दिल्ली हिंसा : हर गली में गुस्सा, नफ़रत और झूठी-सच्ची कहानियां मिलीं
'इस देश पर फिर से मुगलों का राज नहीं होगा' यह पहली लाइन थी, जिसे मैंने दिल्ली की गलियों में लगातार तीन दिन तक चली हिंसा के बाद ज़मीन पर जाकर सुना था। जिस गली से मैंने यह बात सुनी थी वह दिल्ली के 'खजूरी खुर्द' का इलाका था। जिस शख़्स से यह बात सुनी थी उससे बात करने का मन हुआ लेकिन वह एक स्कूटी पर बैठकर गली में खड़ी भीड़ से बातें कर रहा था, जिस भीड़ में खड़े लोग मुस्लिमों पर आरोप लगाते हुए अपने साथ हुई हिंसा का जिक्र किये जा रहे थे।
उनकी बातों में हिंसा का जिक्र कम और मुस्लिमों के प्रति नफ़रत की बातें अधिक थीं। जैसे कि वो हमारी खातें है लेकिन गाते आमिर खान, सलमान खान और शाहरुख़ खान, नुसरत फतह अली खान की हैं। मुस्लिम दुकानों पर चाँद और तारे की फोटो होती है। ये लोग एक-दूसरे के लिए जीते हैं। इन क*** (मुस्लिमों) को ...देना चाहिए। इन बातों से बनने वाला माहौल बहुत डरावना था। यहां पर स्कूटी वाले शख्स से पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई कि आप ऐसा क्यों कह रहे है कि इस देश में मुगलों का राज कैसे आ जाएगा? मैं नहीं पूछ पाया। जवाब के तौर पर मुझे यह मिला कि उसकी स्कूटी पर '' 'ब्राह्मण' लिखा हुआ था।
टूटे हुए शीशों, बोतलों और जली हुई दुकानों को देखते हुये मैं आगे बढ़ा जा रहा था। रास्ता सुनसान था। इक्का- दुक्का दुकान खुली थी। वैसा महसूस हो रहा था जैसे मुर्दा घाटों पर महसूस होता है। एक तरह की चुप्पी जो सीधे जाकर मन की उदासी से अपना जुड़ाव कर लेती है। इसके बाद पानी खरीदने के बहाने पर एक दुकान पर रुका। वजह यह थी कि दुकानदार से माहौल समझना था। उस दुकानदार से जो अपने पेशे की वजह से हर रोज समाज के कई तरह के लोगों से मिलते हैं। जिनके पास समाज का सिलसिलेवार विश्लेषण भले न हो लेकिन समाज की कहानियां बहुत सारी होती हैं।
पहली दफा में वह बात नहीं करना चाहता था। मैंने कहा कि मैं कोई पत्रकार नहीं हो भाई। न ही कोई रिसर्चर। बस आप की तरह एक आम इंसान हूं। दिल्ली पढ़ाई करने आया हूं। तीन दिन की हिंसा देखने के बाद रहा नहीं गया इसलिए घूम घूमकर आप लोगों से बात करने चला आया। शायद किसी से बात करूं और कोई किसी को मारने से पहले एक बार सोचे। वह मेरी बात सुनकर हंसने लगा। कहने लगा कि आप जैसे लोग बेवकूफ होते है। हद दर्जे के बेवकूफ। आप इससे पहले कब आए इस मोहल्ले में इन लोगों से बात करने। कभी नहीं आए होंगे। जरा सोचकर देखिए कि इस दुकान पर भीड़ होती और आज से दस दिन पहले अगर आप यहां आते तो क्या बात करते?आप बात ही नहीं करते। क्योंकि आपको ऐसा महसूस ही नहीं होता कि यहां कुछ होगा? आप मीडिया वाले होते तो मैं आपसे पक्का बात नहीं करता। लेकिन एक स्टूडेंट है तो बताता हूं।
