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दलित जननेता जिग्नेश को क्यों प्रताड़ित कर रही है भाजपा? 

‘क्या अपने राजनीतिक आकाओं के फायदे के लिए एक जननेता को प्रताड़ित और आतंकित किया जा रहा है’?
Jignesh Mevani

गुजरात के निर्दलीय विधायक एवं एक ऐतिहासिक जन आंदोलन के नेता जिग्नेश मेवाणी की असम पुलिस द्वारा की गयी गिरफ्तारी एवं जमानत मिलने के बाद उन्हें फिर असम की दूसरे जिले की पुलिस द्वारा अन्य मामले में गिरफ्तार किए जाने को लेकर, असम के अग्रणी जनबुद्धिजीवी 80 साल से अधिक उम्र के हिरेन गोहाई द्वारा उठाया यह सवाल, आज की तारीख में महज उत्तर पूर्व में ही नहीं बल्कि देश के समूचे इंसाफ पसंद लोगों की ज़ुबान पर है।

असम से लगभग ढाई हजार किलोमीटर दूर सूबा के एक चुने हुए विधायक- जो एक लोकप्रिय जननेता भी है और एक ऐतिहासिक जन आंदोलन की अगुवाई कर चुका है के साथ असम की पुलिस द्वारा जो सलूक किया जा रहा है, उसे लेकर अपने गुस्से को इजहार करते हुए उन्होंने पिछले दिनों साफ लिखा- यह बेहद क्षुब्ध करने वाली बात है कि गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी- जिन्हें चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की अदालत से जमानत मिल चुकी थी, उन्हें बिल्कुल मनगढंत आरोप लगा कर फिर एक बार गिरफ्तार किया गया, कहा गया कि उन्होंने पुलिस अफसरों के काम में बाधा पहुंचाई और एक ‘महिला पुलिस अधिकारी के साथ बदसलूकी की।

विडम्बना है कि इन दोनों ही मामलों में पुलिस ही मुख्य या एकमात्र गवाह है। उनके अपमानजनक/बेरहम/क्रूर व्यवहार की बात कहीं नहीं आयी है।
  
इस गिरफ्तारी के बहाने ‘न्याय के माखौल’ की बात करते हुए वह एक दूसरा महत्वपूर्ण सवाल भी उठाते हैं कि एक तरफ जहां कानून और सुव्यवस्था को राज्य का मसला माना जाता है, फिर यह स्थिति क्यों है कि किसी एक राज्य की पुलिस को दूसरे किसी राज्य में जाकर बिना किसी प्रक्रियागत कठिनाइयों के किसी नागरिक को गिरफ्तार करने का अधिकार है। निश्चित तौर पर कुछ अंतरराज्यीय मसले हो सकते हैं, लेकिन पुलिस को मिली यह अनियंत्रित ताकत पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है।

याद रहे एक सप्ताह बीत चुका है और दो अदद ट्वीट के लिए- जिनमें से एक सांप्रदायिक सदभाव बनाए रखने की अपील प्रधानमंत्री द्वारा की जाए इस पर केन्द्रित था- पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता जिग्नेश मेवाणी अपने घर से ढाई हजार किलोमीटर दूर असम में पुलिस हिरासत में हैं और अब दूसरे मामले में दूसरे जिले की पुलिस हिरासत में हैं।

ट्वीट को लेकर उनके खिलाफ कोकराझार पुलिस के सामने केस दर्ज करने वाले अरूप कुमार सेन का एनडीटीवी के सामने दिया गया वक्तव्य सुनने योग्य है कि वह ‘एक नज़ीर कायम करना चाहते हैं’। नज़ीर यही है कि जो भी बोलने का साहस करेगा, उसे हजार किलोमीटर दूर किसी दूसरे राज्य की पुलिस उठा कर ले जा सकती है और इस तरह बंद कर सकती है कि उसका जमानत मिलना भी मुश्किल हो जाए।

तय बात कि जिग्नेश मेवाणी की गिरफ़्तारी एक तरह से हर उस व्यक्ति के लिए खतरे की घंटी है, जो सरकार की मौजूदा नीतियों से असहमति रखता है और मनुष्य और मनुष्य के बीच नफरत को बढ़ावा देने वाले उसके विघटनकारी चिन्तन की मुखालिफत करता है।

जिग्नेश मेवाणी आज नहीं तो कल जमानत पर बाहर निकलेंगे ही, क्योंकि वह अकेले नहीं हैं, उनके पीछे व्यापक जनभावना जुड़ी है, उनकी गिरफतारी के बाद आए दिन गुजरात के अलग अलग हिस्सों में प्रदर्शन हो रहे हैं, लेकिन यह एक संकेत है, बेहद खतरनाक संकेत।

गिरफ्तारी के मामले में क्या वाकई अनियमितताएं बरती गयी हैं?

