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झारखंड से भी उठी जाति आधारित जनगणना की मांग  

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मीडिया संबोधन में इस मुद्दे को उठाते हुए कहा है कि - जाति आधारित जनगणना कराने की हमारी मांग काफी पहले से ही रही है जो लोग जिस समूह में जितने हैं उन्हें उनके अनुपात में उतना अधिकार मिले।      
Jharkhand

जाति आधारित जनगणना कराने की मांग अब झारखंड प्रदेश की राजनीति में भी सरगर्म होने लगी है। खुद प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मीडिया संबोधन में इस मुद्दे को उठाते हुए कहा है कि - जाति आधारित जनगणना कराने की हमारी मांग काफी पहले से ही रही है जो लोग जिस समूह में जितने हैं उन्हें उनके अनुपात में उतना अधिकार मिले।

जिसके लिए 2021 में झारखंड विधानसभा से सर्वसम्मत प्रस्ताव भी पारित कर माननीय राज्यपाल समेत केंद्र की सरकार को प्रेषित किया गया था। खुद उन्होंने इस मांग को लेकर प्रधानमंत्री को विशेष पत्र भी लिखा था। साथ ही इस बाबत झारखंड का सर्वदलीय शिष्टमंडल के सदस्यों ने दिल्ली जाकर ‘जाति आधारित जनगणना’ करने का मांग-पत्र गृहमंत्री को सौंपा था।  

हेमन्त सोरेन ने अपने पत्र का हवाला देते हुए यह भी बताया कि उन्होंने इस पहलू का विशेष रूप से उल्लेख किया है कि - हमारे संविधान में भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ों के विकास के लिए विशेष सुविधा और आरक्षण की व्यवस्था की गयी है। आज़ादी के बाद से आज तक की कराई गयी जनगणना में जातिगत आंकड़े नहीं रहने से पिछड़े वर्ग के लोगों को समुचित सुविधाएं देने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। पिछड़े-अति पिछड़े समुदाय के लोग अपेक्षित प्रगति नहीं कर पा रहें है। ऐसे में यदि अब भी जातिगत जनगणना नहीं करायी जाएगी तो पिछड़े-अति पिछड़े समुदायों की शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक स्थिति का न तो सही आकलन हो सकेगा और न ही उनकी बेहतरी व विकास के लिए समुचित नीतियों का निर्धारण ही हो पायेगा। साथ ही उनकी संख्या के अनुपात में बजट का आबंटन भी नहीं हो सकेगा। मालूम हो कि आज से 90 वर्ष पूर्व 1931 में कराई गयी जाति जनगणना के आंकड़ों के ही आधार पर सबकुछ चलाया जा रहा है। 

मुख्यमंत्री ने यह भी बताया है कि दिल्ली में गृहमंत्री के साथ मुख्यमंत्रियों की होनेवाली बैठक में यदि समय मिला तो वे सरना धर्म कोड का मामला भी उठाएंगे।   

हालांकि प्रदेश के विपक्ष की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है लेकिन कुछ मीडिया व उसके धुरंधर विशेषज्ञों के अनुसार झारखंड  में अभी इस मांग के जोर पकड़ने के पीछे बिहार की सरकार द्वारा ‘जाति जनगणना रिपोर्ट” का जारी किया जाना बताया जा रहा है। साथ ही इसे राज्य सरकार का चुनावी मुद्दा भी बताया जा रहा है। 

जिसकी प्रतिक्रिया में झारखंड के कई सामाजिक एक्टिविस्‍टों के अनुसार- झारखंड के मुख्यमंत्री द्वारा उक्त मांग को उठाया जाना कहीं से “राजनीति प्रेरित” नहीं समझा जाना चाहिए। क्योंकि अकूत खनिज़ और प्राकृतिक संपदाओं से संपन्न इस प्रदेश के बहुसंख्य आदिवासी-पिछड़े समुदायों के लोग कितने कंगाल-खस्ताहाल हैं किसी से छुपी नहीं है। उस पर से सात दशकों से भी अधिक लंबी लड़ाई लड़कर जिस झारखंड राज्य को पाया गया है आज भी इस राज्य की बहुसंख्य गरीब व पिछड़ी आबादी के सवाल-सपने जस के तस ही बने हुए हैं। 

रही बात बिहार की सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक किया जाने का मामला तो इससे कत्तई नहीं इनकार किया जाना चाहिए कि मौजूदा सत्ता-राजनीति में इसने एक हलचल तो मचा ही दी है। इसके कारण ही झारखंड समेत कई प्रदेशों में ‘जाति आधारित जनगणना’ की मांग तेज़ होने लगी है। कई गैर भाजपा राज्य सरकारें तो बिहार की तर्ज़ पर अपने यहां भी जाति जनगणना कराने की बात कह रहीं हैं। 

