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‘सदन में डी. राजा’: दलितों-वंचितों-महिलाओं की आवाज़ उठाने वाला नेता

बहुत ही कम प्रतिनिधि ऐसे होते हैं जो ज़मीनी स्तर से जुड़े होते हैं। जो ये नहीं भूलते हैं कि जनता ने उन्हें किस लिए चुनकर भेजा है। डी. राजा ऐसे ही प्रतिनिधियों में से एक हैं।
‘सदन में डी. राजा’: दलितों-वंचितों-महिलाओं की आवाज़ उठाने वाला नेता

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र में देश की जनता वोट के माध्यम से अपने प्रतिनिधि चुनती है। ये चुने हुए प्रतिनिधि ही सरकार बनाते हैं। देश चलाते हैं। शासन-प्रशासन की व्यवस्था करते हैं। देश की जनता अपने प्रतिनिधि इसलिए चुनती है कि ये लोग जनता की समस्याओं का समाधान करें। जनता राज्य स्तर पर विधानसभा और देश के स्तर पर संसद में अपने प्रतिनिधि इसलिए भेजती है कि वे ऐसे नियम-क़ानून बनाएं जो जनहित में हों। जनता मालिक होती है और ये प्रतिनिधि उसके सेवक। पर विडंबना यह है कि वास्तविकता कुछ और ही होती है। जनता के चुने ये प्रतिनिधि जब सरकार बनाते हैं, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनते हैं, मंत्री, सांसद, विधायक बनते हैं तब अधिकांश प्रतिनिधि बदल जाते हैं। जब इनके पास पॉवर आ जाता है तब इनके तेवर बदल जाते हैं।

बहुत ही कम प्रतिनिधि ऐसे होते हैं जो जमीनी स्तर से जुड़े होते हैं। जो ये नहीं भूलते हैं कि जनता ने उन्हें किस लिए चुनकर भेजा है। ऐसे प्रतिनिधि जनता के प्रति अपनी जवाबदेही को समझते हैं। इसलिए वे अपने कर्तव्य पालन में लग जाते हैं। वे सड़क से संसद तक जनता की आवाज बनते हैं। डी. राजा ऐसे ही प्रतिनिधियों में से एक हैं।

इसे जानने-समझने में उनके प्रतिनिधि भाषणों की किताब- ‘सदन में डी. राजा (प्रतिनिधि भाषण)’ मददगार हो सकती है। यह किताब हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में आई हैं। अंग्रेजी में इसका टाइटल है – D. Raja in the Parliament (Selected Speeches)।  इस किताब का लोकार्पण शनिवार, 11 सितम्बर 2021 को दिल्ली के कांस्टीटूशन क्लब में किया गया।

डी. राजा तमिलनाडु के वेल्लोर जिले के चित्ताथुर गांव के दलित समुदाय से आते हैं। उनके माता-पिता नायगम और पी. दुरैसामी भूमिहीन खेतिहर मजदूर थे। उनकी छह संताने हैं। पांच बेटे और एक बेटी। डी. राजा अपने भाइयों में दूसरे नंबर पर हैं। उनके माता-पिता भले खेतिहर मजदूर थे पर स्वाभिमानी और बुद्धिमान थे। उस समय सवर्णों के गांव-बस्ती से गुजरते समय दलितों को अपनी चप्पल उतार कर हाथ में लेकर गुजरना होता था। डी. राजा की मां को यह मंजूर न था, वे स्वाभिमानी थीं। यही वजह है कि उन्होंने आजीवन चप्पल नहीं पहनी। इतना ही नहीं उन्होंने अपने सभी बच्चों को पढ़ाया-लिखाया। उन्हें उच्च शिक्षित किया।

डी. राजा का बचपन आम दलितों की तरह ही काफी गरीबी में बीता। गरीबी के कारण उन्हें दोपहर का भोजन नसीब नहीं होता था। स्कूल में दोपहर को लंच ब्रेक होता था पर उनके पास भोजन न होने के कारण वे स्कूल की लाइब्रेरी में जाकर पुस्तकें पढ़ने लगते थे। यहीं से उनका पुस्तक प्रेम जागृत हुआ और आगे चलकर उन्हें प्रतिभावान बनाने में सक्षम रहा। डी. राजा कहते हैं कि अब मैं कभी उपवास नहीं रखता क्योंकि अपने प्रारम्भिक जीवन में बहुत भूखा रहा हूं।

