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एनआरसी के खिलाफ दार्जिलिंग पहाड़ पर उठी आइएलपी की मांग

जो लोग एनआरसी को सिर्फ मुसलमानों की समस्या के रूप में देख रहे हैं, उन्हें बता दें कि इसके विरोध में गोरखाओं ने भी कमर कस ली है। दार्जिलिंग पहाड़ में आंदोलन शुरू हो चुका है और क्रिसमस के बाद केंद्रीय कार्यालयों के सामने जोरदार विरोध प्रदर्शन की तैयारी है।
GORKHA
प्रतीकात्मक फाइल फोटो। साभार : सत्याग्रह  

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), 2019 अधिसूचित होने के बाद अब राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर विभिन्न समुदायों व क्षेत्रों में आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं। भाजपा के समर्थक और मुख्यधारा का मीडिया इन आशंकाओं को सायास ढंग से केवल मुसलमानों तक सीमित रखने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन हकीकत यह है कि जैसे-जैसे लोग आनेवाले दिनों में एनआरसी से होनेवाली दुश्वारियों को समझ पा रहे हैं वैसे-वैसे दलितों, आदिवासियों और अन्य समुदायों की ओर से भी विरोध के स्वर मुखर हो रहे हैं। विरोध की ऐसी ही एक जोरदार आवाज उठी है पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र से।

असम में एनआरसी की अंतिम सूची 31 अगस्त 2019 को जारी हुई, जिसमें शामिल नहीं हो पानेवाले 19 लाख लोगों में से एक लाख के आसपास संख्या गोरखाओं की है। उनका हाल देखते हुए बंगाल के गोरखाओं को भी अपने भविष्य को लेकर चिंता सताने लगी है। इसी चिंता का नतीजा है कि बीते हफ्ते 20 दिसंबर को दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र के सभी प्रमुख शहरों में विरोध प्रदर्शन देखने को मिला।

पश्चिम बंगाल राज्य के उत्तर में स्थित पर्वतीय क्षेत्र में अलग राज्य गोरखालैंड की मांग काफी पुरानी है। भाजपा खुद को गोरखालैंड का हमदर्द बताकर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के जमाने से ही वहां अपना सांसद गोरखा जन-मुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) के सहयोग से जितवा रही है। 2017 के गोरखालैंड आंदोलन के दौरान ही गोजमुमो का विभाजन हो गया। बिनय तामंग गुट अभी तृणमूल कांग्रेस के साथ है, जबकि बिमल गुरुंग गुट भाजपा के साथ। गोजमुमो के एक धड़े के तृणमूल के साथ जाने के बावजूद, 2019 के लोकसभा चुनाव में दार्जिलिंग लोकसभा सीट भाजपा ने जीती। इसके बाद हुए दार्जिलिंग विधानसभा क्षेत्र के उप-चुनाव में भी भाजपा प्रत्याशी की जीत हुई। मगर, अब तस्वीर बदलती दिख रही है।

गोरखाओं में पहले से ही इस बात को लेकर नाराजगी शुरू हो गयी है कि केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार होने के बावजूद भाजपा गोरखालैंड के लिए पहल क्यों नहीं कर रही? क्या गोरखाओं के सपने को अपना सपना बताना नरेंद्र मोदी का चुनावी दांव भर था? यह नाराजगी पल ही रही थी कि रही-सही कसर असम में प्रकाशित एनआरसी की अंतिम सूची ने पूरी कर दी। उस पर गृह मंत्री अमित शाह का बार-बार यह बयान देना कि अब बंगाल समेत पूरे देश में एनआरसी लागू की जायेगी, गोरखाओं के ज़ख़्मों को गहरा बना रहा है। संसद से सीएए पारित होने के बाद उन्हें तलवार अपने सिर पर लटकती दिख रही है।

गोजमुमो के संस्थापक अध्यक्ष बिमल गुरुंग, जो भाजपा समर्थक हैं, 2017 के आंदोलन में कई मामलों में नामजद होने के बाद से फरार चल रहे हैं। ऐसे में, दार्जिलिंग पहाड़ पर एनआरसी के खिलाफ आंदोलन की अगुवाई अब गोजमुमो का तृणमूल समर्थक धड़ा कर रहा है।

