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बहस: क्यों यादवों को मुसलमानों के पक्ष में डटा रहना चाहिए!

आरएसएस-बीजेपी की मौजूदा राजनीतिक तैयारी को देखकर के अखिलेश यादव को मुसलमानों के साथ-साथ दलितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी यादवों के कंधे पर डालनी चाहिए।
Tejaswi and Akhilesh

अभी कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश सहित चार और विधानसभा चुनावों का परिणाम आया है और जिस रूप में बीजेपी ने सत्ता में वापसी की है, वह अलग तरह के राजनीतिक समीकरण की तरफ इशारा करता है। अगर पिछले 30-32 वर्षों की गोबरपट्टी की राजनीति का लेखा-जोखा करें तो हम पाते हैं कि बीजेपी के शासनकाल में निश्चित रूप से सबसे अधिक कीमत मुसलमानों को चुकानी पड़ी है। लेकिन एक दूसरी सच्चाई पर हम ध्यान नहीं देते हैं कि मुसलमानों के अलावा उन जातियों को भी ठीक-ठाक ही राजनीतिक व सामाजिक कीमत चुकानी पड़ी है जिनके साथ मुसलमानों ने राजनीतिक गठबंधन किया था।

जिन जातियों के साथ मिलकर मुसलमानों ने 1990 के शुरूआती दौर में कांग्रेस को और बाद में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर रखने में भूमिका निभायी, उन जातियों को इसकी अच्छी-खासी कीमत चुकानी पड़ी है। उदाहरण के लिए, मोदी-शाह के राजनीतिक क्षितिज पर काबिज होने के बाद महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में महारों को, उत्तर प्रदेश में जाटवों को, हरियाणा में जाटों को व बिहार और उत्तर प्रदेश में यादवों को भी मुसलमानों की तरह हाशिये पर डालने की कोशिश पूरी हो गयी है। हां, यह बात बिल्कुल अलग है कि उन जातियों के कुछ लोगों को मलाईदार पद जरूर दिये गये हैं जबकि मुसलमानों को पूरी तरह निषिद्ध कर दिया गया है। यहां ध्यान रखना होगा कि हरियाणा में खट्टर से पहले का मुख्यमंत्री जाट था, उत्तर प्रदेश में योगी से पहले तक यादव मुख्यमंत्री था।

राजनीति के इस कालखंड के विकास को समझने के लिए हमें मंडल की राजनीति के शुरुआती दिनों को देखने की जरूरत होगी। अगर इसे मुसलमान बनाम हिंदू के रूप में देखेंगे तो हमें वही चीजें नहीं दिखायी पड़ेंगी जो हम देखना चाहते हैं बल्कि वही दिखायी देगा जो बीजेपी-आरएसएस के बौद्धिक हमें दिखाना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, वर्तमान समय में जो माहौल बना दिया गया है उससे लगता है कि पूरे उत्तर भारत में मुसलमानों को धकिया कर किनारे कर दिया गया है जबकि हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में 34 सीटें मुसलमान विधायक चुनाव जीतकर आए हैं। जबकि उसी उत्तर प्रदेश में पहली बार सिर्फ 23 यादव विधायक चुनाव जीत पाए हैं।

महाराष्ट्र की बात करें तो महार भले ही वहां मुख्यमंत्री न रहा हो, लेकिन दलितों की सबसे मुखर आवाज था। सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिकी में उनकी सुनी जाती थी। बिहार की स्थिति थोड़ा भिन्न थी क्योंकि वहां लालू यादव 2005 में ही सत्ता से बेदखल कर दिये गये थे, लेकिन यादवों को पूरी तरह हाशिये पर धकेलने में बीजेपी और नीतीश को सफलता नहीं मिली थी, जो मोदी के सत्ता में आने के बाद मिली है।

