दिल्ली : मोदी सरकार का सत्ता हथियाने का नया मॉडल
15 मार्च को, केंद्र सरकार ने दिल्ली विधान सभा द्वारा शासन करने वाले मौजूदा कानून में संशोधन करने के लिए संसद में एक विधेयक पेश किया है। दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश है जहां एक निर्वाचित विधान सभा और उसकी अपनी सरकार है। इसके पास किसी भी अन्य राज्य सरकार की तरह पूर्ण अधिकार नहीं हैं, लेकिन दिल्ली सरकार फिर भी लगभग 2 करोड़ आबादी वाले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के प्रशासन पर काफी कुछ लोकतान्त्रिक नियंत्रण रखती है।
कानून व्यवस्था और ज़मीन को छोड़कर, अन्य सभी विषयों पर दिल्ली की निर्वाचित सरकार कानून बना सकती है और उन पर कार्रवाई कर सकती है। इस व्यवस्था को अब नए बदलावों के माध्यम से केंद्र सरकार के पक्ष में करने की कोशिश की जा रही है।
यह कदम भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार के बीच लंबे समय से चले आ रहे टकराव का एक ओर घटक है।
भाजपा ने ‘आप’ पार्टी से लगातार तीन चुनाव हारे हैं जिसमें पिछले दो में हार निर्णायक रही है। लोगों के जनादेश को भाजपा ने कभी स्वीकार नहीं किया और वह लगातार दिल्ली सरकार के कामकाज में बाधा डालने की कोशिश करती रही है, जिससे हालात बिगड़ गए और राजनीतिक विद्वेष बढ़ गया।
इस नए कानून/कदम के साथ, मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार एक बार में सारे मुद्दे का निपटारा करना चाहती है। यह कानून उपराज्यपाल (केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त) की शक्तियों को बढ़ाएगा और निर्वाचित सरकार की शक्तियों को सीमित कर देगा। यह सत्ता हड़पने से कम नहीं है।
आख़िर ये नया क़ानून है क्या?
नया कानून "दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार (संशोधन) विधेयक, 2021" कहलाता है जो मूल कानून के कुछ प्रावधानों में संशोधन करेगा, जिसे संसद द्वारा पारित "राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार का अधिनियम, 1991 (1of 1992)" कहा जाता है। प्रस्तावित बदलाव ये हैं:
1. मूल अधिनियम की धारा 21 में एक उप खंड शामिल कर उसे बदल दिया जाएगा जो कहता है कि "सरकार" शब्द का अर्थ उपराज्यपाल (एलजी) होगा। इसलिए, दिल्ली सरकार द्वारा पारित सभी कानूनों को एलजी की मंजूरी अनिवार्य होगी।
ऐसे मामले में, आखिर विधानसभा है ही क्यों? 1991 के कानून का पूरा उद्देश्य, जिसने दिल्ली की विधानसभा और इसकी निर्वाचित सरकार का निर्माण किया था, केंद्र द्वारा नियुक्त नौकरशाहों के शासन को समाप्त करना था। यह वर्षों के संघर्ष का नतीजा था, जिसमें, विडंबना यह है कि खुद भाजपा भी पूरी तरह शामिल थी। वास्तव में, इसने पहला विधानसभा चुनाव जीता था। लेकिन वह तब था। अब, केंद्र में मोदी और अमित शाह सत्ता में है और ठीक उनकी नाक के नीचे राजधानी को नियंत्रित करने वाली कोई अन्य पार्टी हो, ये उनके बर्दाश्त के बाहर की बात है।
2. मूल कानून की धारा 24 में कुछ विशिष्ट मामलों को दर्शाया गया है जिन पर उपराज्यपाल अपनी सहमति नहीं दे सकते हैं। इनमें हाई कोर्ट की शक्तियों को शामिल करने जैसे मामले भी शामिल थे। नए कानून में, मोदी सरकार एक नया खंड जोड़ रही है, जिसके तहत एलजी की शक्ति को बढ़ाया जा रहा है और वे किसी भी मसले पर रोक लगा सकते हैं जिनके बारे में वे सोच सकते है कि वे मसले विधानसभा की शक्ति से परे है।
यह एक अंधी शक्ति है जिसे एलजी को दिया जा रहा है और इस तरह जो भी केंद्र में भाजपा सरकार के राजनीतिक हितों के अनुकूल नहीं है वे उसे रोक सकते हैं। पूर्व में, एलजी ने दिल्ली सरकार की विभिन्न योजनाओं जैसे कि मुहल्ला क्लीनिकों, राशन, मुफ्त बिजली और पानी, इत्यादि को रोक दिया था या उनको लागू करने में देरी का सबब बने थे।
3. मूल कानून की धारा 33 यह निर्धारित करती है कि दिल्ली विधानसभा को यह तय करने की शक्ति है कि वह अपने काम का संचालन कैसे करेगी। इसमें यह भी कहा गया कि एलजी राष्ट्रपति के परामर्श और अध्यक्ष से विचार विमर्श के माध्यम से कुछ चीजों को प्रतिबंधित कर सकते हैं।
