मार्च, 2018 में प्रकाशित हुई थी। यह सीरीज आठ कोर सेक्टरों- मैन्यूफैक्चरिंग, निर्माण (कंस्ट्रक्शन), ट्रेड (व्यापार), परिवहन (ट्रांसपोर्ट), एजुकेशन, हेल्थ, आवास, रेस्तरां और आईटी/बीपीओ पर आधारित थी। 2017 के सितंबर महीने से केंद्र सरकार रोजगार के आंकड़े जुटाने के लिए ईपीएफओ (EPFO) में हो रहे रजिस्ट्रेशन का इस्तेमाल  कर रही है। इससे पता लगाया जाता है कि औपचारिक सेक्टर में ( इसे पे-रोल डेटा भी कहा जाता है) कितना रोजगार पैदा हो रहा है। ईपीएफओ के मुताबिक, यह आंकड़ा उन कामगारों का होता है, जिनका इसमें रजिस्ट्रेशन होता है। यह उन कर्मचारियों का आंकड़ा होता है जो किसी निर्धारित महीने में अपना पहला नॉन-जीरो कंट्रीब्यूशन ईपीएफओ की ओर से चलाए जाने वाली पीएफ स्कीम में करते हैं। पे-रोल डेटा में उन कामगारों के भी आंकड़े होते हैं जो कर्मचारी राज्य बीमा यानी ESI स्कीम में योगदान देते हैं।

 इसके आंकड़ों को देखने से पता चला कि लेबर ब्यूरो के QES  की ओर से पेश आंकड़े ESI के आंकड़े से ज्यादा हैं। उदाहरण के लिए QES-LB ने दिखाया कि जुलाई-सितंबर, 2017 के दौरान 1.36 लाख नौकरियां (पिछली तिमाही की तुलना में ) पैदा की गईं। दूसरी ओर, पे-रोल डेटा ने दिखाया कि 2017 से  लेकर 2018 क बीच 35 लाख नौकरियां पैदा की गईं। हालांकि रोजगार सृजन की तुलना जिस अवधि में की जा रही थी वह समान नहीं थी लेकिन सरकार की ओर से इसका जश्न मनाया गया। रिपोर्ट दिखा रही थी कि औपचारिक (संगठित) क्षेत्र में ज्यादा रोजगार सृजन हुआ। 

चूंकि पे-रोल डेटा का इस्तेमाल रोजगार के मोर्चे पर खुशनुमा तस्वीर दिखाने के लिए किया गया था इसलिए यह एनडीए सरकार के लिए काफी काम का साबित हुआ क्योंकि साल में दो करोड़ रोजगार पैदा करने के वादा न निभा पाने के लिए यह लगातार आलोचना का शिकार हो रही है। इस सरकार ने पे-रोल डेटा के आंकड़ों को लपक लिया और QES-LB के आंकड़ों को किनारे कर दिया। हालांकि श्रम अर्थशास्त्रियों ने पे-रोल डेटा की कड़ी आलोचना की क्योंकि यह देश में रोजगार के मोर्चे की आंशिक तस्वीर ही पेश कर रहा था।  

आंकड़े इकट्ठा करने की नई पहल क्यों? 

यह गौर करने वाली बात है कि केंद्र सरकार ने अभी तक राष्ट्रीय रोजगार नीति नहीं बनाई है। भले ही इसने आईएलओ या आईएलओ के रोजगार समझौता, 1964 (c.122)  पर हस्ताक्षर कर दिया है। दरअसल संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास लक्ष्य 8 का मकसद टिकाऊ, समावेशी और सतत आर्थिक विकास को बढ़ावा देना और सभी के के लिए पूर्ण, उत्पादक और गरिमापूर्ण काम मुहैया कराना है। इसका मकसद अनौपचारिक रोजगार यानी असंगठित रोजगार को औपचारिक या संगठित रोजगार में तब्दील करना भी है। 

लेकिन इसके उलट हाल के दिनों मे बेरोजगारी बढ़ी है। 2016-17 के पीएलएफएस के मुताबिक बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर यानी 6.1 फीसदी पर पहुंचती दिखी जो बाद में 2018-19 में घट कर 5.8 फीसदी पर आ टिकी। कोविड-19 ने अर्थव्यवस्था को बुरी तरह तहस-नहस कर दिया है। इससे श्रम बाजार के स्थायित्व को काफी चोट पहुंची है। अर्थव्यवस्था के सभी साझीदार इस वक्त दम साधे कोविड -19 से पहले सामान्य दिनों के लौटने का इंतजार कर रहे हैं। 

