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क्या सैयद शाह गिलानी राष्ट्रीय मीडिया से श्रृद्धांजलि मिलने के भी पात्र नहीं थे?

कश्मीरी अलगाववादी नेता गिलानी और संपादक चंदन मित्रा के निधन की विरोधाभासी कवरेज से पता चलता है कि राष्ट्रीय प्रेस सरकारी जुबान में बोलती है।
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सिर्फ प्रतीकात्मक उपयोग हेतु। चित्र साभार: द हिन्दू

कश्मीरी नेता सैयद शाह गिलानी और संपादक एवं पूर्व राज्यसभा सांसद चंदन मित्रा का एक ही दिन 1 सितंबर को निधन हो गया। इसके बावजूद, इन दोनों के निधन पर राष्ट्रीय मीडिया की प्रतिक्रिया के अध्ययन में विरोधाभास देखने को मिलता है। मित्रा के लिए जहाँ लगभग हर जगह उनके सहकर्मियों द्वारा, विविध क्षेत्रों के बारे में उनकी रुचियों को अद्भुत पाया गया है। मित्रा के राजनीतिक लेखन में उनके द्वारा प्रदान की गई विश्लेष्णात्मक गहराई और किस प्रकार से इस सबका उनके उपर प्रभाव पड़ा, को लेकर मित्रा के नाम भव्य श्रद्धांजलि लिखी गई। उनकी पत्रकारिता की आवाज की विलक्षणता को लेकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। 

इसके विपरीत, राष्ट्रीय मीडिया ने गिलानी के निधन की घटना पर सिर्फ खबर चला देने लायक समाचार के तौर पर बर्ताव किया है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी मौत में भी उन्हें कश्मीर के भीतर कानून और व्यवस्था के लिए एक खतरे के रूप में माना गया। सूर्योदय होने से पहले ही पुलिस की देखरेख में उन्हें तुरत-फुरत में दफन करने की प्रक्रिया राज्य की दूरदर्शिता का दस्तावेजी सुबूत बन गया है। उनकी मौत विधाता के द्वारा भारत के मांस से किसी “कांटे” को निकाले जाने के समान माना जा रहा है; एक समस्या जो पहले से कम जटिल बन गई है। राष्ट्रीय अखबार ने उनके किसी मित्र या आलोचक को गिलानी पर लिखने के लिए तैनात नहीं किया, जैसा कि उसने मित्रा के मामले में किया।

जैसा कि कहा जाता है कि कोई भी राष्ट्र मीडिया के जरिये खुद से बातें करता है। गिलानी और मित्रा की मौत का विरोधाभासी कवरेज दर्शाता है कि राष्ट्रीय मीडिया कुछ आवाजों को खामोश करा देने में नहीं हिचकिचाता। या फिर उन लोगों की चारित्रिक दुर्बलताओं को ढकने का काम करता है जो भारतीय राज्य की विचारधारा के समर्थक रहे हैं। 

गिलानी और मित्रा ने भारत के वैचारिक विस्तार के दो चरम ध्रुवों को मूर्त रूप दिया है। शायद इस बयान में थोड़ा और सुधार की आवश्यकता है। क्योंकि गिलानी के बारे में कहें तो वे एक अलगाववादी थे, जो कश्मीर में जनमत संग्रह कराने पर जोर देते थे। यहाँ तक कि वे आजाद कश्मीर के विचार तक के विरोधी थे, और अपनी खुद की राष्ट्रीय पहचान को पाकिस्तानी मानते थे, और पाकिस्तान के साथ अपने राज्य के विलय की वकालत करते थे। गिलानी पर अलगाववादी आंदोलन का इस्लामीकरण करने का आरोप चस्पा होता रहा है। अपने लगातार बंद के आह्वान के माध्यम से कश्मीर की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर डालने, जिसे उनकी लोकप्रियता और विश्वसनीयता की वजह से अक्सर सुना जाता था के साथ-साथ हथियारबंद संघर्ष का समर्थन करने के लिए भी दोषी ठहराया जाता है जो घाटी की पीड़ा के पीछे एक कारक रहा है। 

वहीँ मित्रा उन सभी के प्रति तिरस्कार भाव रखते थे जो भारत से अलग होने की इच्छा रखते थे और उनके खिलाफ दमनात्मक कार्यवाई का समर्थन या उसे न्यायोचित मानते थे। उनके अतीत के लेखों को पढ़ने से पता चलता है कि जिन जगहों पर उग्रवादी अलगाववादी आंदोलनों को कुछ हद तक लोकप्रिय समर्थन हासिल था, वहां पर राज्य द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन किये जाने की अनदेखी किये जाने को लेकर उन्हें कोई मलाल नहीं था, वो चाहे पंजाब में रहा हो या कश्मीर में। उन्होंने उन अधिकारियों की सराहना की जिन्होंने निर्दोष नागरिकों की मौतों की अपनी जिम्मेदारी की परवाह किये बिना उग्रवादी आंदोलनों का निर्ममता से दमन किया। मित्रा ने निःसंकोच होकर कठोर निर्मम राज्य के विचार का समर्थन किया था।

