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क्या ट्रम्प का समय समाप्त हुआ?

क्या अमेरिका का चुनाव भी दक्षिणपंथी लहर को उलटने में कामयाब होगा? क्या वह लोकलुभावन जोश को रोक सकेगा? क्या उदार जनतंत्र की वापसी होगी, भले ही फेस-लिफ्टेड रूप में ही सही?
ट्रम्प

साल के अंत में होने वाला अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव सामान्य नहीं होगा। अबकी सिर्फ यह फैसला नहीं होना है कि वर्तमान राष्ट्रपति और उनके पुनरनिर्वाचन का हश्र क्या होगा। न ही यह केवल नई सरकार के राजनीतिक स्वरूप के बारे में तय करेगा। बल्कि डोमेस्टिक कन्सिडरेशन्स (domestic considerations) से बहुत हद तक आगे बढ़कर यह चुनाव अगले कई वर्षों के लिए भूगोलीय-राजनीति (geo-politics) की राह तय करेगा। अपने पहले टर्म में ट्रम्प ने अमेरिकी विदेश नीति को री-सेट कर दिया था और अक्रामक साम्राज्यवाद के रास्ते पर चल पड़े। केंद्रीय एशिया में रूस के प्रति सैनिक धमकी, और साउथ चाइना सी में चीन को घुड़की, ईरान और उत्तरी कोरिया को अपनी ताकत दिखाना, सीरिया और लीबिया में लगातार किये जा रहे प्रत्यक्ष सैनिक हस्तक्षेप, लातिनी अमेरिका में जबरन किये जा रहे शासन-परिवर्तन और चीन के साथ ट्रेड-वॉर-सभी एक नए टकरावपूर्ण राह की ओर इशारा करते हैं। और, रूस के साथ आर्म्स रेस जारी है, खासकर नाभिकीय आधुनिकीकरण (nuclear modernization) के माध्यम से।

चीन के साथ नया शीत युद्ध भी यह खतरा संजोए हुए है कि वह किसी भी समय गर्मा सकता है। आखिर अमेरिका की चीन के साथ नाभिकीय और पारंपरिक शस्त्रागार दोनों के मामले में सैनिक असमानता (military asymmetry), जो कि भूतपूर्व यूएसएसआर के साथ रणनीतिक समानता की भांति नहीं है। इसकी वजह से चीन के विरुद्ध सैनिक दुस्साहस की शुरुआत भी हो सकती है। यद्यपि जो बाइडेन ने आधिकारिक रूप से यह नहीं कहा है कि यदि वे निर्वाचित होते हैं तो वे चीन के साथ सामान्य स्थितियां और शान्ति स्थापित करेंगे, उन्होंने ट्रम्प की भांति चीन के विरुद्ध युद्ध भड़काने वाली बातें भी नहीं की हैं। यद्यपि यह सच है कि भले ही व्हाइट हाउस में कोई भी आए, साम्राज्यवादी अमेरिका के बुनियादी राष्ट्रीय हित अंत में हावी रहेंगे, पर बाइडेन ने इस बात के काफी संकेत दिये हैं कि वे चीन के साथ गैरज़रूरी युद्ध को रोकने का हर संभव प्रयास करेंगे। अमेरिका एक ढहती हुई साम्राज्यवादी ताकत है और यह तो 2020 का यूएस चुनाव ही बताएगा कि क्या अमेरिका अपने आक्रामक रास्ते को बरकरार रखकर पुनः अपने आधिपत्यवादी रुझान को वापस पाना चाहेगा।

आखिर, ट्रम्प परिघटना को किसने जन्म दिया? यह तो 2009 के फाइनेंशियल मेल्टडाउन (financial meltdown) के बाद की आर्थिक मंदी थी जिसके कारण ट्रम्प आए, और यह परिघटना वैश्विक दक्षिणपंथी उभार का अमेरिकी संस्करण था। अब कोविड-19 के चलते विश्व और भी अधिक गंभीर परिणति की ओर बढ़ रहा है-एक पूर्ण डिप्रेशन। यद्यपि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि अमेरिका के भविष्य के लिए डिप्रेशन, जो कि काफी अधिक सख्त होगा, क्या राजनीतिक संभावनाएं लेकर आएगा, यह तय है कि चुनाव में अर्थव्यवस्था की स्थिति केंद्रीय मुद्दे के रूप में आएगी। कोविड-19 को जिस तरह से संभाला गया, वह ट्रम्प के लिए सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू बन गया। अभी से ही उन्होंने 2.3 खरब डॉलर का रिवाइवल पैकेज (revival package) घोषित कर दिया है जिसके बाद 1 खरब डॉलर किस्तों में देने की बात भी कही है, पर इसका खास प्रत्यक्ष तात्कालिक प्रभाव दिख नहीं रहा। रघुराम राजन ने दृढ़ता के साथ यह साबित कर दिया है कि आगे और रिवाइवल पैकेजों के लिए राजकोषीय जगह (fiscal space) 2008 के संकट के दौर की तुलना में सीमित है। ट्रम्प और बाइडेन के चुनाव अभियान में आर्थिक रिकवरी संभव बनाने का वैकल्पिक एजेन्डा शामिल हैं। इसका प्रभाव वैश्विक अर्थव्यवस्था पर निश्चित ही होगा और यह ग्लोबल मेगा ग्रीन न्यू डील (global mega Green New Deal) का भविष्य भी तय करेगा, जो कि आर्थिक रिवाइवल के लिए वैकल्पिक लोकतांत्रिक ऑप्शन है, पर अभी वह समाजवादियों और ग्रीन्स द्वारा प्रस्तावित विचार ही है।