हमें इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि कोविड से पहले भी बेरोजगारी की दर अपने ऐतिहासिक दर से ज्यादा थी। कोविड-19 के दौरान मीडिया और विद्वानों ने रोजगार और बेरोजगारी पर सीएमआईई के निरंतर आ रहे आंकड़ों पर भरोसा किया, भले ही इन आंकड़ों की अपनी सीमा है। इस साल अप्रैल में बेरोजगारी दर 24 फीसदी के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई, हालांकि बाद के महीनों में ये थोड़ी कम हुई। लेकिन फिर यह सात से आठ फीसदी के बीच जमी रही। हालांकि रोजगार दर ऊपर-नीचे होती रही लेकिन प्री-कोविड लेवल से नीचे ही रही। लॉकडाउन के दौरान पूरे देश ने प्रवासी कामगारों को बेरोजगार होकर बड़ी संख्या में घर लौटते देखा। प्रवासी मजदूर गलत वजहों से सुर्खियों में रहे। 

खबर है कि केंद्र ने प्रवासी कामगारों की मजदूरी और उनकी सामाजिक सुरक्षा से जुड़े पहलुओं का जायजा लेने के लिए तीन अलग-अलग सर्वे कराने का प्रस्ताव रखा है। इसके अलावा घरेलू कामगारों, वकीलों डॉक्टरों के सहायकों और रिसेप्शनिस्टों को भी इन सर्वे के दायरे में लाया जाएगा। हालांकि सरकार के इस प्रस्ताव पर कोई नई  खबर नहीं आई है। दरअसल असंगठित क्षेत्र में रोजगार से संबंधित जानकारियों का घोर अभाव है। उभरते हुए सर्विस सेक्टर के सेगमेंट्स में भी रोजगार के बारे में जानकारियों की कमी है। इसमें कोई शक नहीं सरकार पर रोजगार से जुड़ा डेटाबेस बनाने और मौजूदा डेटाबेस की कमियां दूर करने का भारी दबाव है। इसकी एक बड़ी वजह उभरते सेक्टरों को बारे में प्राइवेट एजेंसियों के डेटा पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता भी है। 

डेटा ब्लैकआउट 

रोजगार और प्रशिक्षण महानिदेशालय (The Directorate General of Employment and Training (DGE&T) ईएमआई ( Employment Market Information) के तहत तिमाही रोजगार समीक्षा, (Quarterly Employment Review), संगठित क्षेत्र में रोजगार के त्वरित आकलन (Quarterly Employment Review, Quick Estimates of Employment in the organised Sector (Quarterly) और वार्षिक रोजगार समीक्षा (Employment Review (Annual) के आंकड़े प्रकाशित करता है। संगठित क्षेत्र के आंकड़ों का यही एक मात्र स्त्रोत है। हालांकि रोजगार और प्रशिक्षण महानिदेशालय की ओर से हर साल प्रकाशित आंकड़ा आसानी से उपलब्ध नहीं है। न तो इसकी हार्ड कॉपी मिलती है न ही यह इसकी वेबसाइट पर मौजूद है। 

इकनॉमिक सर्वे इंडस्ट्री में सार्वजनिक और प्राइवेट सेक्टरों की ओर मुहैया कराए जाने वाले रोजगार के मैक्रो आंकड़े भी मुहैया कराते हैं। हालांकि आर्थिक सर्वे 2016-17 में 2012 के आंकड़े प्रकाशित करने के बाद यह परंपरा भी बंद हो गई। 2017-18 के आर्थिक सर्वे में भी 2012 का ही यही पुराना आंकड़ा दोहराया गया। हाल में 2019-20 का जो सर्वे आया था इसमें यह आंकड़ा नहीं था। 

क्या संगठित क्षेत्र में गिरते रोजगार की स्थिति को जाहिर न करने के लिए इस तरह का डेटा ब्लैकआउट करने का फैसला किया गया फिर प्रशासनिक डेटा मशीनरी ही फेल हो गई। या इसके लिए दोनों वजह जिम्मेदार है। ( मैंने कहीं इसे दिखाया भी है। बहरहाल सरकार एजेंसियां जिस तरह से पीएलएफसी 2017-18 को दबाने की कोशिश कर रही है उसने डेटा ब्लैकआउट को लेकर गंभीर चिंता पैदा की है।)