हिन्दुत्ववादी विचारधारा के लिए मित्रा का अनुराग उनके संपादकीय लेखों में स्पष्ट नजर आता था। उन्होंने खुल्लम-खुल्ला भारतीय जनता पार्टी का समर्थन किया और उनका दृढ मत था कि भारत की नियति हिन्दू राष्ट्र बनने में है। उनके वामपंथ से दक्षिणपंथ में पाला बदलने के बारे में अधिकांश श्रृद्धांजलियों में उल्लेख किया गया है। हालाँकि, यह रुपान्तरण उतना उदार नहीं था जितना की बताया गया है।

मेरे पास मित्रा के साथ दो वर्षों तक काम करने के दौरान उनके खिलाफ किसी प्रकार की शिकवा-शिकायत की कोई वजह नहीं रही है। लेकिन जो लोग न्यूज़ ब्यूरो में काम किया करते थे उन्होंने इस बात पर काफी जोर दिया था कि कैसे भाजपा को प्रोजेक्ट करने के लिए उनकी स्टोरी को दोबारा से कांट-छांट कर तैयार किया जाता था। या इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कम चलाया गया या कचरे में डाल दिया गया ताकि भाजपा को कोई नुकसान न पहुंचे। इसके बाद तो वे सांसद बन गए। इस सबके बावजूद यह भी कहा जाना चाहिए, जैसा कि उनकी श्रद्धांजलि में वास्तव में किया भी गया है, कि मित्रा का भारतीय लोकप्रिय संस्कृति के बारे में ज्ञान काफी गहरा था। इस बात को उनके फिल्मों, संगीत और पुस्तकों के बारे में जिस उत्साह के साथ वे लिखा करते थे, से समझा जा सकता है। 

मित्रा को दी गई शानदार श्रद्धांजलि के विपरीत राष्ट्रीय मीडिया ने गिलानी के लिए श्रद्धांजलि अर्पित करने के काम को छोड़ देना बेहतर समझा। उनके अतीत को संक्षेप में किसी आम खबर के तौर पर दोहरा दिया गया। एक-आध अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए तो अमूमन बिना किसी व्यक्तिगत प्रयास के खानापूर्ति के रूप में पेश कर दिया गया। गिलानी भले ही भारत के कट्टर विरोधी रहे हों, लेकिन समकालीन इतिहास में उनकी भूमिका निर्विवाद रूप से मित्रा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय मीडिया ने उन लोगों के चित्रण के मामले में भारत राज्य से संकेत ग्रहण किया है जिन्हें वह खलनायक मानती है। इसलिए उन्हें सिरे से ख़ारिज कर दिया जाता है या ऐसा आभास कराया जाता है कि वे हर तरह से असाधारण गुणों से वंचित व्यक्ति थे, मानवता की तो बात ही छोड़ दें। 

इस बात को तय कर पाना निहायत ही मुश्किल है कि श्रद्धांजलि के योग्य कौन है? एन्न व्रो जो कि 2003 से द इकोनॉमिस्ट के लिए मृत्यु-लेखों के संपादन का काम कर रही हैं, का इस बारे में एक सरल नियम है, जिसे उन्होंने एक साक्षात्कार में बताया था: “मुझे लगता है कि इसे हमेशा [सप्ताह की] सबसे बेहतरीन स्टोरी के बारे में होना चाहिए।” उन्होंने वैश्विक नेताओं और मशहूर हस्तियों की श्रद्धांजलि लिखी है; संक्षेप में कहें तो उन सभी के बारे में जो घर-घर में जाना-पहचाना नाम हैं। हालंकि, उनकी सूची में मैरी स्मिथ जैसे लोग भी शामिल हैं जो आईक भाषा की अंतिम जीवित वक्ता थीं, जिनका देहांत 21 जनवरी 2008 को हुआ था।

उस साक्षात्कार में, व्रो से ओसामा बिन लादेन की विवादास्पद श्रद्धांजलि के बारे में पूछा गया था। व्रो ने कहा था “आप चाहें तो इस बारे में कुछ भी उटपटांग लिख सकते हैं कि वह कितना दुष्ट था। मैं उन चीजों के बारे में नहीं लिखना चाहती जो हर कोई उस व्यक्ति के बारे में सोचता है। मैं चाहती हूँ कि वे दुनिया के बारे में क्या सोचते थे, के बारे में लिखूं।”

