Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

मुकेश से रूपेश तक: क़ीमत चुकाती ज़िंदगी

आज पत्रकार हों या एक्टिविस्ट या कोई भी संवेदनशील जागरूक नागरिक जो भी आगे बढ़कर अपनी चिंता जाहिर करना चाहता है, सवाल उठाना चाहता है उसे उसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ रही है।
Journalist

आसान है करना प्रधानमंत्री की आलोचना

मुख्यमंत्री की करना उससे थोड़ा मुश्किल

विधायक की आलोचना में ख़तरा ज़रूर है

लेकिन ग्राम प्रधान के मामले में तो पिटाई होना तय है।

अमेज़न के वर्षा वनों की चिंता करना कूल है

हिमालय के ग्लेशियरों पर बहस खड़ी करना

थोड़ा मेहनत का काम

बड़े पावर प्लांट का विरोध करना

एक्टिविज्म तो है जिसमें पैसे भी बन सकते हैं

लेकिन पास की नदी से रेत-बजरी भरते हुए

ट्रैक्टर की शिकायत जानलेवा है।

स्थानीयता के सारे संघर्ष ख़तरनाक हैं

भले ही वे कविता में हों या जीवन में।

(प्रदीप सैनी की कविता... स्थानीयता)

छत्तीसगढ़ के युवा पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या के बाद से मुझे यह कविता बार-बार याद आ रही है। कई लोगों ने इसे सोशल मीडिया पर भी शेयर किया है। वाकई स्थानीयता के सारे संघर्ष ख़तरनाक हैं। ख़तरनाक है एक ज़मीनी पत्रकार होना। और सिर्फ़ पत्रकार ही नहीं ख़तरनाक है सच्चा राजनीतिक कार्यकर्ता होना, मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ता होना। यहां तक कि आरटीआई एक्टिविस्ट होना या फिर एक संवेदनशील जागरूक नागरिक होना। जो भी सवाल उठाएगा उसे उसकी भारी क़ीमत चुकानी होगी। मुकेश चंद्राकर से लेकर रूपेश कुमार तक, लिंगाराम कोड़पी से लेकर मनीष आज़ाद तक। यहां तक कि गुलफिशा और उमर ख़ालिद तक सब इसी की मिसाल हैं।

मुकेश चंद्राकर

इसी स्थानीयता, इसी ज़मीनी पत्रकारिता की क़ीमत चुकाई है युवा पत्रकार मुकेश चंद्राकर ने। छत्तीसगढ़ के बीजापुर के पत्रकार मुकेश चंद्राकर की उनकी पत्रकारिता की वजह से बर्बर हत्या कर दी गई। उन्हें एक सड़क में हुए भ्रष्टाचार को उजागर करने के कारण मार डाला गया। मुकेश एक जनवरी की रात से ही घर से लापता थे। बाद में उनका शव एक सैप्टिक टैंक में मिला। उनकी हत्या का आरोपी ठेकेदार सुरेश चंद्राकर गिरफ़्तार तो हो गया है, लेकिन इंसाफ़ अभी दूर है। इसी इंसाफ़ की मांग को लेकर छत्तीसगढ़ से दिल्ली तक के पत्रकार एकजुट हुए हैं। 

7 जनवरी, 2025 को दिल्ली स्थिति प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक विरोध सभा हुई जिसमें बड़ी संख्या में पत्रकार जुटे। सभी ने ज़िला और दूर-दराज के इलाकों में ज़मीनी पत्रकारिता करने की मुश्किलों और ख़तरों की बात की।  

मुकेश चंद्राकर का यू-ट्यूब चैनल देखकर साफ़ लगता है कि उनकी रिपोर्टिंग ने प्रभावशाली लोगों को इतना परेशान कर दिया कि उन्होंने उन्हें रास्ते से हटा दिया। उनकी ज़िंदगी ही छीन ली। यह बात दिल्ली में तथाकथित मुख्यधारा या कॉरपोरेट/गोदी मीडिया में बैठे बड़े बड़े एंकर नहीं समझ पाएंगे जो दिन भर हिंदू-मुस्लिम की डिबेट चलाते हैं और कभी कभार रिपोर्टिंग के नाम पर हैलीकॉप्टर से उड़ते हैं और नेताओं के साथ गलबहियां करते हुए ग्राउंड रिपोर्ट का दिखावा करते हैं।