हाल के दौर में लोकतंत्र के माध्यम से ही आधिपत्यवाद का रास्ता सुगम बना। ट्रम्प और मोदी जैसे निरंकुश शासक लोकप्रिय चुनावी समर्थन से उभरे। दक्षिणपंथी उभार का एक लोकलुभावन आवरण रहा है, जिसकी वजह से उसे सशक्त जन समर्थन मिला। पर अब करीब आधे दशक तक दक्षिणपंथी शासनों को अनुभव करके लोग काफी ऊब चुके हैं। समाजवाद को नया जीवन मिला है, भले ही वह बहुत ही प्रारंभिक स्तर पर हो। लोकप्रिय वाम ने लातिनी अमेरिका के कुछ देशों में दक्षिणपंथी प्रभुत्व को चुनाव के माध्यम से पलटा है। क्या अमेरिका का चुनाव भी दक्षिणपंथी लहर को उलटने में कामयाब होगा? क्या वह लोकलुभावन जोश को रोक सकेगा? क्या उदार जनतंत्र की वापसी होगी, भले ही फेस-लिफ्टेड रूप में ही सही? यदि हां, तो वह वर्तमान संकट के दौर में किस हद तक धारणीय होगा? यदि ट्रम्प आगामी राष्ट्रपति चुनाव में हार भी जांए, घेरते संकट की वस्तुगत स्थितियां क्योंकि ‘ट्रम्पइज़्म’ के पक्ष में होंगी, क्या बाइडेन का ट्रम्प-2 में कायापलट या मेटामॉर्फोसिस अवश्यंभावी होगा? या क्या बाइडेन जो अपने हल्के खुशमिजाज़ स्वाभाव के लिए जाने जाते हैं, लौह मन्सूबे का परिचय देंगे और अमेरिका को उदार लोकतंत्र के दायर में रखते हुए ऐसे गहरे संकट के भीतर से निकाल पाएंगे, जिसके जैसी तीव्रता 1930 के दशक और ग्रेट डिप्रेशन के बाद देखी नहीं गई? इन सारे प्रश्नों का उत्तर समय ही बता सकेगा, पर आर्थिक संकट के प्ररंभिक लक्षण, खासकर लॉकडाउन की वजह से, दिखने लगे हैं। यूएस में दसियों लाख नौकरियां जा चुकी हैं। अनगिनत व्यापार बंद हो चुके हैं। जनता का एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे ढकेला जाएगा, ऐसी आशंका है। ये शुरुआती लक्षण हैं, पर इनके चलते ट्रम्प की लोकप्रियता को धक्का लगा है और उनकी पॉपुलेरिटी रेटिंग्स (popularity ratings) गिरने लगी हैं।

प्रतिस्पर्धा में जुटे दोनों पक्षों ने अपने प्रोग्रामैटिक प्लैंक्स (programmatic planks) की रूपरेखा स्पष्ट करना शुरू कर दिया है। हम इनपर आगे बात करेंगे, पर निर्णाक शक्ति वोटरों की ही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि वोटरों की धारणा क्या है, प्रमुख मुद्दों और प्रत्याशियों को लेकर उनका मूड क्या बन रहा है।