सर्विस सेक्टर के लिए प्रशासनिक आंकड़ा 

दुकान और प्रतिष्ठान कानून The Shops and Establishment Act (Shops Act) एक ऐसा सरकारी कानून है जिसके दायरे में काफी चीजें आ जाती हैं। इनमें विज्ञापन, कमीशनिंग, फॉरवर्डिंग या कॉमर्शियल कामकाज, बैंक, ब्रोकरेज जैसे कारोबार से जुड़े वाणिज्यिक प्रतिष्ठान कवर होते हैं। इसके साथ ही व्यापार या सेवा प्रदान करने वाली ‘’दुकानें’’ और ग्राहकों को दफ्तर, स्टोर रूम, गोदाम, रेस्तरां, होटल, थियेटर जैसी चीजें मुहैया कराने वाले भी इसके दायरे में आते हैं। शॉप्स एक्ट के तहत रजिस्टर्ड प्रतिष्ठानों से जुड़े आंकड़े इकट्ठा करना और उनका प्रसार राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन प्रशासनिक रिपोर्ट के तौर पर लेबर ब्यूरो की ओर से प्रकाशित करने के अलावा किसी भी सांख्यिकी विभाग (आंकड़े जुटाने वाले) की ओर से इसे प्रकाशित नहीं किया जाता। 

लेबर ब्यूरो की ओर से प्रकाशित रिपोर्ट का दायरा भी सीमित होता है और यह अलग-अलग आंकड़े नहीं देता है ( जैसे कि नेशनल इंडस्ट्रियल क्लासिफेकशन या एनआईसी सीरीज का इस्तेमाल कर एक-एक उद्योग के हिसाब से होता है) । हालांकि, चूंकि राज्य का श्रम विभाग लेबर ब्यूरो  खामियों से भरा या अपूर्ण आंकड़ा मुहैया कराता है इसलिए मैक्रो आंकड़े विश्वसनीय (देखें टेबल 2 का फुटनोट) नहीं हैं। प्रशासनिक डेटा स्त्रोतों की स्थिति दयनीय हैं। इनकी हालत अब सुधर नहीं सकती। एक तरह से ये बेकार हो चले हैं। 

उभरते सेक्टरों में रोजगार पर सरकारी आंकड़ा क्यों नहीं?

बिजनेस प्रेस (अखबार, टीवी और डिजिटल मीडिया) अक्सर स्टार्ट-अप और ‘न्यू जेनरेशन’ कंपनियों की ओर से पैदा किया जा रहा रोजगार को लेकर गदगद रहता है। डिजिटल सेक्टर मसलन पेटीएम, (Paytm) , बाईजू  Byju ( Byju) डेल्हीवेरी,  (Delhivery) उड़ान (Udaan) फोन पे (Phonepe) अन एकेडेमी (Unacademy)  बिग बास्केट जैसी डिजिटल प्लेटफॉर्म पर काम कर रही कंपनियों को मीडिया का पूरा ध्यान मिलता है। यूनिकॉर्न और सूनिकॉर्न की खूब तारीफ  होती हैं। मसलन- इकनॉमिक टाइम्स ने हाल में एक रिपोर्ट छापी कि अक्टूबर 2019 और अक्टूबर 2020 के बीच 40,000 रोजगार पैदा हुए। इसे लेबर मार्केट में ‘ग्रीन शूट्स’  (रिकवरी के संकेत) का हिस्सा माना गया। एक और रिपोर्ट  में  नौकरी.कॉम की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया कि ई-कॉमर्स और रिटेल में बाउंस बैक हो रहा है यानी हालात पटरी पर वापस आ रहे हैं। 

इस तरह रोजगार पैदा करने का दावा करती हुई आपको बेशुमार रिपोर्ट्स मिलेंगी। कहा जा रहा है सर्विस सेक्टर से जुड़ी मॉर्डन कंपनियां हजारों नौकरियां पैदा कर रही हैं। लेकिन हकीकत यह है कि अनौपचारिक सेक्टर में काम करने वाले 40 करोड़ कामगारों में से 3 करोड़ बेरोजगार हो चुके हैं। होना तो यह चाहिए कि हर रोजगार पर जश्न मनाया जाना चाहिए लेकिन देश में जिस तरह की बेरोजगारी है पर्याप्त रोजगार का अभाव है, उसमें रोजगार सृजन की ये शहरी कहानियां पर्याप्त नहीं हैं। ये हजारों या लाख में हो सकती हैं लेकिन देश में बेरोजगारी की विकरालता देखते हुए शायद ही ‘फील गुड फैक्टर’ का अहसास करा पाती हैं। 

उभरते सेक्टर मसलन डिजिटल, गिग इकनॉमी, प्लेटफॉर्म इकोनॉमी, आधुनिक रिटेल और ई-कॉमर्स जैसे अर्थव्यवस्था के सेगमेंट अहम हैं लेकिन क्या इनमें से किसी के बारे में भी हमारे पास आधिकारिक आंकड़े हैं? 

