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विश्वविद्यालयों का विनाश

जिस देश के विश्वविद्यालयों को ही व्यावहारिक मानों में ही नष्ट कर दिया जाए वह आत्मनिर्भर हो ही कैसे सकता है?
Ashoka University
फ़ोटो साभार : ashoka.edu.in

भाजपा राज ने भारतीय समाज, राजनीतिक व्यवस्था और अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचाया है इसलिए देश में जब भाजपा राज का अंत हो जाएगा तो इसके काफी हिस्से को बेशक पलट दिया जाएगा। फिर भी कम से कम दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें नुकसान का इस तरह पलटा जाना मुश्किल होगा।

इस नुकसान को पलटना मुश्किल है

इनमें एक तो इस राज में वास्तु-रचनाओं के साथ की गयी तोड़-फोड़ ही है। इस तोड़-फोड़ की शुरूआत, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के साथ हुई थी, जो सांप्रदायिक विद्वेष भडक़ाने का कारण तो बना ही था, इसके अलावा भी बर्बरता की ही मिसाल थी। कोई भी सभ्य और संवेदनशील समूह, ऐसे अकारण ही किसी 400 साल पुरानी इमारत को नष्ट नहीं करेगा। और यह कला-ध्वंस संसद भवन की बगल में एक ऐसी इमारत खड़ी किए जाने तक जाता है, जो इस जगह के पुराने बहुत ही श्रमपूर्वक निर्मित संयोजन को ही नष्ट कर देती है। (इस पूरे निर्माण की संकल्पना औपनिवेशिक निजाम द्वारा की गयी थी, यह किसी भी तरह से इस तरह के कला-ध्वंस को उचित नहीं ठहरा सकता है।

दूसरा क्षेत्र जिसमें भाजपा सरकार ने बहुत भारी नुकसान किया है और जिसे पलटना उतना ही मुश्किल होने जा रहा है वह है विश्वविद्यालयों की बर्बादी। और यहां हम इसी की बात करेंगे। विश्वविद्यालय का आशय सिर्फ ऐसी चंद इमारतों से नहीं होता है, जहां पढ़ाई का काम होता है। ऐसी इमारतें तो किसी कोचिंग सेंटर में भी हो सकती हैं। यूनिवर्सिटी सबसे पहले एक ऐसी जगह होती है, जहां विचार की कद्र होती है और ऐसा मिजाज़ या इथॉस बनाने में जहां विचार की कद्र होती है, वक्त लगता है। इस तरह की जगहें बनाना तीसरी दुनिया के समाजों में खासतौर पर मुश्किल होता है। और भारत को इसका श्रेय जाता है कि वह ऐसी कुछ जगहें निर्मित करने में कामयाब रहा है। बेशक, इसमें मददगार एक तत्व इस देश का विशाल आकार भी रहा है। पड़ोसी देशों के अकादमिक अक्सर इस पर अफसोस जताते हैं कि उनके देशों को वह पैमाना ही नहीं मिला है कि एक समुचित अकादमिक वातावरण निर्मित कर सकें। लेकिन, भारत के मामले में इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण कारक, समाज में आम तौर पर व्याप्त गंभीर विचार या चिंतन के प्रति आदर रहा है, फिर इससे फर्क नहीं पड़ता है कि उस विशेष विचार सरणि से आप सहमत हों या नहीं हों।

लेकिन, फासीवादी संगठन, जो खुद किसी भी प्रकार के गंभीर विचार से खाली ही होते हैं, गंभीर सोच-विचार के प्रति आदर से भी खाली होते हैं। इसलिए, इसमें हैरानी की शायद ही कोई बात है कि हमारे देश में मौजूद गंभीर सोच-विचार के ऐसे जो भी जगह मौजूद हैं, भाजपा सरकार उन्हें सुनियोजित तरीके से नष्ट करने में लगी हुई है। विश्वविद्यालयों पर उसका हमला, देश को ऐसा नुकसान पहुंचाने जा रहा है, जिसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता है।

सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के टेक ओवर की खाति

यह हमला, जिसकी शुरूआत सार्वजनिक विश्वविद्यालयों से हुई थी, अब निजी विश्वविद्यालयों तक भी पहुंच गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय, जहां दुनिया के बेहतरीन अंडरग्रेजुएट शिक्षा प्रोग्रामों में से एक चलता था; जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, जो भारत में समाज विज्ञानों में ऐसे अकादमिक विमर्श की अगुआ थी, जो विकसित दुनिया के वर्चस्व को चुनौती देता था और विश्व भारती, जिसमें रवींद्रनाथ टैगोर की दृष्टि समायी हुई थी; ये सभी केंद्रीय विश्वविद्यालय अब अपने अतीत की परछाईं बनकर रह गए हैं।

वाइस-चांसलर के पदों पर ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त किया गया है, जिनकी मुख्य योग्यता, आरएसएस के प्रति उनकी वफादारी है। शिक्षकों के पदों पर सिर्फ इसलिए घटिया स्तर की नियुक्तियां की गयी हैं ताकि अपने वफादारों से भरने के जरिए, इन विश्वविद्यालयों का ‘‘टेक ओवर’’ कर लिया जाए। ठीक ऐसा ही छात्रों के दाखिलों के मामले में भी किया गया है। यह सुनिश्चित किया गया है कि विभिन्न अकादमिक निकायों को जी-हुजूरों से भर दिया जाए, जिसके लिए ऐसे लोगों को डीन तथा विभागों के अध्यक्ष पदों पर, वरियता लांघकर पदोन्नत किया जाता है और उसके बाद इन पदों पर उन्हें अंतहीन कार्यकाल विस्तार देते रहा जाता है। इन सब के जरिए, भाजपायी सत्ता अधिष्ठान ने इन विश्वविद्यालयों में पहले बने रहे जीवंत जनतांत्रिक मिजाज़ को ही नष्ट नहीं किया है, उसने अपने कृपाप्राप्त गुंडों को विरोधियों को आतंकित करने की बेरोक-टोक छूट ही नहीं दी है बल्कि उसने अपरिहार्य रूप से इन कभी प्रतिष्ठित रहे ज्ञान के केंद्रों के अकादमिक स्तर को भी गिरा दिया है। इस सब के ऊपर से इन विश्वविद्यालयों को फंड की कमी से कमजोर और किया जा रहा है।

अशोका विश्वविद्यालय प्रसंग के मायने

अब उनका शिकंजा उन निजी विश्वविद्यालयों तक भी पहुंच गया है, जो सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के पराभव के दौरान उभर कर आए हैं। अशोका यूनिवर्सिटी ने जो किया है, उसकी दूसरी मिसाल और कहीं मिलनी मुश्किल है। उसकी अर्थशास्त्र की फैकल्टी के एक सदस्य ने एक अकादमिक पर्चा लिखा था, जो उपलब्ध आंकड़ों के सावधानीपूर्ण विश्लेषण के आधार पर इसका संकेत करता था कि 2019 के चुनाव में, कतिपय चुनाव नतीजों में हेर-फेर हुआ हो सकता है। आखिर, विश्वविद्यालय ही तो ऐसी जगहें जहां इस तरह के पर्चे लिखे जा सकते हैं। लेकिन, न सिर्फ भाजपा की ट्रोल सेना ने उस शिक्षक पर हमले शुरू कर दिए बल्कि खुद विश्वविद्यालय ने भी बिल्कुल अकारण ही एक बयान जारी कर, उक्त पर्चे से खुद को अलग कर लिया। पुन: पता चला है कि विश्वविद्यालय की गवर्निंग बॉडी ने, जिसमें उसके दानदाताओं का प्रतिनिधित्व है, इस अकादमिक पर्चे की जांच की और उसमें कुछ बदलाव भी सुझाए। संबंधित शिक्षक ने विश्वविद्यालय से इस्तीफा दे दिया है और उसके विभाग ने, विश्वविद्यालय के इस आचरण पर विरोध जताया है और अगर इस शिक्षक को बहाल नहीं किया गया तो, विरोध करने की चेतावनी दी है।