लेजर (Leger) सबसे बड़ी कनेडियन पोलिंग व मार्केटिंग शोध कम्पनी है। उसने चुनाव-पूर्व वेब सर्वे कराया कि ट्रम्प के पुनः चुने जाने की संभावना क्या है। सर्वे के लिए 1202 अमेरिकियों का प्रतिनिधि सैंपल लिया गया। डाटा 4 अगस्त और 7 अगस्त, 2020 के बीच एकत्र किया गया और परिणाम 13 अगस्त 2020 को प्रकाशित किये गए। यद्यपि यह बहुत बड़ा सैंपल सर्वे नहीं था, पर क्योंकि उसे रैंडम सैंप्लिंग (random sampling) के आधार पर बनाया गया, उसमें लिंग, उम्र, भाषा, क्षेत्र और शिक्षा के स्तर को (2016 के यूएस सेंसस रेफरंस वेरिएब्लस के आधार पर) शामिल किया गया और इसमें एरर यानी त्रुटि की संभावना 3 प्रतिशत से भी कम है। तो लगता है कि यह सर्वे वोटरों के मूड के बारे में काफी हद तक सही आंकलन देगा।

हम वोटर ऐनेलिटिक्स के विभिन्न पहलुओं पर इनके प्रमुख निष्कर्ष व उनकी पृष्ठभूमि पर संक्षिप्त टिप्पण्यिां आपके समक्ष प्रस्तुत करेंगे।

ट्रम्प की 2016 की जीत एक विलक्षण किस्म के लोकवाद (populism) पर आधारित थी। पर यह पॉपुलिज़्म वामपंथी पॉपुलिज़्म नहीं था जो कल्याणकारिता और रियायतों (welfarism and sops) पर आधारित हो। बल्कि वह दक्षिणपंथी पॉपुलिज़्म था जो भले ही सत्ता-विरोधी प्रतीत हुआ पर था असल में श्वेत आधिपत्यवादी रंगभेद, महिलाओं के प्रति घृणा, इस्लाम/मुस्लिम विरोधी अंधराष्ट्रीयता (chauvinism), प्रवासियों के विरुद्ध द्वेष भड़काने यहां तक कि उनके शिशुओं को अलग कर देने, और विदश नीति के मामले में आक्रामक साम्राज्यवाद का परिचय देने, आदि पर आधारित। पर यह विडम्बना ही है कि ऐसे दक्षिणपंथी लोकवाद ने अमेरिकी सामाजिक सच्चाइयों में एक अजीब किस्म के सामाजिक गठबंधन (coalition) को खड़ा किया था जिसमें श्वेत श्रमिकों के एक हिस्से और मध्यम वर्ग के एक बड़े हिस्से ने ट्रम्प का समर्थन किया। ओबामा की विजय और उनकी ओबामाकेयर स्वस्थ्य बीमा योजना जैसे नरम उदार-लोकतांत्रिक सामाजिक नीतियों ने अमेरिका के दक्षिणपंथी हल्कों में चिढ़ पैदा की। ट्रम्प, जो उनकी भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते थे, इस प्रतिक्रिया के ही देन हैं। पर सत्ता पर काबिज दक्षिणपंथी पूरी तरह दीवालिया साबित हुए। इसलिए जिन परिस्थितियों ने उन्हें पैदा किया था, उन्हीं को वे बिगाड़ने पर तुल गए। लोकप्रिय मूड में अब परिवर्तन के लक्षण दिख रहे हैं। चुनाव में दक्षिणपंथ के कूच को पीछे ढकेलने की संभावना काफी मजबूत दिख रही है।

लेजर का चुनाव-पूर्व या प्री-पोल सर्वे दिखा रहा है कि ट्रम्प को 42 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन मिल रहा है और वह बाइडेन से पीछे चल रहे हैं, जिन्हें 51 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन मिलेगा। यह 9 प्रतिशत की बढ़त काफी महत्वपूर्ण है और केवल 5 प्रतिशत वोटरों के स्विंग से बदली नहीं जा सकती। ऐसा तभी हो सकता है यदि अमेरिका पर कोई बड़ा टेरर अटैक या युद्ध हो जाए, कोई प्रमुख स्टॉक मार्केट क्रैश हो जाए और डॉलर का भाव गिर जाए। फिलहाल लग सकता है कि बाइडेन की स्थिति बेहतर है, पर कोई कह नहीं सकता कि ट्रम्प अपनी आस्तीन से कौन से ट्रम्प कार्ड निकालेंगे। यदि जेंडर के हिसाब से मतदाताओं का प्रत्याशियों को समर्थन देखें तो पुरुष वोटरों में ट्रम्प 48 प्रतिशत समर्थन के साथ अभी भी आगे हैं जबकि बाइडेन को 46 प्रतिशत का समर्थन प्राप्त है। पर महिलाओं में 57 प्रतिशत बाइडेन को समर्थन देती नज़र आ रही हैं जहां ट्रम्प की स्थिति 36 प्रतिशत पर काफी बुरी है। इसी तरह, 18-29 उम्र वाले युवा वोटरों में बाइडेन को 56 प्रतिशत समर्थन है जबकि ट्रम्प को केवल 31 प्रतिशत मिल रहा है। पर, जब हम 30-49 उम्र वाले, यानी मध्य आयु वालों को लें तो बाइडेन का समर्थन घट जाता है और 49 प्रतिशत है, जबकि ट्रम्प को भी 44 प्रतिशत समर्थन ही मिल रहा है। 50 वर्ष से अधिक आयु वाले लोगों में बाइडेन को 51 प्रतिशत समर्थन है और ट्रम्प को 46 प्रतिशत। यदि हम मान लें कि मध्य आयु वाले श्वेत लोगों के बीच ट्रम्प 3 प्रतिशत वोट स्विंग (vote swing) हासिल कर लेंगे, फिर भी बाइडेन महिलाओं और युवा अमेरिका के समर्थन की लहर पर सवार होकर विजयी हो सकते हैं; और इनके बीच ट्रम्प के पक्ष में वोट स्विंग करा पाना लगभग नामुमकिन है, चाहे वह कोई भी घटिया खेल खेलें।