व्रो ने ओसामा के मृत्युलेख में वैश्विक जिहाद को शुरू करने में उसकी भूमिका ब्यौरा दिया है। इसके बावजूद उन्होंने उसके मानवीय पक्ष को भी उकेरा है: “उसकी पांच पत्नियों में से किसी एक ने कहीं इस बात का जिक्र किया था कि वह सूरजमुखी से प्यार करता था, और शहद के साथ दही खाता था; जो अपने बच्चों को समुदी ले गया और उन्हें तारों की छाँव तले सुलाया; जिसे बीबीसी वर्ल्ड सर्विस सुनना और हर शुक्रवार को दोस्तों के साथ शिकार पर जाना पसंद था... फिर भी उसके जीवन की सबसे अच्छी बात यह थी, जिसे उसने कहा था कि उसके जिहाद ने सर्व-विजेता महाशक्तियों के मिथक को चकनाचूर कर दिया था।’ 

व्रो के दृष्टिकोण से देखें तो गिलानी की स्टोरी निश्चित रूप से सम्मोहक थी। जरा इस पर विचार कीजिये कि: वे एक दिहाड़ी मजदूर के बेटे थे, जो अपने स्कूल तक पहुँचने के लिए, अक्सर खाली पेट 18 किमी पैदल चलते थे। एक इतिहासकार उन्हें इस वादे के साथ अपने साथ लाहौर ले गया कि आगे की पढ़ाई करायेगा - लेकिन फिर वहां पर उन्हें घरेलू नौकर बना कर रख दिया गया। उनका गरीबी से उठकर पिछले तीन दशकों में कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरना किसी चमत्कार से कम नहीं रहा है। 

गिलानी ने अपनी राजनीतिक स्थिति को कभी भी कमजोर नहीं होने दिया या किसी समझौते वाली स्थिति में नहीं गए। यहाँ तक कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ तक ने गिलानी के अड़ियल रुख की धार को महसूस किया था, जब उन्होंने मनमोहन सिंह और मुशर्रफ द्वारा तैयार की गई कश्मीर समस्या को हल करने वाले चार-सूत्रीय फार्मूले का समर्थन करने से साफ़ इंकार कर दिया था। इस सबका ब्यौरा पत्रकार और गिलानी के दामाद, इफ्तिख़ार गिलानी के फ्रंटलाइन और कश्मीर लाइफ में लिखे लेख में मौजूद है, जिसकी उपस्थिति प्रिंट और वेब दोनों जगहों पर मौजूद है।

लेकिन गिलानी की निजी जिंदगी का ब्यौरा काफी कम और काफी असंपृक्त है - और ज्यादातर डिजिटल स्पेस में दिखाई पड़ता है। राजनीतिक शास्त्री सुमंत्र बोस ने बीबीसी वेबसाइट के लिए 1995 में गिलानी के साथ अपनी पहली मुलाक़ात और उनके बीच में दिल खोलकर हुई चर्चा के बारे में लिखा है। गिलानी के बारे में एक बेहद दिलचस्प मृत्युलेख को पत्रकार अहमद अली फ़य्याज़ द्वारा अपने फेसबुक पेज पर डाला गया था, जिसे बाद में द प्रिंट में प्रकाशित किया गया

इसमें फ़य्याज़, गिलानी के साथ अपनी मुलाकातों और प्रेस कांफ्रेंस में उनसे पूछे जाने वाले कठिन सवालों के बारे में बताते हैं। इसके बावजूद गिलानी ने कभी इसे अपने खिलाफ नहीं माना। फ़य्याज़ लिखते हैं, “कश्मीर में हर प्रकार की हिंसा और बन्दूक की संस्कृति के प्रति मेरे ढीठ विरोध के बावजूद, जिसके बारे में मेरा मत था कि इससे सिर्फ कश्मीर की बर्बादी होगी, पर गिलानी साहब मुझे प्यार से “लाला फलिया” (ओह मेरे नजर) कहकर संबोधित किया करते थे।

गिलानी को एक श्रद्धांजलि दे पाने में विफलता से पता चलता है कि राष्ट्र के लिए खुद से बात कर पाना करीब-करीब नामुमकिन क्यों हो गया है, जिसे बड़े ही शब्दाडंबरपूर्ण तरीके से राष्ट्रीय प्रेस या मीडिया कहा जाता है। इसने राज्य की भाषा बोलने को अपनी प्राथमिकता दे रखी है। देश में बढ़ते असंतोष के पीछे की एक वजह यह भी है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त किये गए विचार निजी हैं।

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