उदाहरण के लिए 2016 में ओला और उबर के ड्राइवरों की संख्या 9 लाख के करीब होगी ( उबर के साढ़े तीन लाख और ओला के आठ लाख) थे। 2018 में में इनकी संख्या 15 लाख हो गई। कुछ का अनुमान है कि 2020 में गिग इकनॉमी में  स्वतंत्र, कॉन्ट्रैक्टर, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म, कंपनी के कॉन्ट्रैक्ट वर्कर और ऑन कॉल कर्मचारियों की संख्या मिलाकर 30 लाख अस्थायी कर्मचारी काम कर रहे हैं।  

एसोचैम के आकलन के मुताबिक ई-टेल लॉजिस्टिक्स, वेयरहाउसिंग, आईटी/आईटीईएस जैसे संबंधित क्षेत्र से 2021 से 14.5 लाख नौकरियां पैदा हो सकती हैं। 2012 में इनकी संख्या सिर्फ 23,500 थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि सिर्फ ई-टेल लॉजिस्टिक्स और वेयरहाउसिंग सेक्टर में ही 2021 तक दस लाख लोगों को नौकरियां मिलेंगी। ई-टेल कंपनियों की ओर से पैदा की जा रही नौकरियों में इनका सबसे ज्यादा हिस्सेदारी होगी। इसका यह भी आकलन है कि गिग इकनॉमी हर साल 17 फीसदी  की दर से बढ़ेगी और 2023 तक 455 अरब डॉलर की हो जाएगी। 

इस तरह नैसकॉम (NASSCOM ) आईटी और आईटीईएस, नॉलेज टेक्नोलॉजी सेक्टरों में (ITES) में रोजगार पाने वालों के बारे में आकलन पेश करता है। एकेडेमिक्स समेत इन सेक्टरों से जुड़े सभी स्टेकहोल्डर इन आंकड़ों का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि इनका इस्तेमाल करते हुए एक सवाल दिमाग में जरूर उठना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो ये हमारी बहुलतावादी डेमोक्रेसी के ‘प्रेशर ग्रुप्स’ (दबाव डालने वाले समूह) हैं। लिहाजा इनके आंकड़ों खास कर रोजगार, निर्यात और विकास की संभावनाओं से संबंधित आंकड़ों को इस राजनीतिक पहलू से भी देखना होगा कि इनका इस्तेमाल आर्थिक और श्रम बाजार की नीतियों को प्रभावित करने के लिए हो सकता है। ये संगठन अपनी लॉबिइंग में इनका इस्तेमाल कर सकते हैं ताकि सरकार से सहूलियतें ले सकें। 

इस तरह के संगठन जो आंकड़े जुटाते हैं उनका इस्तेमाल करते हुए उसके राजनीतिक अर्थशास्त्र को भी ध्यान में रखना होगा। यह आश्चर्य होता है कि ये संगठन किस तरह इस तरह के आंकड़े निकाल लाते हैं क्योंकि गिग और प्लेटफॉर्म इकनॉमी का दायरा बेहद बड़ा और गहरा है। अगर ये सेक्टर सरकार की विकास आकांक्षाओं के लिहाज से इतने अहम और संभावना से भरे हुए हैं तो सरकार इनसे जुड़े आंकड़े क्यों नहीं पेश करती? 