चंद व्यापारी, सामान्यत: निजी विश्वविद्यालयों के दानदाता वही तो होते हैं, एक अकादमिक पर्चे की जांच-पड़ताल कर के फैसला सुनाएं, यह तो इससे पहले कभी भी किसी ने नहीं सुना होगा। और ऐसा नहीं है कि अशोका विश्वविद्यालय के अधिकारियों को और यहां तक इन दानदाताओं को खुद भी, इसका पता नहीं रहा हो। फिर भी, सरकार के डर के मारे उन्होंने, अकादमिक मामलों में दखलअंदाजी करने का फैसला किया। वास्तव में गवर्निंग बॉडी तथा विश्वविद्यालय के अधिकारियों के जरिए, किसी भी प्रकार की आलोचना के प्रति, चाहे वह किसी अकादमिक पर्चे के रूप में ही क्यों नहीं हो, केंद्र सरकार की शत्रुता को ही, अकादमिक फैकल्टी के लिए पुनर्प्रसारित किया जा रहा था।

ऐसे में कोई विश्वविद्यालय कैसे काम कर सकता है?

यह तो पूरी तरह से स्वत:स्पष्ट ही है कि विश्वविद्यालय कहलाने लायक कोई भी संस्था ऐसे हालात में काम नहीं कर सकती है। उदाहरण के लिए इस हिसाब से तो अगर कोई आलेख यह तर्क पेश करता है कि एक ऐसे कालखंड में, जिसमें भाजपा राज का दौर भी आता है, भारत में गरीबी कम नहीं हुई है, जिसका कि दावा है, बल्कि गरीबी वास्तव में बढ़ गयी है, तो ऐसे आलेख के लेखक की निंदा की जाएगी और उससे अपने निष्कर्षों को बदलने के लिए कहा जाएगा। इसी प्रकार, अगर डाटा के आधार पर कोई आलेख यह दलील पेश करता है कि कृषि संकट के चलते, ग्रामीण भारत की प्रतिव्यक्ति आय एक खास कालखंड में, जिसमें भाजपा के राज का दौर भी आता है, घट गयी है तो उसके निष्कर्ष को भी, सरकार की मर्जी के अनुुरूप ‘‘संशोधित’’ करा दिया जाएगा। ऐसे हालात में तो शोध कार्य, अपनी ही उपलब्धियों के संबंध में भाजपा सरकार के इश्तहार प्रकाशित करने का ही पर्याय हो जाएगा। और चूंकि किसी भी विश्वविद्यालय में शिक्षण को शोध से ही पोषण मिलता है ऐसे में शोध के अंत का मतलब शिक्षण का मुरझाना होगा और इसलिए यह अंतत: तो विश्वविद्यालय का ही अंत भी होगा।

कुछ लोगों को लग सकता है कि यह बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहना है, कि सभी निजी विश्वविद्यालयों में दानदाता तथा अधिकारीगण (अक्सर उनकी जिम्मेदारियों को अलग करना मुश्किल ही होता है), विश्वविद्यालय के अकादमिक जीवन पर बहुत भारी प्रभाव डालते हैं। वे नियुक्तियों को निश्चित रूप से प्रभावित करते हैं। उत्तरी अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पहले के दौर में यहूदी मूल के विद्वानों के साथ अक्सर भेदभाव होता था। आज के दौर में फिलिस्तीनियों के प्रति हमदर्दी रखने वाले हर एक व्यक्ति के लिए स्थितियां प्रतिकूल हो जाती हैं। मार्क्सवादी तो खैर हमेशा ही भेदभाव के शिकार होते आए हैं। यहां तक कि पॉल स्वीजी ने तो अनेक विश्वविद्यालयों के विजिटिंग प्रोफेसर बनने के निमंत्रण को स्वीकार करना ही बंद कर दिया था क्योंकि उनके सुनने में आया था कि विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में उनकी उपलब्धता को बहाना बनाकर, ऐसे युवा मार्क्सवादी शिक्षकों को नियुक्ति के अवसर से वंचित किया जा रहा था, जिन्हें पहले पढ़ाने के लिए अस्थायी रूप से नियुक्त किया जाता था।

सब निजी विश्वविद्यालयों में क्या ऐसा ही होता है?