आरएसएस-बीजेपी ने इसके लिए पूरी तैयारी की, जाल बिछाया और उन जातियों के नेता उसमें फंसते चले गये। बिहार और उत्तर प्रदेश में जाटवों और यादवों ने मुसलमानों व समाज के विभिन्न प्रगतिशील तबके के साथ मिलकर सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। जब भाजपा का नेतृत्व धार्मिक कट्टरता फैलाकर अपना रसूख बढ़ा रहा था तब उसे सीधे तौर पर इन्हीं दो जातियों ने चुनौती दी। इसके लिए उन्होंने न सिर्फ राजनीतिक गठबंधन बनाया, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी एक-दूसरे के साथ आए। इसकी शुरुआत बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुई जब कांशीराम और मुलायम सिंह ने मिलकर एक मजबूत राजनीतिक गठबंधन बनाया जिसमें मुसलमानों ने सीधे तौर पर सबसे अहम भूमिका निभायी। इसी का परिणाम था कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद भी बीजेपी वहां सत्ता पर तत्काल काबिज नहीं हो पायी जबकि उसके पास कल्याण सिंह जैसे बड़े रुतबे वाले नेता थे। यही हाल बिहार में था। जबरदस्त धार्मिक गोलबंदी का लालू ने जातिगत गोलबंदी से मुकाबला किया जिसमें मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग नहीं होने दिया।

बदली हुई परिस्थिति में हालांकि बीजेपी ने रणनीतिक ब्लूप्रिंट में काफी फेरबदल किया। उसने उत्तर प्रदेश में दलितों के बीच गोलबंदी करनी शुरू की और दलितों के ही नायकों की व्याख्या हिंदुत्व के इर्द-गिर्द करनी शुरू कर दी। समाजशास्त्री बद्री नारायण, जिनका झुकाव महीन हिंदुत्व की तरफ रहा है, ने अपनी पुस्तक फैसिनेटिंग हिन्दुत्वाः सैफरॉन पॉलिटिक्स एंड दलित मोबलाइजेशन इन नॉर्थ इंडिया (‘हिंदुत्व का मोहिनी मंत्र’) में इस बात का विस्तार से जिक्र किया है कि किस प्रकार बीजेपी ने दलितों के प्रतीकों को हिंदुत्व के नायकों के रूप में पेश किया। चूंकि हमारा इतिहास दमितों के इतिहास के प्रति हमेशा से ही क्रूर रहा है इसलिए समाज की सभी जातियां अपने को ब्राह्मण के समानान्तर रखने की कोशिश करती हैं। इसी कारण दलितों के प्रतीक भी हिंदुत्व के नायकों की तरह मुसलमानों और अपने से कमतर जातियों के खिलाफ अवतरित किये जाने लगे। यह हिंदुत्व की प्रयोगशाला की बड़ी जीत थी।

इसलिए यहां सवाल यह नहीं है कि लोकतांत्रिक पद्धति में मुसलमानों की हैसियत खत्म हो गयी है या नहीं हो पायी है। सवाल यह है कि मुसलमानों की हैसियत कितनी रह गयी है? और इसका जवाब यह है कि मुसलमानों की हैसियत पिछले आठ वर्षों में बिहार व उत्तर प्रदेश के यादवों, हरियाणा के जाटों, महाराष्ट्र के महारों और उत्तर प्रदेश के जाटवों से थोड़ी ज्यादा बुरी है। दूसरा अंतर यह है कि मुसलमानों के बारे में बार-बार बताया जाता है कि उनकी हैसियत खत्म कर दी गयी है। रणनीतिक रूप से बीजेपी यह बात सिर्फ मुसलमानों को नहीं बताना चाह रही है बल्कि इसके बहाने वह उन जातियों को यह स्पष्ट संदेश भी दे रही है कि फिलहाल तुम्हें सिर्फ किनारे लगाया गया है, अगर साथ आओगे तो उपकृत भी किया जा सकता है। परिणामस्वरूप उन जातियों को सिर्फ वोटर बनाकर रख दिया गया है और अब उनकी राजनीतिक हैसियत काफी कम कर दी गयी है। इसमें उन जातियों के कई मलाईदार नेताओं ने बड़ी भूमिका निभायी है।

