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परिचर्चा : विषमता की चुनौतियां और पत्रकारिता की भूमिका

"आज किसान-मजदूर रैली-धरना कर अपना रोष व्यक्त करते हैं पर कथित मुख्यधारा का मीडिया उन्हें स्पेस नहीं देता। क्या इसलिए कि खेतिहर किसान-मज़दूरों की अधिकांश आबादी दलित-बहुजनों की है?"
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प्रतिबद्ध पत्रिका के 10वे वर्ष का लोकार्पण

"आज लोकतंत्र और संविधान दोनों को बचाए जाने का समय है लोकतंत्र विरोधी ताकतों के साथ हमें लड़ना होगा और हम लड़ेंगे। इसके लिए लोकतंत्र का हितैषी और वंचित वर्ग का हर जागरूक लेखक और पत्रकार तैयार है। कलम ही हमारा हथियार है। हम लोकतंत्र विरोधी ताकतों को बराबर चुनौती देते रहेंगे।" यह बात कहते हुए वरिष्ठ दलित साहित्यकार डॉ. कुसुम वियोगी ने अपनी कविता की निम्न पंक्तियां पढ़ीं–

“सन्निकट है युद्ध

हम रहें प्रतिबद्ध

जाने को समर में

आओ हम सब पुकारें एक स्वर में।”

उपरोक्त कथन और कविता पाठ उन्होंने दलित लेखक संघ के तत्वावधान में दलेस की पत्रिका “प्रतिबद्ध” के 10वें वर्ष पर आयोजित परिचर्चा मे किया। इस परिचर्चा का आयोजन 2 अप्रैल 2023 को एफ-19, मिडिल सर्किल, कनाट प्लेस मे किया गया। इस अवसर पर “प्रतिबद्ध” पत्रिका के 10वे वर्ष के अंक का लोकार्पण भी किया गया।

इस पत्रकारिता को हुआ क्या है?

इस अवसर पर बोलते हुए फॉरवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक नवल कुमार किशोर ने कहा कि मीडिया मे जिनकी भागीदारी होनी चाहिए, उनकी नहीं है। आज किसान-मजदूर रैली-धरना कर अपना रोष व्यक्त करते हैं पर कथित मुख्यधारा का मीडिया उन्हें स्पेस नहीं देता। क्या इसलिए कि खेतिहर किसान-मज़दूरों की अधिकांश आबादी दलित-बहुजनों की है?

फॉरवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक नवल कुमार किशोर अपनी बात रखते हुए

"पर हमें निराश होने की जरूरत नहीं है। आज वैकल्पिक मीडिया है। और खबर अगर प्रमाण के साथ हो तो सरकार भी हमें नहीं रोक सकती। जनपक्ष की पत्रकारिता पर थोड़ा दबाब तो होता है। पत्रकारिता की चुनौतियां हमेशा रहती हैं। पर साहस रखिए और खूब लिखिए।"

परिवर्तनकामी है दलित लेखन

प्रोफ़ेसर और वरिष्ठ आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा, "दलित लेखन यथास्थिति से टकराता है उसे तोड़ता है। यह परिवर्तनकामी लेखन है। दलित लेखन जाति मुक्ति का साहित्य है। मैंने विभिन्न भाषाओँ के दलित साहित्य का अध्ययन किया और ‘कथादेश’ पत्रिका में एक कॉलम के माध्यम से छपवाता रहा। मेरा मानना है कि जाति व्यवस्था पूरे देश में एक साथ टूटेगी। आज का समय ऐसा है की अमन-चैन की बात भी करो वो हिन्दू विरोधी मानी जाती है।"

बजरंग बिहारी तिवारी अपना वक्तव्य देते हुए

जाति का मुद्दा सबसे बड़ी चुनौती है

वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने कहा, "आज की तारीख मे जाति से बड़ी विषमता क्या होगी। पर वर्ष 2023 के समय मे हमें लोकतंत्र और संविधान को ध्यान मे रखना होगा। आज पितृसत्ता और साम्प्रदायिकता की विषबेल बढ़ रही है। देश मे लोकतंत्र जिन्दा रहना चाहिए। संविधान का शासन जिन्दा रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि आज मनुस्मृति को पुनर्स्थापित करने की जो मंशा है वो हमें स्वीकार्य नहीं है। हमें ऐसे समय मे खासतौर से सतर्क रहना होगा जब बाबा साहेब की 22 प्रतिज्ञाएं पढ़ना देशद्रोह हो जाए।"

वक्ता के तौर पर भाषा सिंह ने रखी अपनी बात

"जाति का मुद्दा हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है। बड़ा सवाल है। जाति का सवाल सैनिटेशन से जुडा है। आज सफाई कर्मचारी आंदोलन Stop Killing Us का अभियान चला रहा है। लोगों को सीवर-सेप्टिक टैंको मे मारा जा रहा है।"

उन्होंने आर्थिक विषमता की ओर संकेत करते हुए कहा कि आज 21 अरबपतियों के पास 70 करोड़ लोगों की संपत्ति से अधिक संपत्ति है। सरकार आर्थिक समानता की बात करती है और इसके विपरीत चलती है। अडानी का उदाहरण हमारे सामने है।

उन्होंने आगे कहा, "लोकतंत्र आज सबसे गहरे संकट में है। आज की तारीख मे लोकतंत्र और संविधान को बचाने के लिए सभी वंचितों को एक साथ आने की जरूरत है। आज वंचितों की आवाज महिलाओं की आवाज एक होना जरूरी है नहीं तो ये लड़ाई लम्बी चलेगी।"

मुख्यधारा के मीडिया मे क्यों नहीं हैं आदिवासी और दलित?