लेजर सर्वे लोगों की पसंद के आंकड़ों का ब्रेकअप भी देता है, यानी वे क्यों ट्रम्प को वोट दे रहे अथवा नहीं दे रहे हैं। क्योंकि सर्वे ट्रम्प-केंद्रित है, पर हमें ऐसा ब्रेकअप बाइडेन के लिए नहीं मिलता। यद्यपि यह सर्वे की एक बड़ी कमी है, फिर भी सर्वे यह स्पष्ट करता है कि एक नया सामाजिक गठबंधन उभर रहा है और वह उस पुराने दक्षिणपंथी अंधराष्ट्रीय सामाजिक गठबंधन की जगह ले रहा है जो 2016 में ट्रम्प की जीत के लिए जिम्मेदार था।

अपनी पसंद को ट्रम्प न बताने के लिए गिनाए गए 5 प्रमुख कारण, जो सर्वे में बताए गए इस प्रकार थे- 46 प्रतिशत ने कहा कि ट्रम्प झूठा है और भरोसेमंद नहीं है। तो ट्रम्प के व्यक्तिगत अवगुण वोटरों के दिमाग में सर्वोपरि हैं, जबकि भीतर निहित नीतियों की पसंद-नापसंद इन अवगुणों के नीचे दब जाती हैं। जहां तक नीतियों के पसंद की बात है तो 25 प्रतिशत लोगों ने कहा कि ट्रम्प ने कोविड संकट में लापरवाही की और यह दूसरा बड़ा कारण बन रहा है कि लोग ट्रम्प को वोट नहीं देना चाहते। 22 प्रतिशत मतदाताओं ने कहा कि ट्रम्प संविधान का सम्मान नहीं करते। यद्यपि सर्वे करने वाली एजेंसी ने संविधान को लेकर सवाल किया, ज्यादातर लोगों ने कहा कि ट्रम्प निरंकुश हैं और वे लोकतंत्र की अवमानना करते हैं। 19 प्रतिशत लोगों ने यह भी कहा कि ट्रम्प रेसिस्ट हैं और उन्होंने ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ आन्दोलन के साथ सही बर्ताव नहीं किया। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि सर्वे में इस प्रश्न का उत्तर देने वालों का ब्रेकअप श्वेत और अश्वेत के रूप में उपलब्ध नहीं है। फिर भी, ट्रम्प के रेसिस्ट (racist) होने की धारणा उन्हें वोट न देने के पीछे चौथा प्रमुख कारण बनता है। 18 प्रतिशत वोटरों ने यह कहा कि ट्रम्प गरीबों की कीमत पर धनी लोगों का साथ देते हैं, जिससे यह साबित होता है कि ट्रम्प की प्रो-प्लूटोकै्रसी (pro-Plutocracy) नीतियां और प्रत्यक्ष वर्गीय पसंद भी वोटरों के दिमाग में है; यह पांचवा प्रमुख कारण है। आंकड़े जुड़कर 100 प्रतिशत नहीं हाते क्योंकि हर व्यक्ति को अपने उत्तर के लिए दो कारण बताने को कहा गया था।