उनका कहना है कि उन्हें आगे बढ़ाने में पुस्तकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पुस्तक प्रेम ने उन्हें लेखन के लिए भी प्रेरित किया। उन्होंने 2007 में दलित क्वेश्चन पुस्तक लिखी। इसके अलावा उन्होंने एक बुकलेट भी लिखी – फाइट अगेंस्ट अनएम्प्लॉयमेंट। और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर लेख लिखे।

डी. राजा अपने छात्र जीवन से सीपीआई से जुड़े। और इसी पार्टी की तरफ से राज्यसभा में सांसद बने। संसद में उन्होंने जाति और जेंडर के मुद्दे मार्क्सवादी नजरिए से उठाए। उन्होंने संसद में जो स्पीच दीं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने संसद में दलितों-वंचितों और महिलाओं के मुद्दों को पुरजोर तरीके से उठाया। 2009 में जब शिक्षा का अधिकार अधिनियम बन रहा था तब उन्होंने शिक्षा विधेयक में वंचित वर्ग के बच्चों का खास ध्यान रखने की सिफारिश की थी। किसान जब सरकारी क्रूर नीतियों के कारण आत्महत्या कर रहे थे तब उन्होंने संसद में “किसान अभूतपूर्व संकट में हैं” स्पीच देते हुए सबका ध्यान आकर्षित किया था। उन्होंने संसद में दलितों के आर्थिक-राजनितिक सशक्तिकरण पर बल दिया और सामाजिक न्याय की वकालत की। उन्होंने कहा कि देश की अनेक चुनौतियों में से एक चुनौती है सामाजिक न्याय की।

मार्क्सवादी होते हुए भी डी. राजा अम्बेडकरवाद के हिमायती हैं। आंबेडकर की प्रासंगिता पर कई बार वे स्पीच दे चुके हैं। लेख लिख चुके हैं। उनका कहना है कि अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद समानांतर चलने वाली धाराएं हैं। वे एक दूसरे की पूरक हैं विरोधी नहीं। इसके अलावा उन्होंने निजीक्षेत्र में आरक्षण को जरूरी बताया और इसकी सिफारिश की। वे समय-समय पर महिला अधिकारों के लिए आवाज उठाते रहे हैं।

प्रसिद्ध विचारक कांचा आयलैया डी राजा को पहले दलित नेता के रूप में देखते हैं जिसे किसी भी पार्टी ने इस कद, पद और भूमिका तक पहुचाया हो। इसके लिए वे सीपीआई को पूरा श्रेय देते हैं। प्रखर वैचारिकता और सरल स्वभाव के धनी डी. राजा सदन में जनता की समुचित आवाज रहे हैं।

“सदन में डी. राजा”  पुस्तक के संपादक राजीव सुमन अपने सम्पादकीय “वंचित वर्ग का मार्क्सवादी हिरावल डी. राजा” में लिखते हैं कि दिहाड़ी मजदूरी पर आश्रित परिवारों में डी. राजा इस रूप में खुशनसीब रहे कि उनकी हाथों की रेखाएं उनके पिता की तरह नारियल के रेशे  निकालने वाले औजार से रगड़कर कठोर और बेतरतीब नहीं हुई थीं और न ही घिसकर अदृश्य  हो चुकी थीं। किताबों और शिक्षा के प्रति उनके अदम्य लगाव ने उन्हें शारीरिक श्रम से तो दूर जरूर किया लेकिन अभाव और भूख को उन्होंने बहुत करीब से जिया। ... विषमतापूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश और प्रकृति द्वारा मिले संसाधनों पर भेदभावपूर्ण कब्जा भारतीय समाज की सार्वकालिक विशिष्टता रही है। यह भी सर्वकालिक रहा है कि वर्चस्वशाली वर्ग समाज की संस्कृति ने हमेशा उन वर्गों के अधिकारों की अवहेलना की और उन्हें अमानवीय यातना देकर सभी तरह की वंचना से भर दिया। हालांकि क्लासिक मार्क्सवादी अर्थों में राजा की वर्ग चेतना उनके स्कूली दिनों से आकार लेने लगी, पहली बार दास कैपिटल पढ़ा। कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पढ़ा।

डी. राजा वैसे कुछ कम्युनिस्ट नेताओं में से एक हैं जो एक हद तक अम्बेडकरवादी भी रहे हैं। उनके भाषणों में, लेखों में सामाजिक न्याय की विशेष पृष्ठभूमि दिखती है। समतामूलक चेतना की अपूर्व विरासत उनके यहां देखी जा सकती है।

इस अवसर पर बोलते हुए डी. राजा ने कहा कि सामाजिक परिवर्तन उनका उद्देश्य रहा है। सामाजिक भेदभाव दूर करने के लिए मैंने संसद को एक प्लेटफार्म की तरह उपयोग किया। मैंने बहुत कम उम्र में अपने स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम के अवाला बहुत सी पुस्तकें पढ़ीं। ज्ञान की खोज के लिए पुस्तकें मेरी मार्गदर्शक रही हैं। मैंने संसद में निजीक्षेत्र में आरक्षण की जरूरत पर कई बार आवाज उठाई। सरकारी उद्धमों का निजीकरण हो रहा है तो फिर दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों को सरकारी नौकरी मिलेंगी नहीं। इसलिए निजीक्षेत्र में आरक्षण जरूरी है।

इस मौके पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने उनके साथ अपने पुराने समय को साझा करते हुए कहा– “डी. राजा से वर्षों पुराने सम्बन्ध रहे हैं। उनके बारे में क्या कहूं वे एक यूनिक परसन हैं। हम लोग उन्हें मजाक में ‘डेमोक्रेटिक राजा’ भी कहते रहे हैं। उनकी विशेषता है कि वे जटिल विषय को भी सरल शब्दों में रखते हैं। उनकी दूसरी खासियत है कि वे अपने विरोधी पक्ष को भी अपनी सरलता और सहजता से आकर्षित कर लेते हैं। उन्हें प्रभावित कर देते हैं। मुझे विश्वास है कि पुस्तक उनके पाठकों को प्रेरित करेगी। पाठक सांसद और संसद में उठाये मुद्दों के बारे में जान कर अपना ज्ञानवर्धन करेंगे।

लोकापर्पण के अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने कहा कि डी. राजा की सबसे अलग विशेषता है कि वे सबसे सहज सरल उपलब्ध सांसद हैं। उनकी दूसरी विशेषता है उनका जन पक्षीय नजरिया। वे संसद में बाबा साहेब आंबेडकर और मार्क्स के वर्ग और जाति के मुद्दे को शिद्दत से उठाते हैं। वे मार्क्स के साथ आंबेडकर को लेकर चलते हैं। उनकी महिला अधिकारों के प्रति सजगता प्रशंसनीय है। वे कहते हैं कि जब तक हम दलितों की चिंता नहीं करते तब तक देश तरक्की नहीं कर सकता। वे मैला प्रथा पर भी होम वर्क कर के बोलते हैं। हमें डी. राजा जैसे नेता चाहिए ताकि भारतीय लोकतंत्र में हमारा विश्वास बना रहे। उन्होंने कहा कि यह किताब अलग-अलग भाषाओं में छपनी चाहिए ताकि लोग समझ सकें कि हमारा नेता कैसा होना चाहिए।

इस अवसर पर सांसद रहे अली अनवर ने डी. राजा के बारे में बोलते हुए कहा कि हम लोग पिछले 12 सालों से संसद से सड़क तक साथ रहे। वे एक परफेक्ट पारलियामेनटेरियन रहे। विरोधी पार्टी के लोग भी उनसे बहुत आत्मीय भाव से मिलते थे। यह उनके चरित्र की विशेषता है। वे विशिष्ट होते हुए भी सरल हैं।

कांग्रेस पार्टी के सांसद व मंत्री रहे जयराम रमेश ने कहा कि वे डी. राजा से 25 साल पहले मिले थे। उनकी विशेषता है कि वे सीपीआई के सांसद हैं और कांग्रेस में भी लोकप्रिय हैं। पुस्तक में उनका साक्षात्कार रिमार्केबल और शिक्षाप्रद है। वे मार्क्सवादी हैं पर आंबेडकरवाद के भी समर्थक हैं।

सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर कहती हैं कि –“वे बहुत क्लिष्ट चीजों को बहुत सरल भाषा में रखते हैं।”

अन्य वक्ताओं में त्रिची शीवा, सिद्धार्थ वरदराजन, जस्टिस बी.जी कोलसे थे। कोलसे जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। वक्ताओं में शरद यादव और नंदिता नारायण का भी नाम था। पर किसी कारणवश वे उपस्थित नहीं हो सके।

पुस्तक का प्रकाशन  द मर्गिनालाइज्द पब्लिकेशन ने “भारत के राजनेता” शृंखला के तहत किया है जिसके शृंखला संपादक संजीव चन्दन हैं।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)

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