फिर भी, विदेश में अनेक निजी विश्वविद्यालयों में जो दानदाता-संचालित या अधिकारीगण-संचालित भेदभाव या विक्टिमाइजेशन होता है और भारत में हाल में जो देखने को मिला है, उनके बीच दो बुनियादी भिन्नताएं हैं। पहली तो यह कि भेदभाव या विक्टिमाइजेशन के ऐसे सभी मामलों में से इसका शायद ही कोई उदाहरण देखने को मिलेगा जहां विश्वविद्यालय अधिकारियों के फैसलों के पीछे सरकार के हस्तक्षेप या धमकी का कोई जरा सा भी साक्ष्य होगा। ये कार्रवाइयां दानदाताओं के पूर्वाग्रहों से तो हो सकती हैं और इनमें सत्ता-प्रतिष्ठान के पक्ष में पूर्वाग्रह भी शामिल हो सकते हैं, लेकिन इनके पीछे राजनीतिक दाब-धोंस का हाथ नहीं मिलेगा। दूसरे, विदेशी निजी विश्वविद्यालयों में भेदभाव तथा विक्टिमाइजेशन के मामले शायद ही कभी ऐसा रूप लेते होंगे कि विश्वविद्यालय के दानदाता या अधिकारी किसी अकादमिक शोधपत्र की ‘तफ्तीश’ करने बैठ जाएं और लेखक से अपने शोधपत्र में बदलाव करने की मांग करें। शोधपत्रों की, समकक्षों द्वारा समीक्षा की जाती है और वे प्रकाशन की दिशा में एक पूरी तरह से स्वतंत्र होते हैं। इस क्रम में बेशक लेखों की अंतर्वस्तु में बदलाव कराने के लिए प्रकट या अप्रकट दखलअंदाजियां तो हो सकती हैं, लेकिन इसका विश्वविद्यालय अधिकारियों से या दानदाताओं से कुछ लेना-देना नहीं होता है। इस तरह, अशोका यूनिवर्सिटी में जो कुछ सामने आया है, बहुत ही असामान्य है। यह फासीवादी राज्य के दबदबे को दिखाता है, जो अपनी कार्रवाइयों की या जो प्रक्रिया उसे सत्ता में लायी है उस प्रक्रिया की, किसी भी आलोचना को, वह चाहे कितनी ही परोक्ष तथा कितनी ही अकादमिक क्यों न हो, बर्दाश्त कर ही नहीं सकता है और इस आलोचना को वापस कराने के लिए दबाव डालता है।

यह विश्वविद्यालय का अंत है

लेकिन, यह समाज विज्ञानों में तो किसी भी तरह के शोध का रास्ता बंद ही कर देता है। इन विषयों का संबंध समाज से और इसलिए महत्वपूर्ण रूप से सरकारों के गठन तथा सरकारी फैसलों के परिणामों से होता है। अगर विद्वान इन सब का अध्ययन कर अपने हिसाब से सच्चे निष्कर्षों तक पहुंच ही नहीं सकते हैं (अकादमिक दुनिया की ऐसे निष्कर्षों की सत्यता को परखने की अपनी ही व्यवस्थाएं हैं), तो सामाजिक विज्ञानों में शोध ही असंभव हो जाएगा। अंतत: यह सिलसिला प्राकृतिक विज्ञानों तक भी पहुंच जाएगा, जहां हिंदुत्ववादी तत्वों के लाड़ले पूर्वाग्रहों पर संदेह खड़े करने वाले हर एक शोध के निष्कर्षों को भी वापस लिए जाने की मांग उठेगी। यह देश में विश्वविद्यालयों के अस्तित्व का मूल तर्क ही खत्म कर देगा और वे ज्यादा से ज्यादा कोचिंग सेंटर भर बनकर रह जाएंगे।

मोदी सरकार को इसका ढोल पीटने का बहुत शौक है कि उनकी दृष्टि, एक आत्मनिर्भर भारत के निर्माण की है। लेकिन, जिस देश के विश्वविद्यालयों को ही व्यावहारिक मानों में नष्ट कर दिया जाए, वह आत्मनिर्भर हो ही कैसे सकता है? 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Universities – The BJP-RSS’s Killing Fields

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