कुछ लोगों का यह सवाल हो सकता है कि जब उन जातियों की हैसियत खत्म कर दी गयी है तो नित्यानंद राय, संजीव बालियान या फिर मुख्तार अब्बास नकवी को मंत्री क्यों बनाया गया है? तो इसका जवाब सिर्फ यह है कि वे बीजेपी के गमले हैं जिन्हें घर सजाने के लिए वक्त-बेवक्त इस्तेमाल किया जाता है।

दो साल पहले संपन्न हुए सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में मुसलमान सांसदों की संख्या 22 से बढ़कर 27 हो गयी है। वैसे तो सत्ताधारी एनडीए के घटक दलों के सांसदों की संख्या भी बढ़ी है, लेकिन मुसलमान सांसदों को देखें तो पूरे एनडीए से सिर्फ एक मुसलमान सांसद है जबकि बीजेपी के 303 सांसदों में एक भी मुसलमान नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में तीन मुसलमान मंत्री थे जबकि इस बार मुसलमान के नाम पर सिर्फ मुख्तार अब्बास नकवी हैं।

फिर क्या माना जाए कि देश पुराने समय में लौट आया है और भाजपा अब मुसलमानों के खिलाफ उस रूप में उग्र नहीं रह गयी है जिस रूप में पहले थी? नहीं, वैसा तो बिल्कुल ही नहीं हुआ है। राजसत्ता के निशाने पर अब मुसलमानों के साथ साथ यादव, जाटव और जाट को जोड़ दिया गया है। पिछले आठ वर्षों में मोदी सरकार और पांच वर्षों में उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने हर कदम उसी तरह उठाया भी है और उसे प्रचारित भी उसी रूप में किया गया है जिससे कि धार्मिक गोलबंदी और मजबूत हो। इस पूरे समीकरण को किस रूप में पढ़ा जाना चाहिए या देखा जाना चाहिए? क्या हमें मान लेना चाहिए कि मुसलमानों के साथ-साथ जाटों, जाटवों, यादवों और महारों की राजनीति खत्म हो गयी है या फिर यह मानना चाहिए कि मुसलमान सहित उन समुदायों को राजनीतिक रूप से कुछ अलग करने की जरूरत है?

हकीकत यह है कि उन समुदायों के वर्तमान नेतृत्व ने अपनी ही विरासत से कुछ भी सीखने से इनकार कर दिया है। कमोबेश अब दलित-पिछड़ा नेतृत्व सवर्ण बीजेपी नेतृत्व की तरह प्रयोग करने के बारे में नहीं सोचता, बल्कि येन-केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज होना चाहता है। उत्तर प्रदेश में तो हालात सबसे खराब हैं जहां मुलायम सिंह की विरासत संभाल रहे अखिलेश व कांशीराम की विरासत संभाल रही मायावती सवर्णों के चरणों में लोटपोट हो रहे हैं। जबकि जरूरत इस बात की है कि इन दोनों नेताओं को लालू यादव से सीखने की जरूरत है। लालू यादव ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में यादवों को इस बात के लिए तैयार किया था कि मुसलमानों के साथ होने वाली सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ हर हाल में खड़ा होना होगा। लालू यादव का वह फार्मूला बिहार में आज भी उतना ही कारगर है जबकि उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने इस तरह का कोई कॉल नहीं दिया। आरएसएस-बीजेपी की मौजूदा राजनीतिक तैयारी को देखकर के अखिलेश यादव को मुसलमानों के साथ-साथ दलितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी यादवों के कंधे पर डालनी चाहिए। क्योंकि इस चुनाव में मायावती के कमजोर होने से दलितों के ऊपर जातीय उत्पीड़न की घटनाएं भी बढ़ सकती है। अगर यूपी में अखिलेश यादव और बिहार में तेजस्वी जादव ऐसा करने में सफल होते हैं तो इतिहास की धारा मोड़ सकते हैं अन्यथा अपने साथ-साथ अपनी जाति को भी इतिहास के गर्त में डूबो देगें!

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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