नया कानून इसमें भी दो छेद करता है। पहला, यह तय करता है कि व्यापार के नियम जो दिल्ली विधानसभा अपने लिए बनाती है वे, "लोक सभा में व्यापार की प्रक्रिया और आचरण नियमों के साथ असंगत नहीं होने चाहिए" इसका मतलब है कि उसे अपना काम करने में लोकसभा का पालन करना होगा। और दूसरा जो एक शर्त है जो स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट करती है कि विधानसभा (या इसकी समितियां) किसी भी "प्रशासनिक कार्यों" के दिन प्रति दिन के काम के बारे में पूछताछ नहीं कर सकती हैं।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो दिल्ली विधानसभा केंद्र सरकार के इशारे पर काम करने वाले नौकरशाहों द्वारा लिए गए निर्णयों पर सवाल नहीं उठा सकती है, भले ही वे "दिन-प्रतिदिन" के प्रशासन के कामकाज से संबंधित हों। इन मामलों में कोई शक्ति नहीं होने के कारण, विधानसभा (और दिल्ली सरकार) केंद्र सरकार और उसके द्वारा नियुक्त एलजी, दिल्ली में जो कुछ भी करे वह सिर्फ एक मुक-दर्शक बन कर रह जाएगी।
4. मूल कानून की धारा 44 एलजी के काम और शक्तियों के संचालन से संबंधित है। नया कानून कहता है कि मंत्रिपरिषद, मंत्री, राज्य सरकार को, एलजी द्वारा लिए गए निर्णयों पर "कोई भी कार्यवाही" करने के से पहले एलजी की "राय" लेनी होगी। एलजी उन मामलों की सूची जारी करेगा जिन पर उनकी राय अनिवार्य है।
यह फिर से दिल्ली की विधानसभा और निर्वाचित सरकार के अधिकारों को गंभीर रूप से कम कर देता है और एलजी को पूरी की पूरी शक्ति सौंप देता है।
सर्वोच्च न्यायालय के पिछले निर्णय
2014-2018 के दौरान राज्य और केंद्र सरकारों के बीच ऐसा राज्य की शक्तियों को लेकर ऐसा घमासान चला था कि मामला अदालत में चला गया। 2017 में, शीर्ष अदालत ने कहा था कि कानून के अनुसार, एलजी को राज्य सरकार पर वर्चस्व हासिल है, लेकिन उसने एलजी को सकारात्मक और रचनात्मक रूप से शामिल होने की सलाह दी ताकि राज्य सरकार सुचारू रूप से काम कर सके। अदालत ने तो यहाँ तक कह दिया कि एलजी को मंजूरी या राय देने के लिए भेजी गई फाइलों को दबाने की जरूरत नहीं है। यह अंतिम शब्द नहीं थे क्योंकि कई बड़े संवैधानिक मुद्दे अभी भी लटके हुए थे और उन्हे संविधान पीठ में भेज दिया गया था।
जुलाई 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने शर्त रखी थी कि एलजी को राज्य सरकार की सलाह पर काम करना चाहिए और दिल्ली सरकार को सभी निर्णयों पर एलजी की सहमति का इंतजार नहीं करना चाहिए। यह शर्त केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में एलजी और चुनी हुई सरकार के बीच चल रही कड़वी लड़ाई को शांत करने के लिए रखी गई थी। हालाँकि सभी मामलों को हल नहीं किया जा सका था, लेकिन बड़े पैमाने पर, इसने दोनों के बीच रेखाओं का सीमांकन कर दिया था।
नया कानून केंद्र सरकार द्वारा शीर्ष अदालत द्वारा स्थापित इस समीकरण को बदलने का एक कदम लगता है। यह फिर से सत्ता के केंद्र को निर्णायक रूप से केंद्र सरकार के पाले में बदल देता है।
सत्ता हथियाने का नया मॉडल
भाजपा का राज्यों में सत्ता हथियाने की कोशिश करने का एक लंबा ट्रैक रिकॉर्ड है। पहले भी देश ने भाजपा के विचित्र तमाशे को एक राज्य में चुनाव हारने के बाद भी विद्रोहियों को शामिल करके सत्ता में आते देखा है। यह अरुणाचल प्रदेश (2014), बिहार (2015), कर्नाटक (2019), मध्य प्रदेश (2020) में हुआ है। हाल ही में, पुडुचेरी में, भाजपा ने ऐसा ही किया, जिसके कारण सरकार विधानसभा चुनाव होने के ठीक पहले हफ़्ते में गिर गई और अब चुनाव प्रक्रिया चल रही है, वह भी तमिलनाडु के एक भाजपा नेता के उपराज्यपाल बनने के अधीन ये प्रक्रिया चल रही है।
इसके अलावा, चुनाव परिणाम आने के बाद गठबंधन बनाने के अन्य मॉडल भी हैं जहां वे चुनाव हार जाते हैं। भाजपा के तहत असीमित संसाधन इसका बड़ा आधार है जो निस्संदेह छोटे दलों के झुंड को एक साथ लाने में मदद करता है। ऐसा झारखंड (2014), गोवा (2017), मणिपुर (2017), मेघालय (2018), और हरियाणा (2019) में देखा गया था।
दिल्ली के मामले में यह कदम हमले का एक नया तरीका है: केंद्र सरकार के प्रॉक्सी के ज़रिए कानून और नियम में बदलाव। यह न केवल दिल्ली के लिए बल्कि पूरे देश के लिए एक खतरनाक बात है। यह दर्शाता है कि भाजपा राज्यों में अधिक सत्ता हासिल करने के लिए केवल कानून बदलने के लिए संसद में अपने बहुमत का इस्तेमाल करने में संकोच नहीं कर रही है। जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करते हुए, राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित किया और विरोध को दबाने के लिए लंबा लॉकडाउन-कम-इंटरनेट बंद लागू करते हुए ऐसा किया।
दिल्ली में, यह इतना आसान नहीं होगा क्योंकि ‘आप’ सरकार को दिल्ली की जनता का बड़ा समर्थन हासिल है और इसने नए कानून का बड़ी तेजी से खंडन किया है।
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