हालांकि राजधानी दिल्ली या ऐसे ही महानगरों में भी सच्ची और अच्छी पत्रकारिता करना आसान नहीं हैं। जहां ग्रामीण या ज़िला स्तर पर पत्रकारों की हत्या कर दी जा रही है, वहीं दिल्ली जैसी जगह में भी अगर आप सत्ता से हाथ मिलाकर नहीं चलते, नेताओं-मंत्रियों का गुणगान, महिमागान नहीं करते और जनता या लोकतंत्र के सवाल उठाते हैं तब भी आपका पत्रकारिता करना तो दूर जीना मुश्किल कर दिया जाता है। 

इसी बात को दिल्ली के प्रेस क्लब में हुई सभा में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने उठाया। उन्होंने कहा कि बेशक ज़िला और ग्रामीण स्तर पर पत्रकारिता के सामने मुश्किल चुनौतियां हैं लेकिन दिल्ली के भी सारे पत्रकार कंफर्ट ज़ोन में हैं ऐसा नहीं है। जो भी बड़े ओहदेदारों चाहे वो मुख्यमंत्री हों, मंत्री हों या प्रधानमंत्री, उनके साथ गलबहियां नहीं करता उन पर झूठे मुकदमें थोप दिए जाते हैं। उनकी वेबसाइट बंद करा दी जाती है, उनके यू-ट्यूब चैनल पर शैडो बैन लगा दिया जाता है। उन्हें देशद्रोही तक बता दिया जाता है। 

वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने कहा कि एक पत्रकार एक दिन में नहीं बनता, बरसों लगते हैं। इसलिए यह सिर्फ़ एक पत्रकार की हत्या नहीं बल्कि उसके कौशल की भी हत्या है। यह हत्या उन गुनाहों पर पर्दा डालने की भी कोशिश है जो मुकेश जैसे पत्रकार उजागर करते हैं। रवीश ने कहा कि सिस्टम ने अब मान लिया है कि इस लोकतंत्र की यात्रा में पत्रकारिता अब उसकी सहयोगी नहीं है, इसलिए उसने पत्रकार और पत्रकारिता से सहयोग और सुरक्षा हटा ली है। इसलिए यही समय है कि हम साथ आएं, एक दूसरे का पुल बने, एक दूसरे के साथ एकजुटता दिखाने का।

वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता ने कहा कि अगर हम दिल्ली बैठकर मुकेश जैसे पत्रकारों के साथ खड़े नहीं होते तो हम सच्चे पत्रकार नहीं हैं। 

द वायर हिंदी के संपादक आशुतोष भारद्वाज ने कहा कि हमने बस्तर जैसे इलाको में पत्रकारिता का पूरा भार मुकेश, राजा, गणेश आदि जैसे पत्रकारों पर डाल दिया है। अगर हमारे भीतर राजनीतिक चेतना है कि हम ख़बरों को ज़िंदा रखना चाहते हैं, तो हमें वहां तुरंत रिपोर्टिंग करनी शुरू करनी होगी।

लिंगाराम कोडोपी

मुकेश की तरह आपको छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी पत्रकार लिंगाराम कोड़ोपी को भी नहीं भूलना चाहिए। लिंगाराम ने भी पुलिस की बर्बरता और महिलाओं से बलात्कार की रिपोर्टिंग की थी। 

सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार लिखते हैं कि लिंगाराम को किस तरह दंतेवाड़ा पुलिस ने टॉर्चर किया। ‘पुलिस मेरा टॉर्चर करेगी’ यह बात लिंगा ने बस्तर जाने से पहले दिल्ली में ही एक एफिडेविट बना कर सार्वजनिक कर दी थी। वही हुआ पुलिस ने लिंगा को फर्जी मामले में फंसा कर जेल में डाल दिया। हम लोगों ने सुप्रीम कोर्ट से उन्हें जमानत दिलवाई थी। बाद में उनके ऊपर लगाये गये तीनों केस फर्जी पाए गए थे। लेकिन लिंगा को टॉर्चर करने वाले पुलिस अधिकारी और फर्जी केस बनाने वाले पुलिस वालों पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई ၊

रूपेश कुमार

यह अकेले छत्तीसगढ़ की ही कहानी नहीं है। झारखंड के पत्रकार रूपेश कुमार सिंह क़रीब ढाई वर्ष से जेल में बंद हैं। उनकी जीवनसाथी Ipsa Shatakshi अभी हाल में एक पेशी के दौरान उनसे मिल पाईं। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है कि 29 नवंबर का दिन बहुत ही खास रहा हमारे लिए। करीब 2 साल के बाद एक बेटा अपने पिता की गोद में बैठा, और मैं अपने जीवनसाथी से गले मिल सकी जब वह पटना सिविल कोर्ट में ट्रायल पर चल रहे एक मुकदमे में पेशी के लिए भागलपुर के शहीद जुब्बा सहनी केंद्रीय कारा से लाए गए।