ट्रम्प को पसंद करने वालों ने जो दो प्रमुख कारण गिनाए गए वे थेः ट्रम्प अमेरिका को प्रथम स्थान देंगे। इस उत्तर में छिपी है साम्राज्यवादी और अंधराष्ट्रवादी ‘फर्स्ट नेशन सिन्ड्रोम’ वाली भावना। यह इस बात को प्रतिबिंबित करता है कि अमेरिकियों का एक बड़ा हिस्सा अमेरिका की एक वैश्विक शक्ति के स्थान से नीचे गिरने पर भयाक्रान्त है। 35 प्रतिशत लोगों को यह भरोसा है कि ट्रम्प बिगड़ती अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला देंगे। धनी अमेरिका को मंदी का भूत अभी से सताने लगा है-खासकर उन धनाड्यों को जो ट्रम्प के टैक्स कट्स और सरकार द्वारा कम खर्च के वायदे पर फिदा हैं। पर गहरे डिप्रेशन को रोकने में ट्रम्प की नवउदारवादी नीतियों की असफलता जगजाहिर है। अर्थव्यवस्था की वस्तुगत स्थिति मांग करती है कि रिवाइवल पैकेजों की एक और श्रृंखला आए और गरीबों को डिप्रेशन के प्रभाव से बचाने के लिए नव-कीन्ज़ीयन रिलीफ पैकेज की घोषणा हो, जिसके मायने हैं सरकारी खर्च बढ़ाना। पर अमेरिका के धनाड्यों में नवउदारवादी सिद्धान्त हावी हैं और इनके मन में एक ही प्राथमिकता है-ट्रम्प के कथित टैक्स कट (tax cut) उनकी तिजोरियों में कितना अधिक धन रखें। तो उच्च मध्यम वर्ग को छोड़कर अधिकतर लोग ट्रम्प के विरोध में जा रहे हैं।

25 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे ट्रम्प को इसलिए वोट देंगे कि वह समाजवादियों और वामपंथियों के उभार को रोकेंगे; इससे लगता है कि कट्टर दक्षिणपंथियों की संख्या पहले की अपेक्षा कम हुई है। 32 प्रतिशत ने कहा कि वे ट्रम्प को इसलिए वोट देंगे कि वे अपने वायदों को पूरा करेंगे। कुल मिलाकर जिन 42 प्रतिशत लोगों के अल्पमत ने ट्रम्प को वोट देने की बात की है, उनमें एक-तिहाई उन्हें पॉपुलिस्ट नहीं बल्कि ईमानदार मानते हैं, जबकि जिन 51 प्रतिशत लोगों के बहुमत ने उन्हें वोट न देने की बात कही है उनमें आधे ट्रम्प को झूठा मानते हैं। यानी मतदान के समय पॉपुलिज़्म काम नहीं करेगा।

1987 में ट्रम्प और टोनी श्वार्ट्ज ने एक किताब लिखी-‘आर्ट ऑफ द डील’ (Art od the Deal)। किताब बेस्टसेलर थी और ट्रम्प के राजनीतिक कैरियर में मार्गदर्शक बनी। विडम्बना यह है कि एक रूसी राष्ट्रपति पुतिन और रूसी माफिया के साथ समझौते के लिए ट्रम्प महाभियोग /इंपीचमेंट के नज़दीक पहुंचे थे; इसमें उनसे कैंपेन फंडिंग लेने के बदले में नीतिगत रुख समायोजित करने का मामला था। शायद किसी अलिखित समझौते के तहत उन्हें जांचकर्ताओं द्वारा व्यक्तिगत तौर पर छोड़ दिया गया, बावजूद इसके कि उनके कैंपेन मैनेजरों में से कुछ ने अनियमितताएं की थीं। लगता है कि जांचकर्ताओं को लगा कि अमेरिकी मतदाताओं के बड़े हिस्से को इस बदनामी से बचाना होगा कि उन्होंने उच्चतम पद पर एक देशद्रोही को चुनकर पहुंचाया।

यद्यपि 2016 में ट्रम्प हिलेरी क्लिंटन के विरुद्ध पॉपुलर वोट (popular vote) हार गये थे, वे इलेक्टोरल कॉलेज (electoral college) के वोट से व्हाइट हाउस में प्रवेश कर सके। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में व्यवस्था का इलेक्टोरल कॉलेज पॉपुलर वोट पर हावी हो गया। कई गंभीर आरोप थे कि इलेक्टोरल कॉलेज के वोट में ट्रम्प समर्थक धनाड्यों द्वारा हेरफेर की गई, यदि उसे धांधली न भी कहें। इस बार पॉपुलर वोट निर्णायक भी हो सकता है। इत्तेफाक से 1997 के ट्रम्प के एक और बेस्टसेलर का नाम है-‘दि आर्ट ऑफ द कमबैक’। पर यह गाइडबुक ट्रम्प के राजनीतिक कैरियर की इस वर्ष की सबसे बड़ी परीक्षा में शायद ही काम आए।

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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