‘मैंने अमन की अपील की थी। न मुझे अपने ऊपर लगे आरोपों के बारे में बताया गया और न ही प्रथम सूचना रिपोर्ट की कॉपी दी गयी। मुझे यह भी मालूम नहीं कि मुझे किन धाराओ के तहत गिरफ़्तार किया गया है। मुझे अपने परिवार से संपर्क करने यहां तक की फोन करने भी नही दिया जा रहा है। मैं इतना ही जानता हूँ कि असम पुलिस का एक एएसपी मुझे गिरफ़्तार करने के लिए आया है’


21 अप्रैल की रात जब उन्हें गुजरात के बनासकांठा जिले के पालनपुर सर्किट हाउस से असम पुलिस के दस्ते द्वारा गिरफ्तार किया जा रहा था, तब जिग्नेश मेवाणी के यह शब्द बहुत कुछ बयां करते हैं।

याद रहे रात साढ़े ग्यारह बजे हुई जिग्नेश मेवाणी की गिरफ्तारी के वक्त बरती कथित अनियमितताओं की बात पहले से ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं कानूनविदों द्वारा कही जा रही है। 

मालूम हो कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के सामने पिछले दिनों राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच की तरफ से याचिका डाली गई थी। जिसमें साफ कहा गया था कि किस तरह उनकी गिरफ्तारी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशानिर्देशों का साफ उल्लंघन किया गया। याचिका में पूछा गया कि क्या एक चुने हुए विधायक को गिरफ्तार करते वक्त़ विधानसभा अध्यक्ष को सूचित करने की भी जहमत नहीं उठाई जाती, उन्हें प्रथम सूचना रिपोर्ट तक की कॉपी नहीं दी जाती और अपने वकील से भी मिलने नहीं दिया जाता?

इन तमाम आरोपों को लेकर अब राष्टीय अनुसूचित जाति आयोग द्वारा गुजरात एवं असम सरकार को जारी नोटिस ने नया संबल दिया है। आयोग की तरफ से दोनों राज्यों के मुख्य सचिवो को निश्चित समय के अंदर जवाब देने के लिए कहा गया है।

एक अहम बात जो पहले से ही रेखांकित की जाती रही है कि गिरफ्तारी के वक्त़ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी अर्नेश कुमार गाइडलाइन्स का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन किया गया है। 

मालूम हो कि 2014 का साल था जब पुलिस द्वारा हर दूसरे मामले में की जाने वाली गिरफ्तारी एवं कस्टडी में यातना देने आदि घटनाओं पर सर्वोच्च न्यायालय गौर कर रही थी। एक तरह से ऐसी अनावश्यक गिरफ्तारियों का रोकने एवं मानवाधिकारों की रक्षा करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने साफ निर्देश दिया कि ऐसे मामलों में जहां मामले की अधिकतम सजा सात साल से अधिक नहीं है, पुलिस की गिरफ्तारी को नियम नहीं अपवाद माना जाना चाहिए।

उसने पुलिस को यह निर्देश भी दिया कि वह तय करे कि क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की धारा 41 के प्रावधानों के तहत क्या यह गिरफ्तारी आवश्यक थी।

सर्वोच्च न्यायालय के इन निर्देशों के मुताबिक धारा 41 के इन प्रावधानों के तहत पुलिस को चाहिए था कि वह पहले विधायक जिग्नेश मेवाणी को नोटिस भेजती और उन्हें अपने प्रश्नों का जवाब देने तथा फिर जांच में सहयोग देने के लिए कहती। 

उपरोक्त धारा के ही मुताबिक पुलिस को गिरफ़्तार करने की जरूरत तभी पड़ सकती है कि उसे और ‘अपराध करने से रोका जाए, वह गवाहों को न धमकाये, सबूत नष्ट न करें, वह भाग न जाए’ आदि। 

मेवाणी के मामले में साफ था कि उनके खिलाफ सबसे गंभीर धारा 153-ए और 295-ए की लगी थी, जिसके लिए अधिकतम सज़ा तीन तीन साल है, जो सात साल से कम है। अहम बात यह भी है कि उनका ‘अपराध’ उन्होंने किए ट्वीट से जुड़ा बताया गया है, अब चूँकि ट्वीट को संपादित नहीं किया जा सकता, इस मामले में गवाहों को धमकाने का मामला भी नही बनता।