"मेरी दुकान पर हर रोज शाहीन बाग के चर्चे होते हैं। लोग यह तक कहते हैं कि सरकार को बम फेंककर उन्हें उड़ा देना चाहिए। वो रास्ता क्यों नहीं खोल रहे हैं। उनकी बातों से ऐसा लगता है कि जैसे उस रास्ते के बंद होने की वजह से वही सबसे अधिक परेशान हैं जो वहां जाते नहीं है। चुनाव के पहले मेरे दुकान के सामने ही केस हो गया। दो लोग हाथापाई कर बैठे। कोई आपकी तरह ही कह रहा था कि अपने हक की लड़ाई लड़ना अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट भी यह कह रहा है। दूसरा कह रहा था कि किस हक की वह बात कर रहे हैं। दुनिया में एक भी हिन्दू मुल्क नहीं हैं। हम उन्हें यहां रहने दे रहे हैं। यह क्या कम है। इस वजह सा मारपीट हुई। और दंगे जैसी स्थति बनी। क्या आपने इस खबर के बारे में सुना था?” मैंने कहा नहीं। "आपने इसलिए नहीं सुना क्योंकि आग नहीं लगी थी आग लगते-लगते बच गई थी। अगर आग लगती तो आप सुनते...।"
फिर एक सांस लेकर उन्होंने बोलना शुरू किया, "भले ही दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने 62 सीटें जीती हैं लेकिन पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि मेरी दुकान पर आने वाले नब्बे फीसदी लोगों ने भाजपा को वोट दिया था। एक दिन तो ऐसा हुआ कि कुछ लोग आकर कहने लगे कि मुस्लिमों से यह कहना कि वह आम आदमी पार्टी को वोट नहीं देंगे तभी वह सामान खरीद पाएंगे। मुझे पता था कि वह मज़ाक कर रहे थे लेकिन यह मज़ाक भी ख़तरनाक था। यह मज़ाक भी एक तरह की वजह है जिसकी वजह से आगजनी हुई है।"
मैंने कहा कि आप ठीक कह रहे है। चाहे एक दूसरे को लेकर बर्दाश्त न करने वाले तक असहमतियां हों फिर भी एक दूसरे को मारना नहीं चाहिए। वह मेरी हां में हां मिलाने लगे।
बात करके आगे बढ़ा। जली हुई मोटरगाड़ियां हर जगह दिख रही थीं। लोग सड़कों पर नहीं खड़े थे। सड़कों से अंदर जाती हुई गलियों पर खड़े थे। झुंड में खड़े थे। तकरीबन सबका कहना था कि वह अपनी गली की रक्षा करने के लिए खड़े हुए हैं। रक्षा के नाम पर केवल मर्द खड़े थे। महिलाएं और बुजुर्ग दूर- दूर तक नजर नहीं दिख रहे थे। भीड़ में तकरीबन 15 साल से 50 साल के लोग थे। यह समझिये की नौजवानों की मौजूदगी अधिक थी। शायद वैसे ही नौजवान जिनके लिए एक तरफ़ कहा जाता है कि यह लोग भारत की तस्वीर बदलेंगे।
मेरे दिमाग में गजब का विरोधाभास चल रहा था। एक तरफ संविधान बचाने के नाम पर देशभर में सड़कों पर उतर रहे नौजवान और दूसरी तरफ उनके शब्दों में कहा जाए तो हिन्दुओं को मुल्लों से बचाने के लिए लड़ रहे नौजवान। उनके बीच बातें हो रही थी। समझिये बातें नहीं फेक (झूठी) कहानियां गढ़ी जा रही थीं। ऐसी-ऐसी कहानियां थीं जिनका कोई ओर-छोर नहीं था जैसे ये ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं….इन्होंने हमारे मंदिरों में आग लगाई है, पुजारी के हाथ काट दिए हैं। इन कहानियों को सुनकर-सुनाकर लोग गुस्से से लाल हो रहे थे, क्रूर हंसी हंस रहे थे। तेज़ आवाज़ में ऐलान किया जा रहा था- "इन गलियों में इन्हें मत आने देना। अब से कोई भी मुस्लिम रेहड़ी वाला इधर नहीं दिखना चाहिए। कोई भी इनसे सामान नहीं खरीदेगा। जो समान खरीदेगा वह कौम का गद्दार होगा, आंतकवादियों को शह देने वाला होगा।”
यह केवल एक गली पर खड़े हुए लोगों के झुंड बात नहीं थी। हर गली पर ऐसे ही अफवाहें चल रहीं थी। जिन अफवाहों में एक तार्किक इंसान के लिए कोई सच्चाई नहीं थी लेकिन वह सच्चाई के हद से पार ऐसी बातें थी, जिनके लिए वह मरने- मारने के लिए आतुर थे।