मानवाधिकार के मुद्दे पर बेख़ौफ़ लिखने बोलने वाले मेरे जीवनसाथी स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह 17 जुलाई 2022 को गिरफ्तार किए गए और अब तक 4 जेलों में ( जिनमें 2 झारखंड और 2 बिहार की जेलें शामिल हैं) रखे जा चुके हैं। वे वर्तमान में भागलपुर के शहीद जुब्बा सहनी केंद्रीय कारा में बंद हैं।

रूपेश जेल से ही अपनी तीसरी मास्टर्स डिग्री के लिए इग्नू की दिसंबर सत्रांत की परीक्षा में शामिल होंगे। इस बार वह 'मास्टर्स इन जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन' की परीक्षा में बैठेंगे। जेल से ये इनकी दूसरी मास्टर्स डिग्री होगी। इससे पहले वह जेल से स्नातकोत्तर की डिग्री इस साल पूरी कर चुके हैं।

अगर विषयांतर न लगे तो पत्रकारों के साथ उन लोगों की बात कर ली जाए जो पेशेवर पत्रकार तो नहीं हैं लेकिन काम पत्रकार या कभी-कभी उससे भी बढ़कर कर रहे हैं। क्योंकि इन्हें भी सत्ता की सच्चाई उजागर करने, सवाल पूछने की सज़ा मिल रही है।

मनीष आज़ाद

मनीष आज़ाद को 5 जनवरी, 2025 को उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद में उनके घर से गिरफ़्तार किया गया। 

मनीष आज़ाद की बहन और मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आज़ाद लिखती हैं कि 5 जनवरी को 3 बजे दोपहर में एटीएस के लोग 3-4 गाड़ियों में भर कर हमारे गोविंदपुर स्थित घर पर आए पूरे मोहल्ले में आतंक का माहौल बनाया और मेरे भाई मनीष आज़ाद को उस केस में गिरफ्तार कर ले गए, जिसमें वे 4 साल पहले ही जमानत पर बाहर आकर घर पर रह रहे हैं। मनीष आज़ाद अनुवाद का काम करते हैं कवि हैं और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।

2019 के पहले वे भोपाल में रहते थे। 2019 में ATS ने उन पर और उनकी पत्नी अमिता पर FIR दर्ज कर लखनऊ जेल भेज दिया था। FIR में यह कहा गया था कि मनीष उत्तर प्रदेश में घूम घूम कर लोगों को सरकार के खिलाफ भड़काते है। इस केस में वे आठ महीने बाद 2020 में जमानत पर बाहर आ गए, और इलाहाबाद स्थित घर पर ही माता पिता और पत्नी के साथ रह रहे हैं और अनुवाद का काम कर रहे थे। जमानत पर बाहर आने के बाद भी एटीएस कई बार घर पर आ कर पूछताछ के नाम पर उन्हें और मेरे माता पिता को मानसिक रूप से उत्पीड़ित कर चुकी है। ATS को पता था कि वे घर पर ही माता पिता और पत्नी के साथ रहते हैं, फिर भी उन्होंने गिरफ्तारी के आदेश में लिखा है कि वे फरार थे और "मुखबिर ने उनकी लोकेशन दी।" एटीएस पुलिस और उनकी संस्थाएं ऐसी कहानी गढ़ने में माहिर हैं। कानून के मुताबिक एटीएस के लोगों को मेरे भाई मनीष को नजदीकी कोर्ट यानी इलाहाबाद की कोर्ट में हाजिर करके ले जाना चाहिए था, लेकिन उन्होंने इसका भी पालन नहीं किया। वे सीधे मनीष को लखनऊ ले गए। मनीष का मोबाइल भी वे जब्त करके ले गए। पुराने केस में धारा बढ़ाकर मनीष आज़ाद की फिर से गिरफ्तारी करना न्याय की बड़ी अवमानना है। 