गौरतलब था कि जिस मजिस्ट्रेट के सामने कोकराझार में उन्हे पहली दफा पेश किया गया, उन्हें इन बातो पर गौर करना चाहिए था बल्कि उसने भी उन्हें तीन दिन की न्यायिक हिरासत में भेजा।

न केवल असम पुलिस न अर्नेश कुमार गाइडलाइन्स का उल्लंघन किया बल्कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही गिरफ्तारी के वक्त सावधानी बरतने के लिए डी के बसु मामले में जारी गाइडलाइन्स /1997/ का भी साफ उल्लंघन किया गया जिसमें बताया गया है कि गिरफ्तारी के वक्त व्यक्ति का अधिकार है कि अपने परिवार के सदस्यों को सूचित करे, उसके स्वास्थ्य की जांच हो इतना ही नहीं उसे अपने वकील से मिलने की भी सहूलियत हो।

जाहिर है कि कोकराझार चीफ जुडिशियल मैजिस्टेट की अदालत को यह बात समझ आयी हो कि जिग्नेश मेवाणी पर लादे गए मामले में असम पुलिस की तरफ से कहीं न कहीं कुछ कमियां हैं, और अगर मामला गोहाटी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय पहुंचता है, तो उसे अदालत की डांट का भी सामना करना पड़ सकता है, लिहाजा उन्होंने ट्वीट मामले में जमानत दी हो।

लेकिन अब वह अधिक गंभीर आपराधिक किस्म के आरोपों के तहत जेल में डाल दिए गए हैं।

प्रश्न उठता है कि आखिर जिग्नेश मेवाणी के मामले को ‘नज़ीर’ बनाने को लेकर भाजपा इतनी सक्रिय क्यों हैं ?

वजह जाहिर है कि विगत छह साल से जिग्नेश मेवाणी अजेय लगने वाले मोदी-शाह मॉडल के लिए एक नयी चुनौती बन कर उभरे हैं, जिसका सिलसिला शुरू हुआ था ऐतिहासिक उना आंदोलन से।

कौन डरता है सत्य के लिए हो रहे संग्राम से !

‘गाय की पूछ तुम रखो, हमें हमारी जमीन दो’। 

वह 2016 का साल था, जब देश के अलग अलग हिस्से में गोआतंकी अपना कहर बरपा कर रहे थे, बीफ के नाम पर राजधानी दिल्ली से बमुश्किल सत्तर किलोमीटर दूर दादरी के पास अख़लाक की हुई हत्या दक्षिणपंथियों के लिए नज़ीर बनी थी और उन्हीं दिनों गुजरात के उना में ऐसे ही गोआतंकियों द्वारा गाय के नाम पर दलित परिवार पर बरपाए कहर ने पूरे सूबे में गोया भूचाल ला दिया था।

दलितों न ऐलान किया था कि वह अपने परंपरागंत कहे गए पेशों से तौबा करेंगे और जगह जगह प्रदर्शन हुए थे। उना के सामधियाला परिवार को दुख हर दलित एवं हर वंचित का दुख बन गया था।

उन्हीं दिनों पहली दफा पूरे मुल्क ने युवा पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता जिग्नेश मेवाणी का नाम सुना था, जिन्होंने अपने प्रतिबद्ध साथियों की टीम के साथ इस स्वतः स्फूर्त आंदोलन को दिशा दी थी।

नयी सोच एवं नयी ऊर्जा वाले इस नेतृत्व का ही कमाल था कि सूबे के आबादी का महज 7 फीसदी होने के बावजूद और एक समय से इन्हीं के एक हिस्से के हिंदुत्व की राजनीति के सम्मोहन में आने के बावजूद दलितों का यह आंदोलन- अन्य जनतांत्रिक ताकतों के साथ मिल कर एक व्यापक जन आंदोलन की शक्ल धारण कर सका था।

देश भर के सेक्युलर- जनतांत्रिक लोगों, ताकतों के अंदर एक नया विश्वास जगा था कि मोदी मॉडल अजेय नहीं है, अगर उनके अपने सूबे में उन्हें चुनौती दी जा सकती है, तो यह सिलसिला देश में भी दोहराया जा सकता है।