मैंने उनमें से किनारे खड़े किसी एक पूछ लिया क्या सचमुच मंदिर जलाया गया है? उसने कहा कि पता नहीं। लेकिन मुस्लिमों के हमले से बचने के लिए हिन्दुओं को एकजुट करना जरूरी है। लोग ऐसी ही बातों से एकजुट होते हैं। मैंने कहा कि यह तो पूरी तरह से अफवाह है। उसने कहा, “तुम साले मीडिया से लगते है भागो यहां से नहीं तो यहीं पर कूट दिए जाओगे।"
मैं वहां से आगे निकल गया। पैदल चलते- चलते तकरीबन पांच किलोमीटर हो चुके थे। अब मैं शेरपुर मुहल्ले में था। पुलिस अपने ताम-झाम के साथ सड़कों पर गश्त लगा रही थी। सुनसान सड़कों पर पुलिस को ऐसा देखना भीतर-भीतर मुझे डरा रहा था। यह डर इस बात का भी था कि शूट एंड साइट के दिन कहीं पुलिस मुझ पर ही गोली न चला दे और डर इस बात का भी था जो पुलिस को देखकर एक आम नागरिक के मन में उठता है कि पुलिस मार देगी। गश्त लागते हुए पुलिस वाले के आगे चल रहा एक पुलिस वाला अपनी पुलिसिया लाठी भांजते हुए चल रहा था। किसी भी शख्स को देखने पर यह कहते हुए चल रहा था कि 'भाग जाओ यहां से नहीं तो यही ( लाठी) तुम्हारे… डाल दूंगा।' आम आदमी को हटाने का तरीका यह गलत लग रहा था।
लेकिन जिस तरह का माहौल था, उसमें प्रशासन द्वारा फैलाया जा यह डर सही भी लग रहा था। यह देखते हुए मुझे नौकरशाही की गलियों में फैली वह बात याद आयी कि दंगा भले आम आदमी भड़काते हैं लेकिन वह चंद घंटों से ज्यादा बरकरार तभी रह पाता है ,जब नेताओं, नौकरशाही और पुलिस का उसे साथ मिलता है। इन लोगों के पास मुहल्ले के हर बेढब और बेढंग कामों और लोगों की जानकारी होती है। इसलिए अगर एक दिन से अधिक समय तक दंगा चला है तो इसका मतलब है कि आलाकमान दंगें रोकना नहीं चाहता था।
तभी आगे चलकर मैंने एक झुंड से पूछा कि पुलिस गश्त लगा रही है। लग रहा है कि माहौल धीरे-धीरे शांत हो जायेगा। उसमें से किसी एक ने कहा कि बहुत गुस्सा है यह इतनी जल्दी शांत नहीं होने वाला। तभी टीका लगाए मोटरसाइकिल चलाता हुआ एक इंसान चिल्लाते हुए कहते चला दिखा कि मार दिया रे, मार दिया। पुलिस वालों ने मार दिया। बाल- बाल बचा हूँ, गोली मोटरसाइकिल पर लगी है। यह सुनकर लोग भाग गए।
मैं भी आगे चला। आगे निकलकर एक दुकान पर बैठा जहां यह बात हो रही थी कि वो कौन है नाम नहीं पता, सरकार का बड़ा अधिकारी वह रात भर घूम रहा था, उसकी वजह से हिन्दू शांत हैं। वो मोदी जी जिसे बहुत मानते हैं। मैंने कहा अजीत डोभाल। हाँ, हाँ सही कह रहा है तू। उसने कुछ बचा लिया नहीं तो हिन्दू लोग मुस्लिमों को काट डालते। यहाँ कुछ माहौल शांत लग रहा था। तो मैंने पूछा कि आपने गाँधी का नाम सुना है तो उसमे से किसी एक ने कहा कि "मैं हिन्दू हूं और पेशे से मास्टर हूँ। जानता हूँ आप क्या पूछना चाह रहे है और क्या सोच रहे है? सुना है गाँधी का नाम। अरविंद केजरीवाल का भी नाम सुना है। लेकिन यहां जरूरत मोदी जी जैसे स्तर की लोगों की है। जो इस भीड़ में खड़ा हो जाए और कहे कि कोई हिंसा नहीं करेगा। बाकी ये हिन्दू बनकर घूम रहे लोग किसी की नहीं सुनने वाले। कोई है मोदी जी जितना बड़ा!