सर्विस सेक्टर के समग्र और भरोसमंद आंकड़ों की जरूरत 

फाइनेंस, ट्रांसपोर्ट, इंश्योरेंस जैसे सेक्टरों के निजी और सार्वजनिक प्रतिष्ठान या कंपनियां अलग-अलग नियमों के तहत रजिस्टर्ड होती हैं। इसलिए हमारे पास कोई एक मात्र ऐसा स्रोत नहीं है,जिसके जरिये सर्विस सेक्टर के सभी सेगमेंट के आंकड़े हासिल किए जा सकें। लिहाजा सरकार को सर्विस सेक्टर के लिए कोई वार्षिक सर्वे शुरू करने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। यह उद्योगों पर कराए जाने वाले वार्षिक सर्वे यानी ASI जैसा होना चाहिए। या फिर इसे साधारण तरीके से भी कराया जा सकता है। लेकिन सर्विस सेक्टर का वार्षिक सर्वे जरूर होना चाहिए। 

यह अचरज की बात है कि संगठित मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में 90 लाख काम करते हैं (PLFS 2017-18 का आंकड़ा) और अनौपचारिक सेक्टर में 4 करोड़ अस्सी लाख लेकिन हमारे ASI के तौर पर एक  मजबूत और स्थापित डेटाबेस है। यह सर्वे पूरे फैक्टरी सेगमेंट को कवर करता है। एकेडेमिक और नीति निर्माता दोनों इस डेटा का खुल कर इस्तेमाल करते हैं। 

दूसरी ओर संगठित सर्विस सेक्टर में 2017-18 में तीन करोड़ 20 लाख लोग काम कर रहे थे ( मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर के तीन गुना से अभी अधिक) । इससे जुड़े अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र में 11.4 करोड लोग काम कर रहे थे। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि ई-कॉमर्स /ई-टेल, गिग, प्लेटफॉर्म इकनॉमी, आईटी और आईटीईएस, और स्टार्ट-अप की हिस्सेदारी इसमें काफी अधिक है। लेकिन विडंबना देखिए इस सेक्टर के बारे में हमारे पास कोई सरकारी आंकड़ा नहीं है। 

‘’फ्लैक्सी’’ कामगारों पर सर्वे की जरूरत

‘फ्लैक्सी’ वर्कर का मतलब कैजुअल वर्कर, (जिन्हें कभी भी काम कर रखा जाता और हटा दिया जाता है) , अस्थायी कामगार या ट्रेनी होते हैं जिन्हें इनके नियोक्ता कंपनियां सीधे भर्ती करती हैं या फिर ये कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले इन लोगों की भर्तियां लेबर कॉन्ट्रैक्टर करते हैं। इन्हें रखा जाना अब काफी बढ़ गया है। दिसंबर, 2018 में ईएसआई (ESI) के तहत अटल बीमित व्यक्ति कल्याण योजना शुरू करते हुए केंद्र सरकार ने सीधे माना कि श्रम बाजार की व्यवस्थाएं अब बदल गई हैं। इसने साफ कहा था , ‘ भारत में रोजगार का मैजूदा स्वरूप अब बदल गया है। अब लंबे वक्त की नौकरियों की जगह कम समय के रोजगार का चलन है। ”यानी एक तरह से यह कॉन्ट्रैक्ट की तरह चलने वाली व्यवस्था है। 

अब तो औद्योगिक संबंध से जुड़े कोड में भी नियोक्ता संगठन की मांग पर नियत ( फिक्स्ड टर्म) समय के रोजगार यानी FTE को कानूनी मान्यता दे दी गई है। अब यह कानूनी तौर पर एक कैटेगरी बन गई है। इसलिए इस कैटेगरी के कर्मचारियों की संख्या काफी बढ़ने वाली है। 

केंद्र से लेकर राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय लगातार बड़ी संख्या में कॉन्ट्रैक्ट और कैजुअल श्रमिकों से काम ले  रहे हैं। लेकिन हमारे पास यह आंकड़ा नहीं है कि गैर कृषि क्षेत्र में फ्लैक्सी वर्करों का रोजगार का दायरा यानी उन्हें रखे जाने का चलन किस हद तक बढ़ गया है। ASI के तहत जो आंकड़े इकट्ठा किए जाते हैं वे सिर्फ संगठित फैक्टरी सेक्टर के होते हैं और फिर कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कामगारों की जानकारी देते हैं। या फिर ये बताते हैं कि कितने श्रम दिवस, घंटे का काम हुआ या फिर उनकी कितनी कमाई हुई। 

2014 में भारत में लेबर स्टेस्टिक्स पर हुई एक स्टडी में प्रोफेसर त्रिलोक एस पपोला की सिफारिश पर गौर करना अहम है। वह कहते हैं, “ कोई भी नियमित या तदर्थ सर्वे कॉन्ट्रैक्ट पर रखे जाने वाले कामगारों के रोजगार की सही तस्वीर नहीं दे सकता। एनएसएसओ-ईयूएस [NSSO’s Employment and Unemployment Survey]  स्वरोजगार करने वालों, नियमित और कैजुअल श्रेणियों के रोजगार के बार में जानकारी देता है लेकिन कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वालों के बारे में नहीं”। 