गुजरात की सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य की गहरी समझ एवं आंदोलनकारी की भूमिका आदि ने जिग्नेश को पूरे देश के दलितों, युवाओं, सेक्युलर एवं जनतांत्रिक लोगों के बीच एक स्टार की हैसियत प्रदान की थी।  

यह 2022 का साल है, छह साल के इस इस वक्फ़े में साबरमती ही नहीं देश की तमाम नदियों से ढेर सारा पानी गुजर गया है।

खुद जिग्नेश ने भी लंबी यात्रा तय की है, वह खुद दलित आंदोलन के अंदर अस्मिता बनाम अस्तित्व को उठाने में तथा दलित आंदोलन की अपनी सीमाएं स्पष्ट करने में तथा दलित एवं वाम आंदोलन की एकता के हिमायती के तौर पर उभरे हैं। 

और 2017 के चुनावों में गुजरात से निर्दलीय विधायक के तौर पर वह चुने गए हैं, जिनका समर्थन कांग्रेस ही नहीं बल्कि सभी गैरभाजपा पार्टियों ने किया था। विगत पांच वर्षों में उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आयी है और जो लगातार विभिन्न जनांदोलनों के साथ मिल कर अपने व्यापक सरोकारों को प्रगट करते रहे हैं। इधर बीच एक महत्वपूर्ण फरक यह भी आया है कि उन्होंने कांग्रेस के साथ औपचारिक रूप से जुड़ने का फैसला भी लिया है।

अभी 14 अप्रैल के दिन अंबेडकर जयंती के दिन उनकी अगुआई में हजारों की तादाद में लंबी बाइक यात्रा निकली थी जिसका समापन सारंगपुर स्थित अंबेडकर प्रतिमा के पास हुआ था। 

लेकिन फिलवक्त गुजरात के मजलूमों, दलितों, युवाओं की आवाज़ बन कर उभरे जिग्नेश मेवाणी सुदूर असम की जेल में है।

यह बात काबिलेगौर है कि जिग्नेश मेवाणी की गिरफ़्तारी ने गुजरात के शोषित उत्पीड़ित तबकों मे जबरदस्त जनाक्रोश को जन्म दिया है। और जैसे कि रिपोर्टे बताती है कि पूरे गुजरात में आज भी जगह जगह प्रदर्शन हो रहे है।

ख़बरों के मुताबिक यह प्रदर्शन दो स्तरों पर हो रहे हैं एक तो कांग्रेस पार्टी के स्तर पर और दूसरे सिविल सोसायटी के तमाम समूहों, संगठनों की पहल पर जिनमें दलित संगठनों की शिरकत रेखांकित करने वाली है। सोमवार /25 अप्रैल/ को सैकड़ों की तादाद में लोग मेहसाणा में इकट्ठा हुए और वहां उन्होंने अपने जिला प्रशासन को ज्ञापन दिया जिसमें उनके समर्थकों ने अपने खून से अंगूठा लगा कर दस्तखत किया था।

और अब ताज़ा समाचार यह भी आया है कि गुजरात के एक हजार से अधिक गांवों के दलित मेवाणी की गिरफ़्तारी को ‘‘दलित अस्मिता के अपमान’’ के तौर पर रेखांकित करते हुए 1 मई को- जिसे गुजरात का स्थापना दिवस कहा जाता है- रात को अपने अपने घरों की लाईट बंद रखेंगे, इतना ही नहीं वह एक याचिका पर दस्तखत करेंगे जिसमें न केवल जिग्नेश मेवाणी बल्कि दलितों एवं अन्य हाशियाकृत तबकों पर राजनीतिक कारणों से लादे गए तमाम मुकदमों को खारिज करने की मांग करेंगे।

अग्रणी दलित एक्टिविस्ट मार्टिन मैकवान- जो नवसर्जन नामक संस्था के अध्यक्ष हैं और कई दशको से गुजरात में सक्रिय हैं उन्होने पिछले दिनों यह ऐलान किया। 

केन्द्र एवं तमाम राज्यों में सत्तासीन भाजपा सरकार जिसके पास अपनी उपलब्धियां दिखाने के नाम पर कुछ भी नहीं है वह ध्रुवीकरण के अपने एजेंडे को ही आगे बढ़ाने में लगी है, उसके लिए निश्चित तौर पर जिग्नेश मेवाणी जैसे नेताओं का लोकप्रिय बने रहना एक चुनौती है। और चूंकि सीधी लड़ाई में वह उनका मुकाबला नही कर सकते, इसीलिए दूसरे राज्य की मशीनरी को इस काम में लगा दिया गया है।

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