...लेकिन क्या करें यही लोग हिंसा करा रहे हैं।" मैंने पूछा कि आप ऐसा क्यों कह रहे है ट्रंप के समय मोदी जी ऐसा क्यों करेंगे? उसने जवाब दिया नहीं करेंगे। लेकिन कपिल मिश्रा, प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोग मोदी और अमित शाह जैसे नेताओं की तवज्जो देने की वजह से ही पैदा होते हैं। वो जो टीका और हाथ में रक्षासूत्र बांधे घूम रहे हैं,उनके मन में यह भी है कि हिन्दुओं को भड़काकर भाजपा में कैरियर बनाया जा सकता है। वह जो देख रहे हैं कि पुलिस कपिल मिश्रा को नहीं गिरफ्तार कर रही है, वह भलीभांति यह भी जानते हैं कि जो भी समाज को बाँट सकता है, उन्हें भाजपा की तरफ से इनाम दिया जाएगा।”
तभी किसी ने कहा कि ये मास्टर पगला गया है। मुस्लिमों ने हिन्दुओं को भजनपूरा में काट कर फेंक दिया। वह सीएए का विरोध करें, ठीक है। सड़क जाम करें, इसको भी सह लिया जाएगा लेकिन जब वह हिन्दुओं को काटा जाएगा तो लोगों का गुस्सा तो भड़केगा ही। मैंने कहा कि आपने देखा कि मुस्लिमों ने हिन्दुओं को काटा है तो उसने कहा कि आपने देखा कि हिन्दुओं को नहीं काटा गया। मैंने कहा कि जब हम एक-दूसरे को दोष देगें तो दोष उस पहले इंसान पर भी जाएगा जो दुनिया का पहला इंसान था। पलटकर उसने कहा कि हम भगत सिंह के वंशज हैं। आपकी तरह चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं।"
मैंने मन ही मन सोचा कि काश ये लोग भगत सिंह को एक बार भी पढ़ लेते तो कभी ऐसा न सोचते, न बोलते।
चलते-चलते करावल नगर आ गया था। वहाँ पर एक दुकानदार ने हाथ पर गिनती करके बता दिया कि अब तक 20 लोग मर चुके हैं। जबकि अख़बार में 13 लोगों की मरने की खबर थी। दुकानदार का कहना था कि "मुझे पंद्रह साल हो गए यहां पर काम करते हुए। मैंने झड़पें देखी हैं, हो हल्ला भी देखा है, कभी कभार ऐसी जगहों पर दंगे भी देखें हैं। लेकिन ऐसा पहली बार देखा है। 50 से ऊपर मरे हैं। अभी औरतों से खुलकर बात नहीं हो पा रही है। उनके साथ भी भयानक बदसलूकियाँ हुईं है। मेरा मानना है कि मुस्लिम बड़ी मुश्किल से लौटकर आएगा।
आएगा भी तो सहमा हुआ आएगा। कहीं दूसरी जगह लौट जाने की उम्मीद से आएगा। भीड़ में दिमाग नहीं काम करता भाई। पत्थर मैंने भी चलाएं हैं। अब पछतावा हो रहा है। इधर से उधर से जिन्होंने भी लोगों का मारा है, गुस्सा शांत होने पर उनमें से कुछ लोगों को जरूर पछतावा होगा। भले नेताओं को न हो। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।"
उसके बाद मैं मेन रोड पर आ गया। देर तक रुका रहा तो एक ऑटो वाला रुका। उसने कहा कि जल्दी बैठिये। जल्दी से यहाँ से निकलिए। अभी माहौल शांत न हुआ है। कुछ भी हो सकता है। मैं यह सोचते निकला गया कि अपनी सारी पढ़ाई धरी की धरी रह गई। मेरे पास ऐसे कोई शब्द और बातें नहीं हैं, जिसे सुनकर कोई जलती हुई आग थोड़ी सी मद्धम हो जाए।
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