पीयूसीएल यूपी ने भी एक बयान जारी कर मनीष की गिरफ़्तारी पर सवाल उठाए हैं। 

पीयूसीएल के अध्यक्ष टीडी भास्कर और महासचिव चित्तजीत मित्रा की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि हाल ही में लेखक, अनुवादक और राजनैतिक कार्यकर्ता मनीष आज़ाद की पुनः गिरफ्तारी जांच एजेंसियों द्वारा कानून का दुरूपयोग है। इस बार पुराने केस में ही नई धाराएं जोड़कर उन्हें वापस गिरफ्तार कर लिया गया है जो की प्रथमदृष्टया ही संदेहजनक और गैरकानूनी है। पीयूसीएल ये मांग करता है कि ऐसे गलत ढंग से गिरफ्तार करने और कानून के दुरूपयोग पर माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय स्वतः संज्ञान ले और जांच एजेंसियों पर ज़रूरी अंकुश लगाए और साथ ही कुछ कड़े दिशानिर्देश जारी करे जिससे इस प्रकार से मानवाधिकारों का हनन ना हो।

भाकपा (माले) ने भी मनीष आज़ाद की गिरफ़्तारी को असहमति की आवाज़ पर हमला बताया है। पार्टी के प्रयागराज ज़िला प्रभारी सुनील मौर्य की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश के अंदर बुलडोजर राज चल रहा है। गरीबों का घर और लोकतांत्रिक आवाजों पर बिना किसी अपराध के बुलडोजर दौड़ाया जा रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता मनीष आजाद को नक्सली बताकर और फर्जी अपराधिक केस लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया है जो कहीं से भी उचित नहीं है। जो भी सत्ता के खिलाफ जनता के पक्ष में आवाज बुलंद कर रहा है उसको सरकार बर्दाश्त नहीं कर रही है। हर असहमति की आवाज को किसी न किसी रूप में दबाया जा रहा है। सांप्रदायिक फासीवादी दौर में जनता के पक्ष में खड़ा होना अपराध हो गया है जिसकी सजा मनीष आजाद को मिल रही है। भाकपा माले बिना शर्त रिहाई की मांग करता है और सरकार के दमन के खिलाफ मजबूती से आवाज बुलंद करने वालों के साथ खड़ा है।

महेश कुमार

अंत में बात महेश कुमार की। जिनकी 6 जनवरी को दिल्ली में अचानक ही दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई। वे महज़ 56 वर्ष के थे।

महेश कुमार भी बेहद संवेदनशील और जुझारू व्यक्ति थे। वे पत्रकार के साथ-साथ पॉलिटिकल एक्टिविस्ट भी थे। न्यूज़क्लिक के लिए उन्होंने लेख लिखे, हिंदी से अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी से हिंदी में ख़बरों का अनुवाद किया। साथ ही वह सीपीएम के मुखपत्र लोक लहर से भी जुड़े थे। उनकी पहचान पश्चिमी दिल्ली के DYFI के जुझारू नेता के रूप में भी थी। वह 90 के दशक में दिल्ली SFI और DYFI के राज्य सचिव भी रह चुके थे। 6 जनवरी की रात वह अपने घर में मृत पाए गए। वह अकेले रहते थे। उनकी पत्नी पहले ही गुज़र चुकी हैं। एक बेटा है वह बाहर रहकर पढ़ रहा है। इस वजह से वह घर में अकेले ही थे। दिन में किसी समय उन्हें दिल का दौरा पड़ा और जब तक पता चलता उनकी मृत्यु हो चुकी थी। 

महेश भी हर समय राजनीति, पत्रकारिता, लोकतंत्र जैसे सवालों को लेकर चिंतित रहते थे और छात्र जीवन से लेकर अब तक सरकारों का दमन भी झेल रहे थे। एक दलित परिवार से आने वाले महेश कुमार ने 16 साल की उम्र में ही पुलिस-प्रशासन का क्रूर चेहरा देख लिया था। उस समय उन्होंने अपनी बस्ती में पुलिस अत्याचारों का विरोध किया और गिरफ़्तार कर लिए गए और पुलिस की प्रताड़ना सही। 

इस तरह देखा जाए तो पत्रकार या एक संजीदा संवेदनशील इंसान होना बेहद तनावपूर्ण और जोखिम भरा है। यह कल भी ख़तरनाक था लेकिन आज तो जानलेवा हो गया है। कब कौन डिप्रेशन में चला जाए, किसकी दिमाग़ की नस फट जाए, कब दिल का दौरा पड़ जाए या कब झूठे मुकदमों में जेल हो जाए, कब हमला या हत्या हो जाए। कुछ नहीं कहा जा सकता।

इसलिए यह समय हर लिहाज़ से बेहद चुनौतीपूर्ण है और इसका मुकाबला एकजुटता से ही किया जा सकता है।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest