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दिल्ली हिंसा : क्या पूर्वाग्रह और पक्षपाती शासन को वैध किया जा रहा है?

जब राज्य के सभी संस्थान सरकारी दबाव के सामने हथियार डाल देते हैं, तो आम आदमी का न्याय में विश्वास हिलने लगता है।
Delhi violence

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बुधवार को लोकसभा में दिल्ली हिंसा के दौरान पुलिसिया कार्रवाई का बचाव किया। दिल्ली के दूसरे इलाकों में दंगों को फैलने से रोकने और 36 घंटों में स्थिति को सामान्य करने के लिए अमित शाह ने पुलिस की तारीफ की। शाह ने दावा किया कि दिल्ली पुलिस का उत्साह बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल को हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में भेजने का फैसला भी उन्होंने ही लिया था। हांलाकि डोवाल को हिंसा के चौथे दिन भेजा गया था।

पांच मार्च को ''थर्ड यंग सुपरिटेडेंट ऑफ पुलिस कॉन्फ्रेंस'' में बोलते हुए डोवाल ने युवा अधिकारियों को पुलिस को एक ''निष्पक्ष और भरोसमंद शक्ति'' बनाने को कहा। डोभाल ने युवा अधिकारियों से उन लोगों के लिए काम करने की अपील की, जो सबसे ज़्यादा नजरंदाज, असुरक्षित महसूस करते हैं, जिन्हें लगता है कि उनके पास किसी भी तरह के अधिकार नहीं हैं और उनकी शिकायत की कहीं भी सुनवाई नहीं की जाएगी।''

दिल्ली हिंसा की पृष्ठभूमि में  डोभाल के भाषण द्वारा अधिकारियों को कानून व्यवस्था लागू करने के लिए ज़्यादा सक्रिय किरदार निभाने के लिए प्रेरित किया गया। लेकिन डोभाल जब युवा अधिकारियों को अपने संवैधानिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक बना रहे थे, तब उन्होंने यह नहीं बताया कि इन्हें निभाने के दौर में पुलिस को भी कानून का पालन करना है। जब वो संसद द्वारा बनाए गए कानून पर बोल रहे थे, तब वे एक बेहद अहम मुद्दे को छूना भूल गए। केवल इसलिए कि किसी कानून को संसद ने पास कर दिया है, तो इसका मतलब यह नहीं होता कि सत्ता पक्ष के विरोध में मतदान करने वाले देश के 62 फ़ीसदी लोगों से शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का अधिकार छीन लिया जाए या उन्हें अपनी बात ही न रखनी दी जाए।

लोकतंत्र में सहमति संसद के बाहर और भीतर वाद-विवाद और समझौते से बनती है। जैसा हरियाणा के जाट प्रदर्शन में हुआ, यह सही बात है कि विरोध प्रदर्शन अराजकता में नहीं बदल सकते। जाट प्रदर्शनों को रोकने के लिए हरियाणा की बीजेपी सरकार ने कुछ नहीं किया। हम जिस तरह के वक़्त मे रह रहे हैं, उसमें डोवाल के शब्दों का संदेश सरकारी नज़रिए से तो बिलुकल उलट ही दिखाई देते हैं।उत्तरप्रदेश को देखिए। वहां पुलिस ने CAA-NRC-NPR विरोधी प्रदर्शनकारियों के पोस्टर लगाकर साफ तौर पर कानून का उल्लंघन किया है। पोस्टर में प्रदर्शनकारियों की व्यक्तिगत जानकारी सार्वजनिक की गई थी।

उत्तरप्रदेश पुलिस की जांच अब भी जारी है। अभी जो भी आरोपी है, उन पर आरोपों को साबित किया जाना बाकी है। जिन लोगों का नाम पोस्टरों में चिपकाकर उनकी छवि खराब करने की कोशिश की  गई है, जब तक उन्हें ट्रॉयल में दोषी साबित नहीं कर दिया जाता, उनसे संबंधित कोई दावा नहीं किया जा सकता।

संविधान और कानून का उल्लंघन किए जाने पर इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा झड़के जाने के बाद भी उत्तरप्रदेश सरकार ने पोस्टरों को हटाने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की। उलटे हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी। नागरिक प्रदर्शनकारियों पर बर्बरता, बच्चों, महिलाओं और पुरुषों पर हमले, 19 लोगों की कथित हत्या जैसी चीजें दिखाती हैं कि पुलिस द्वारा गैरकानूनी काम किया जाना उत्तरप्रदेश में कितना सामान्य हो गया है। एक न्यायपूर्ण और भरोसे वाली पुलिसिंग करने के बजाए, उत्तरप्रदेश पुलिस बेहद पक्षपाती और पूर्वग्रह से भरी हुई नज़र आती है।

दिल्ली के लोगों ने 96 घंटों तक जो झेला और देखा, उसकी पृष्ठभूमि में दिल्ली पुलिस के लिए अमित शाह की तारीफ के धुर्रे उड़ जाते हैं। शाह का दावा है कि पुलिस ने 36 घंटों में स्थिति सामान्य करने में कामयाबी पाई थी। दंगों की स्थिति को 24 घंटे में काबू किया जा सकता है, फिर भी अगर यह चालू रहे तो या तो दंगों का खाका तैयार किया गया था या फिर पुलिस मशीनरी तरह असफल हो चुकी थी। पुलिस कॉल रिकॉर्ड से पता चलता है कि 22 फरवरी से 29 फरवरी के बीच पुलिस के पास मदद के लिए 21,000 फोन आए। 23 फरवरी के बाद अगले तीन दिनों में तो पुलिस को कम से कम 13,000 फोन किए गए। अकेले 26 फरवरी में 6,000 कॉल पुलिस को गईं। एक पुलिस अधिकारी की जानकारी के हवाले से हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट में इन आंकड़ों का खुलासा किया गया है। मदद के लिए की गईं इन फोनकॉल में ज़्यादातर का जवाब ही नहीं दिया गया। यहां तक दूसरे पुलिस जिले के बेनाम अधिकारियों ने भी गुस्सा जताया।

सिर्फ हिंसा पीड़ित ही खुद को मजबूर महसूस नहीं कर रहे थे, खुद पुलिस अधिकारियों ने भी उत्तरपूर्व दिल्ली के अपने साथी अधिकारियों को उदासीन पाया। एक बेनाम अधिकारी ने बताया कि दिल्ली में मौजूद हर पुलिस अधिकारी को राज्य में हो रही घटनाओं की जानकारी वॉयरलैस पर तुरंत मिल रही थीं।  इसके बावजूद हिंसाग्रस्त उत्तर-पूर्व दिल्ली में फोर्स भेजे जाने के आदेश नहीं आए।

जबसे हिंसा खत्म और जांच शुरू हुई है, पुलिस ने गिरफ्तार और हिरासत में लिए गए लोगों के रिश्तेदारों से उनकी जानकारी साझा करने से इंकार कर दिया है। इसलिए लोगों को उन 2,647 लोगों के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है, जिन्हें दिल्ली पुलिस ने हिंसा में हाथ होने के आरोप के चलते उठाया है। उन लोगों की FIR ही दर्ज नहीं की जा रही हैं, जो पुलिस पर बर्बरता और हत्या जैसे आरोप तक लगा रहे हैं। हॉस्पिटल भी किसी भी तरह के मेडिकोलीगल मामलों की जानकारी नहीं दे रहे हैं।

पुलिस के बारे में अपने अनुभव बताते हुए पीड़ितों ने बताया कि या तो उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की या फिर पुलिस खुद हिंसा में शामिल रही। यह दर्द तब और बढ़ जाता है, जब पुलिस शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को निशाना बनाते हुए हिंसा करने वालों को छोड़ रही है। केंद्र सरकार भी न तो कोई पछतावा दिखा रही है, न कोई शर्म जता रही है। जबकि सरकार पर पीड़ितों को निशाना बनाने का आरोप लगाया गया है।

अभूतपूर्व तरीके से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को लोगों को भरोस दिलाने के लिए उत्तर-पूर्व दिल्ली की सड़कों पर घूमना पड़ा, ताकि कानून-व्यवस्था का मुद्दा जनअराजकता में न बदल जाए, नहीं तो यह एक आंतरिक सुरक्षा का सिरदर्द बन जाता। इससे पुलिस के अधिकारियों में एक संदेश गया कि उन्हें तुरंत जरूरतमंदों की मदद करनी है। लेकिन इसके बावजूद ऐसा दिखता है कि हिंसा पीड़ितों को ही निशाना बनाया जा रहा है।

इसमें कोई शक नहीं है कि नुकसान हिंदू और मुस्लिमों दोनों का हुआ है। हालांकि बड़ी संख्या में मुस्लिमों को शारीरिक और आर्थिक घाटा उठाना पड़ा है। मारे गए 53 लोगों और 500 घायलों में से एक बड़ी संख्या मुस्लिमों की है। जबकि उत्तर-पूर्व दिल्ली की जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी महज़ तीस फ़ीसदी ही है।उनके 16 पूजा स्थलों पर हमले किए गए, उनके घर और दूसरी संपत्तियों को जला दिया गया। कुछ ऐसे सबूत मिलते हैं कि जिन 2,647 लोगों को पुलिस ने उठाया है, उनमें से ज़्यादातर मुस्लिम ही हैं। इसलिए पीड़ितों पर ही दोष लगाकर, उनपर हिंसा की जिम्मेदारी डालना अजित डोवाल की बात के बिलकुल उलट जाता है। बल्कि उत्तर-पूर्व दिल्ली के लोगों को उनके द्वारा दिए गए भरोसे की कोई कीमत ही नहीं लगती।

अगर NSA की बात का ही सीधे गृहमंत्रालय के अंतर्गत आने वाली पुलिस पर कोई असर नहीं पड़ा और पुलिस अधिकारियों की हिंसा रोकने में भूमिका संदिग्ध रही तो सवाल उठता है कि पुलिस और जनता का आपस में संबंध कैसा है?  हम औपनिवेशिक काल की पुलिस रवैये से कितना दूर पहुंचे हैं, जो स्थानीय लोगों को एक वस्तु की तरह देखते थे और उन्हें औपनिवेशिक शासन से सुरक्षा के विशेषाधिकार मिले होते थे? क्या इसका मतलब यह है कि बीजेपी के शासनकाल में पुलिस औपनिवेशिक अवतार में वापस आ रही है, CAA-NRC-NPR के विरोध प्रदर्शनों की तो बात दूर, इस बार जो भी बीजेपी की आलोचना करता है, वह पुलिस का दुश्मन है और उसे ठिकाने लगाना है।

यह सही बात है कि एक ऐसी सत्ताधारी पार्टी जिसके सामने कमजोर विपक्ष हो, वह शक्तियों के सभी स्तर पर नियंत्रण रखती है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता की भी परवाह नहीं करती। ऐसी सत्ताधारी पार्टी अपने हिसाब से विमर्श को मनमुताबिक़ ढाल सकती है। लेकिन इसका एक स्याह पहलू भी है। जब राज्य के सभी संस्थान सरकारी दबाव के सामने हथियार डाल देते हैं, तो आम आदमी का न्याय में विश्वास हिलने लगता है। यह प्रक्रिया, डोवाल द्वारा जिस न्यायपूर्ण और भरोसेमंद पुलिस व्यवस्था की बात कही गई, उससे बिलुकल उलट है।

सरकार का जो भी खेल रहा हो, लेकिन गृहमंत्री ने खुद को पूर्वाग्रह से भरपूर और पक्षपाती पेश किया है, उन्हें न तो तथ्यों की कोई चिंता है, न ही हिंसा की क्रोनोलॉजी से कोई लेना-देना है। उन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे वो भारतीय लोगों के सिर्फ एक हिस्से का ही प्रतिनिधित्व करते हैं, पूरे देश का नहीं।घटनास्थल पर पीड़ितों को भरोसा और पुलिस का मनोबल बढ़ाने के लिए डोवाल के पहुंचने से पूरे भारत और दुनिया में एक संदेश गया कि दिल्ली में एक सडांध फैल गई है, जिससे भारत की सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित हो रही है और सभी नागरिकों के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करने वाली साख पर सवाल खड़े हो रहे हैं।
 
लेखक नागरिक अधिकार कार्यकर्ता हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Delhi Violence: Legitimising Biased and Prejudiced Governance?

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