बीते 20 दिसंबर को कर्सियांग में गोजमुमो ने एनआरसी के खिलाफ विशाल रैली निकालने के बाद जनसभा की। इसे संबोधित करते हुए कर्सियांग के विधायक डॉ. रोहित शर्मा ने कहा कि केंद्र सरकार एनआरसी लागू करने की तैयारी करके पूरे देश को सुलगा रही है। इसके विरोध में चल रहे आंदोलनों का पुलिसिया दमन किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि सन 1870 से भारत में गोरखा रह रहे हैं और उन्होंने देश के लिए हर कुर्बानी दी है। ऐसे देशभक्त गोरखाओं को अब केंद्र सरकार एनआरसी के जरिये से डिटेन्शन कैंपों में डालने का प्रयास कर रही है। गोजमुमो नेता ने कहा कि केंद्र सरकार ने एक रात में अलग केंद्र शासित लद्दाख राज्य का गठन कर दिया, जबकि गोरखाओं को भाजपा वाजपेयी सरकार के समय से ही केवल आश्वासन देकर वोट ठग रही है। दार्जिलिंग और कालिम्पोंग शहरों में हुए विरोध प्रदर्शनों में भी इसी तरह के स्वर सुनने को मिले।

हिंदू ध्रुवीकरण के लिए केंद्र की भाजपा सरकार जो सीएए और एनआरसी ला रही है, उसने न सिर्फ देश में कई पुरानी समस्याओं को जिंदा किया है, बल्कि कई नयी समस्याओं को भी जन्म दिया है। लगभग दो दशकों से शांति की ओर अग्रसर असम को वह फिर से अशांत कर रही है। सीएए को लेकर मणिपुर के गुस्से से बचने के लिए, 'एक देश एक कानून' की पैरवीकार इस सरकार ने उसे इनरलाइन परमिट (आइएलपी) का प्रावधान दे दिया है। यानी दूसरे राज्य के लोगों को अब मणिपुर जाने के लिए परमिट लेना होगा। मणिपुर को आइएलपी व्यवस्था मिलने के बाद ऐसी ही मांग उत्तर बंगाल के दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र व डुआर्स के लिए गोजमुमो ने उठायी है। गोजमुमो (बिनय गुट) के अध्यक्ष बिनय तामंग कहते हैं, ''दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में 1955 में आइएलपी व्यवस्था लागू की गयी, जिसे 1990 में हटा लिया गया था। इसे फिर से लागू करने की हमारी मांग है।''

गोरखा नेताओं का कहना है कि वे लोग नेपाली-भाषी जरूर हैं, लेकिन देशभक्त भारतीय हैं। अक्सर उन लोगों पर विदेशी (नेपाली) होने का लांछन लगाया जाता रहा है। लंबे संघर्ष के बाद 1992 में नेपाली भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह मिली, जिससे भारतीय गोरखाओं को भारतीय होने का गौरव हासिल हुआ। अब फिर से एनआरसी के जरिये उन लोगों के भारतीय होने पर सवालिया निशान लगाया जायेगा। यह आशंका बेबुनियाद भी नहीं है। लोकसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक पर बहस के दौरान भाजपा के सांसद निशिकांत दुबे ने असम के दिवंगत पूर्व-सांसद मणि कुमार सुब्बा को नेपाली नागरिक और लोकसभा में 'घुसपैठिया' बताया। इसे लेकर समस्त भारतीय गोरखाओं में गुस्से के साथ चिंता है कि क्या उनकी नागरिकता पर इसी तरह सवाल उठेंगे।

दार्जिलिंग के गोरखाओं की चिंता का एक बड़ा कारण यह भी है कि चाय बागानों और सिन्कोना बागानों में रहनेवाले लाखों लोगों के पास जमीन का कोई काग़ज़ नहीं है। ये लोग वर्षों से जमीन के पट्टे के लिए संघर्षरत हैं, लेकिन ज्यादातर को आज तक मालिकाना हक नहीं मिल पाया है। जिनके पास जमीन के काग़ज़ात नहीं हैं उन्हें एनआरसी के चलते अपनी जमीन और अपने देश से बेदखल होने का डर सता रहा है।

एनआरसी के खिलाफ गोजमुमो (बिनय गुट) ने 23 से 27 दिसंबर तक धारावाहिक आंदोलन की योजना बनायी है। इस दौरान केंद्र सरकार के कार्यालयों के सामने विरोध प्रदर्शन किया जायेगा। क्रिसमस के बाद आंदोलन को तेज करने की योजना है। एनआरसी के खिलाफ गोरखाओं का उद्वेलित होना बताता है कि इस मसले को सिर्फ मुसलमानों या फिर बांग्लादेश घुसपैठियों तक सीमित कर देखना ठीक नहीं है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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