इस संदर्भ में बिहार की राजधानी के राजनीतिक-सामाजिक एक्टिविस्‍ट समूह के एडवोकेट मणिलाल जी जैसे कई एक्टिविस्‍ट इस बात की साफ़ आशंका जता रहें हैं कि - दिल्ली में जो दर्जनों जनपक्षीय स्वतंत्र-वरिष्ठ पत्रकारों तथा न्यूज़क्लिक जैसे जन मीडिया संस्थान के साथ केंद्र सरकार की पुलिस का हमलावर रवैया साक्षात् दिखा उसकी असली वजह ‘बिहार जाति जनगणना रिपोर्ट’ का जारी होना ही है। क्योंकि 2 अक्टूबर को जाति जनगणना रिपोर्ट के जारी होते ही काफी तीखी राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का संगठित सिलसिला शुरू हो गया था। “गोदी मिडिया” और उसके धुरंधरों द्वारा बिलकुल एकतरफा ढंग से बिहार की गठबंधन सरकार पर “जाति की राजनीति” का आरोप चस्पां किया जाने लगा।    

चूंकि दिल्ली देश की राजनीति के साथ-साथ  ख़बरों और मीडिया का भी सबसे संवेदनशील केंद्र है और यहां स्वतंत्र-वैकल्पिक जन मीडिया को संभव बनाने में जुटे पत्रकार-मीडिया समूहों की प्रभावकारी सक्रियता रहती है। इसलिए केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने आनन्-फानन 3 अक्टूबर की सुबह से ही अपना दमनकारी कारनामा शुरू कर दिया। ताकि दिल्ली से “जाति जनगणना रिपोर्ट” पर वही बातें और नैरेटिव देश की जनता में जाय, जैसा केंद्र की सरकार चाहती है।

जिसमें वो प्राथमिक रूप से वह सफल भी दिखी। क्योंकि दिल्ली से जो ‘स्वतंत्र-जनपक्षधर मीडिया-पत्रकार’ बिहार की जाति जनगणना को लेकर देश के लोगों को सही बात बताते, वह सबकुछ बिलकुल रुक ही नहीं गया बल्कि केंद्र सरकार के “अघोषित हमले” से उबरने के सुरक्षात्मक कारवाई में सबों को लग जाना पड़ गया।  

एडवोकेट मणिलाल जी जैसों की आशंका निश्‍चय ही ध्यान देने की मांग करती है। क्योंकि राजनीतिक-सामाजिक मामलो के कई जानकारों-विशेषज्ञों के अनुसार बिहार सरकार कि “जाति आधारित जनगणना रिपोर्ट” ने प्रदेश के साथ साथ पूरे देश के सामाजिक-राजनीतिक दायरे में एक तीखे बहस-मुबाहिसे का माहौल सरगर्म कर दिया है।    

इस रिपोर्ट को तत्काल प्रभाव से रोकने और इसके जरिये सामाजिक-जातीय विद्वेष फैलाने का आरोप लगाकर सुप्रीम कोर्ट में दायर विशेष याचिका को माननीय कोर्ट द्वारा खारिज़ किये जाने के बाद से तो मामला और भी ज़्यादा सरगर्म होता जा रहा है। जिसके निहितार्थ कितने दूरगामी प्रभाव के होंगे देखने कि बात है।  

फिलहाल इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि बिहार में ‘जाति जनगणना रिपोर्ट 2022’  को लेकर जो राजनीतिक धींगा-मुस्ती का आलम बना हुआ है वह थमने वाला नहीं है। क्योंकि हम मानें या न मानें इस समय बिहार के राजनीतिक-सामाजिक जीवन में स्पष्ट रूप से एक तीखा विभाजन दिखने लगा है। जिसमें एक तरफ, वंचित-उपेक्षित और दलित-पिछड़े/अति पिछड़े समुदायों के लोग और इनके सवालों पर सतत सक्रिय रहनेवाली सामाजिक-राजनीतिक शक्तियां हैं जो खुलकर राज्य की सरकार के पक्ष में हैं। तो दूसरी ओर हैं -  “गोदी मीडिया” समेत चरम विरोध कर रहीं राजनितिक-सामाजिक शक्तियां। 

गौरतलब यह भी होना चाहिए कि देश की आज़ादी के “अमृत काल” में पहुंचने के बावजूद भी क्यों ऐसा है कि जब भी वंचित-उपेक्षित और हाशिये के समुदायों के संवैधानिक-मानवीय अधिकारों और उनकी लोकतान्त्रिक दावेदारी का मामला उठने लगता है तो समाज में “जातीय विद्वेष और विभाजन” फैलाने का आक्रामक हौव्वा खड़ा होने लगता है। ऐसे में कवि मुक्तिबोध का सवाल कि - बन्धु, आपकी राजनीति क्या है? सहज संदर्भित हो उठता है। 

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