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साल 2023 : रूढ़ीवाद और पितृसत्ता को कड़ी चुनौती देते ये अदालती फ़ैसले

इस साल आधी आबादी के लिए आए कई अदालती फ़ैसले सवालों के घेरे में रहे, तो वहीं कई फ़ैसलों ने समानता और न्याय की उम्मीद को ज़िंदा भी रखा।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार : Live Wire

किसी भी देश की न्यायिक व्यवस्था उसके रीढ़ की हड्डी होती है। असमानता और शोषण के खिलाफ न्याय का एक अहम भरोसा होने के साथ ही संविधान की रक्षक भी होती है। ये देश की अदालतें ही हैं, जो समय-समय पर सरकार को ये याद दिला सकती हैं कि देश में सबसे ऊपर संविधान है, और इसका पालन सभी को करना है। हालांकि साल 2023 में आधी आबादी के लिए आए कई अदालती फैसले सवालों के घेरे में रहे, तो वहीं कई फैसलों ने पितृसत्ता को कड़ी चुनौती भी दी। एक नज़र ऐसे ही कुछ फैसलों पर जिन्होंने इस साल खूब सुर्खियां बटोरी...

सरोगेसी से बनी मां भी मैटरनिटी लीव की हक़दार

राजस्थान हाई कोर्ट की जयपुर बेंच ने इस साल नवंबर के महीने में अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि सेरोगेसी से बनी माँ को भी मातृत्व अवकाश पर जाने का अधिकार है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि सेरोगेसी से बनी माँ को अवकाश न देना अनुच्छेद 21 के तहत उनके जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। अदालत ने आगे ये भी कहा कि सरकार किसी भी मां के साथ केवल इसलिए भेदभाव नहीं कर सकती कि उसका बच्चा सरोगेसी के जरिए हुआ है। सरोगेसी मां भी सरकार से प्रसूति अवकाश लेने की हकदार है। इसके साथ ही हाई कोर्ट ने राज्य सरकार के 23 जून, 2020 के उस आदेश को भी रद्द कर दिया, जिसके तहत सरोगेसी से मां बनने वाली याचिकाकर्ता को मातृत्व अवकाश देने से मना कर दिया गया था।

महिलाओं का छोटे कपड़ों में डांस करना अश्लीलता नहीं

बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने अपने एक प्रगतिशील फैसले में सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि छोटी स्कर्ट पहनना और उत्तेजक नृत्य करना, अपने आप में अश्लील नहीं कहा जा सकता है। अदालत ने इस मामले में पुलिस की ओर से दर्ज की गई एफआईआर को भी रद्द करते हुए कहा कि ‘अश्लीलता का कारण बनने वाले कृत्यों पर एक संकीर्ण दृष्टिकोण अपनाना अदालत की ओर से उचित नहीं होगा। कोर्ट एक प्रगतिशील दृष्टिकोण पसंद करती है और इस तरह के कृत्य का आकलन पुलिस अधिकारी की निजी राय से नहीं किया जा सकता।

आत्म-सम्मान विवाह के लिए सार्वजनिक अनुष्ठान या घोषणा की आवश्यकता नहीं है

इस साल अगस्त के महीने में सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट के एक फैसले को पलटते हुए तमिलनाडु में ‘आत्म-सम्मान’ विवाह पर एक जरूरी फैसला सुनाया। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि दो हिंदू अपने दोस्तों या रिश्तेदारों या अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति में बिना रीति-रिवाजों का पालन किए या किसी पुजारी द्वारा विवाह की घोषणा किए बिना विवाह कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में ये भी कहा कि शादी करने का इरादा रखने वाले जोड़े पारिवारिक विरोध या अपनी सुरक्षा के डर सहित विभिन्न कारणों से सार्वजनिक घोषणा करने से बच सकते हैं। इससे पहले मद्रास हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने कहा था कि वकीलों द्वारा करवाए गए विवाह वैध नहीं हैं और सुयम्मरियाथाई विवाह (आत्म-सम्मान विवाह) को गुप्त रूप से संपन्न नहीं किया जा सकता।

POSH के कार्यान्वयन के लिए हर जिले में अधिकारी की नियुक्ति

कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन की निगरानी के लिए इस साल अक्टूबर महीने में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के प्रधान सचिवों को हर जिले में एक अधिकारी की नियुक्ति सुनिश्चित करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि ये नोडल व्यक्ति इस अधिनियम और इसके कार्यान्वयन से संबंधित मामलों पर केंद्र सरकार के साथ समन्वय में काम करने में भी सक्षम होगा। अदालत का मानना था कि कई राज्यों में बीते सालों में POSH अधिनियम के तहत जिला अधिकारियों को सूचित करने की जहमत ही नहीं उठाई गई है।

'जेंडर स्टीरियोटाइप' के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट की पहल

इस साल 16 अगस्त को भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने 'हैंडबुक ऑन कॉम्बैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स' जारी की। इस कदम का मकसद अदालत में सुनवाई के दौरान ऐसे शब्दों के इस्तेमाल पर रोक लगाना है, जो सालों से इस्तेमाल होते आ रहे हैं और ये स्टीरियोटाइप्ड कहलाते हैं। इन टर्म्स के इस्तेमाल से भेदभाव वाले व्यवहार को वैधता मिलती है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का मकसद इन टर्मों को बदल कर लैंगिक संवेदनशीलता सुनिश्चित करना है। ऐसे में पितृसत्ता और मनुवादी सोच के ख़िलाफ़ लैंगिक पूर्वागहों को चुनौती देती ये कानूनी हैंडबुक एक बड़े बदलाव की छोटी शुरुआत ज़रूर कही जा सकती है।

गौरतलब है कि इस साल बलात्कार और दहेज को लेकर कई अदालतों के फैसले महिलाओं के पक्ष में नहीं रहे और कोर्ट ने इसके दुरुपयोग को लेकर सख्त टिप्पणियां भी कीं, जिनके खिलाफ नाराज़गी और आलोचना भी खूब देखने को मिली। कई फैसले सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं पाए, तो वहीं कईयों का विरोध के बाद भी कुछ नहीं हो सका। बहरहाल, इस तमाम अंधेरे के बीच भी अदालतों के कई ऐसे फैसले आए जिन्होंने न्याय में लोगों का विश्वास कायम रखा।

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