पत्रकारिता के प्रोफेसर आनंद प्रधान ने कहा कि बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर  ने संविधान सभा के आख़िरी सत्र के भाषण मे कहा था कि एक व्यक्ति एक वोट से राजनीतिक रूप से तो बराबरी आ जाएगी पर सामाजिक और आर्थिक विषमता कायम रहेगी और यह खतरनाक स्थिति होगी। आज देश मे सामाजिक विषमता भी बढ़ रही है और आर्थिक विषमता भी। फर्क ये है कि ये विषमता नए रूप लेकर आ रही है।

आनंद प्रधान अपनी  बात रखते हुए

मीडिया जो अपने आप को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता है और जो खुद को लोकतंत्र का पक्षधर कहता है वहां दलितों और आदिवासियों के साथ कितना भेदभाव होता है यह देखना चाहिए। चौथा स्तंभ का दावा करने वाले कितने लोकतांत्रिक हैं यह देखना चाहिए। यह देखना चाहिए कि उनके यहां कितने संपादक और पत्रकार दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिलाएं हैं।

न्यूज़रूम मे किस खबर को पहले पेज पर दिया जाएगा कौनसी न्यूज़ लीड बनेगी – इसका डिसीजन कौन लेता है – यह देखा जाना चाहिए। यहां न दलित होंगे, न आदिवासी। यह विषमता एक बड़ी चुनौती है।

हाशिए के पत्रकारों को एकजुट होना जरूरी

पत्रकार और लेखक रूपचंद गौतम ने कहा कि "विषमता के मेरे बड़े कडवे अनुभव रहे हैं। मुझे पत्रकारिता  के तौर पर दलितों, वंचितों, आदिवासी के आंकड़े लेने मे मुझे बहुत परेशानी हुई। आज आवश्यकता इस बात की है कि दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक वर्गे के पत्रकार एकजुटता दिखाएं तभी लोकतंत्र विरोधी ताकतों का मुकाबला किया जा सकता है।"

वरिष्ठ दलित साहित्यकार कुसुम वियोगी और दलित लेखक संघ  अध्यक्ष डॉ. राजकुमारी

इस अवसर पर वरिष्ठ दलित साहित्यकार कुसुम वियोगी जी ने अपनी “डेमोक्रेसी” शीर्षक की निम्न कविता भी सुनाई –

जब से तुमने हाथ मे कलम थामी है
तुम पानेसर, गौरी लंकेश, 
कलबुर्गी की कतार मे आ खड़े हो 
जो उनके भगवा शब्दकोष मे अर्बन नक्सली हैं
 जिन्हें संगीनों के साए मे, भेड़ों-सा घेर कर, 
करना चाहते हैं लोहे की सलाखों के पीछे, 
शब्दों को, कुचलना भी चाहते हो, 
खाकी वर्दी के बूटों तले, 
मगर, 
खूब समझ लो, 
हम तुम्हारे तबेले मे, 
डेमोक्रेसी हलाल नहीं होने देंगे!

दलितों और वंचितों के हैं दो दुश्मन – पूंजीवाद और मनुवाद

“प्रतिबद्ध” पत्रिका के संपादक हीरालाल राजस्थानी ने कहा की दलित साहित्य सामाजिक विषमता की तो बात करता है पर हमारा साहित्य और पत्रकरिता राजनीति तक नहीं पहुंच पाती। ऊंगली हमें अपनी ओर भी करनी पड़ेगी।

वक्ताओं को प्रतिबद्ध की ट्राफी देते संपादक हीरालाल राजस्थानी

हमारे 131 सांसद हमारी बात नहीं करते। जब हाथरस कांड हुआ था तब ये लोग कहां थे?

"हमें अगर हमारे अधिकारों की रक्षा करनी है तो कमान अपने हाथ मे लेनी होगी। और जो हमारा साथ दे रहे हैं हमें उनका भी स्वागत करना होगा। हम आत्मचिंतन नहीं कर रहे हैं। हम लोकतंत्र विरोधी ताकतों को निशाने पर नहीं ले रहे हैं। इसलिए उनके हौसले बुलंद हैं। धीरे-धीरे हम मनुवादी संस्कृति का हिस्सा बनने लगे हैं। हम SACRIFICE करना भूल गए हैं। और हम अपने शोषणकर्ताओं का ही हथियार बन रहे हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि बाबा साहेब ने कहा था – तुम्हारे दो शत्रु हैं – पूंजी वाद और मनुवाद।"

उन्होंने “प्रतिबद्ध” पत्रिका के सफ़र पर भी प्रकाश डाला।

दलित लेखन संघ की अध्यक्ष और लेखिका डॉ. राजकुमारी ने कहा कि “प्रतिबद्ध” पत्रिका ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं। यह चार पृष्ठ से शुरू होकर आज 300 पृष्ठों के ऊपर जा चुकी है। इसे यहां तक लाने मे हीरालाल राजस्थानी जी का बड़ा योगदान है।

सुनील पंवार के लेख “प्रतिबद्ध की अंतरयात्रा” का दिल्ली विश्वविद्यालय की पी.एचडी स्कोलर अंजलि ने पाठ किया।

कार्यक्रम का मुकेश मिरोठा जी ने सफलता पूर्वक संचालन किया।  

कार्यक्रम के अंत मे वक्ताओं को “प्रतिबद्ध” का प्रतीक चिन्ह प्रदान दिया गया।

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