हमारे पास सरकारी सेक्टर या सर्विस सेक्टर में काम करने वाले कॉन्ट्रैक्ट और कैजुअल या अस्थायी कामगारों के बारे में डेटा ही ही नहीं है। लेबर ब्यूरो यदा-कदा कुछ उदयोगों में कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कामगारों पर सर्वे कराता है लेकिन इनसे सीमित सूचनाएं ही मिल पाती हैं। 

असंगठित कामगारों का कोई भरोसेमंद और स्वतंत्र आंकड़ा नहीं

प्रोफेसर त्रिलोक एस पपोला खास तौर पर पर इस बात का जिक्र करते हैं कि किसी भी स्त्रोत से असंगठित क्षेत्र में मौजूद रोजगार के बारे में अलग से कोई आंकड़ा नहीं मिलता। रिसर्चर इसका आकलन एनएसएस/पीएलएफएस के तहत निकाले गए संगठित क्षेत्र के रोजगार की तादाद ( EMI के तहत) से घटा कर इसका अनुमान लगाते हैं। या फिर वे नेशनल कमीशन ऑन एंटरप्राइजेज इन द अन-ऑर्गेनाइज्ड सेक्टर (NCEUS) की ओर से दिए गए गैर संगठित सेक्टर की परिभाषा का इस्तेमाल करते हैं। लिहाजा असंगठित क्षेत्र में रोजगार से जुड़ी संख्याओं में अंतर होता है। 

प्रोफेसर पपोला इस बात की ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि कंस्ट्रक्शन सेक्टर ( निर्माण सेक्टर) से जुड़ा कोई सर्वे ही नहीं है। लॉकडाउन के दौरान प्रवासी कामगारों के पलायन ने सर्वे न होने की यह हकीकत उजागर कर दी थी। संविधान में इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कमैन एक्ट, 1979 जैसा कानून है लेकिन इसके बावजूद कोई सर्वे नहीं है। अब जो ऑक्यूपेशनल सेफ्टी एंड हेल्थ एंड द वर्किंग कंडीशन्स कोड यानी OSHWCC आया है उसमें कहा गया है कि कि प्रवासी कामगारों का रिकार्ड डेटा रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया के तहत रखा जाएगा। 

भारत ने 1992 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के लेबर स्टेस्टिक्स कन्वेंशन, 1985 (No. 160) पर हस्ताक्षर किए हैं और इस लिहाज से वह आर्थिक रूप से सक्रिय लोगों के आंकड़े जुटाने और इसके प्रकाशन के लिए बाध्य है। 

आईएलओ ( ILO) के समझौतों और सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल यानी  SDG के मुताबिक भारत के लिए समग्र और कारगर तौर पर श्रम संबंधी आंकड़े जुटाने की व्यवस्था करना जरूरी है। सरकार को आंकड़े जुटाने की मौजूदा कवायद का बारीकी से विश्लेषण करने की जरूरत है। उसे इसे तार्किक बनाना होगा और आंकड़े जुटाने से संबंधित प्रशासनिक व्यवस्था को दुरुस्त भी करना होगा। यह व्यवस्था अपराध की हद तक नकारा हो चुकी है। 

सरकार को ऐसा सिस्टम बनाना होगा जिससे लगातार और समग्र तौर पर ऐसे डेटाबेस तैयार हो सकें ताकि नीतियां बनाते समय कारगर सुझाव उपलब्ध हों। मजबूत डेटाबेस से ही कानून बनाना अर्थपूर्ण हो सकेगा। जब लेबर ब्यूरो का लोगो लॉन्च हो रहा था कि केंद्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार की ओर से की गई टिप्पणी इस मायने में काफी प्रांसगिक हैं। उन्होंने नीति निर्माण में डेटाबेस की अहमियत को रेखांकित करते हुए कहा था कि आंकड़ों की सटीकता और उन तक पहुंच बढ़ाने के लिए इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल हो। उन्होंने कहा था कि सरकार को ऐसे डेटा की काफी जरूरत है। सरकार की ओर से लोगों को रोजगार मुहैया कराने में इसकी बड़ी भूमिका है।

लेखक XLRI, जेवियर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट, जमशेदपुर में प्रोफेसर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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