पत्रकार मुकेश चंद्राकर के मौत से उपजते सवाल

पत्रकार मुकेश चंद्रकार की 1 जनवरी, 2025 को हत्या कर दी गई। हत्या की साज़िश का आरोप उनके रिश्ते के भाई और ठेकेदार सुरेश चंद्राकर और सुपरवाईजर पर है।
इस हत्याकांड की गूंज भारत की कॉरपोरेट मीडिया (गोदी मीडिया) से लेकर यू-ट्यूब तक सुनाई दे रही है। हमारी जानकारी में यह किसी पत्रकार की हत्या का पहला मामला होगा, जिसको मीडिया में इतनी जगह मिल रही है और लगातार यह सोशल साइट से लेकर प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, यू-ट्यूब और लघु-पत्रिकाओं में आ रहा है।
यह बहुत ही अच्छी बात है कि मुकेश चंद्रकार की हत्या का मामला उठाया जा रहा है लेकिन आधे और अधूरे तरीके से। अगर इसे समग्रता से उठाया जाता तो यह सचमुच में पत्रकारों और जनता के लिए लाभदायक होता।
यह मामला सत्ताधारी पार्टी के नजरिये से उठ रहा है और यही कारण है कि गोदी मीडिया ने इस मामले को उठाया और उसका अनुसरण इस देश के अन्य जागरूक मीडिया (यू-ट्यूब या सोशल-मीडिया) ने किया।
भारत में पत्रकारों के उत्पीड़न और उन पर हमले के स्रोतों पर नजर डालने पर भारत में पत्रकारों की चिंताजनक हालत पता चलती है। पत्रकारों को लालच, माफिया और सरकार के दबाव में काम करना पड़ता है। यही कारण है कि 2023 के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों में भारत का स्थान 161वें नम्बर पर था।
गृह राज्यमंत्री श्री हंसराज गंगराम अहीर द्वारा 1 अगस्त् 2020 को राज्यसभा प्रश्न संख्या-1670 में 2015 से 2017 तक के आंकड़े दिए गये हैं। इसमें गृह मंत्रालय ने माना है कि यह आंकड़े पूरे नहीं हैं क्योंकि कुछ राज्यों के आंकड़े नहीं मिले हैं।
जो आंकड़े उपलब्ध हैं उनके अनुसार पत्रकारों पर हमले को लेकर 2015 में 28 सीआर और 41 पीएआर दर्ज हैं। 2016 में 47 सीआर और 41 पीआर दर्ज किये गये हैं।
न्यूयार्क स्थित पोलिस प्रोजेक्ट के अनुसार मई 2019 से अगस्त 2021 तक 228 पत्रकारों पर हिंसा की रिपोर्ट दर्ज की गई है, जिसमें दिल्ली दंगे के समय 19 पत्रकारों के साथ हिंसा को दर्ज किया गया है।
दिल्ली के ब्रह्मपुरी इलाके में कारवां पत्रिका की महिला पत्रकार के साथ हुए दुर्व्यवहार को कैसे भूल सकते हैं। इसके साथ ही कई पत्रकारों को झूठे आरोपों में फंसा कर जेल में डाला गया है, जिन पर यूएपीए तक के केस लगाये गये हैं।
अगस्त 2024 में छत्तीसगढ़ के बस्तर में चार पत्रकारों पर झूठे केस लगाकर जेल में डाले जाने की खबर को मुकेश चंद्राकर ने जब वायर के साथ मिलकर रिपोर्ट किया तो उन्हें वरिष्ठ पुलिस अधिकारी द्वारा डराया गया था।
पत्रकारों पर नजर रखने वाले संगठन सीपीजे (पत्रकारों की सुरक्षा के लिए समिति) के अनुसार भारत में 1992 से अब तक 63 जर्नलिस्ट मारे गये हैं। इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन का भी अपना एक सीमित दायरा होगा, जो हर पत्रकार की मृत्यु का रिकॉर्ड नहीं रख पाते होंगे। इसकी रिपोर्ट में 2022-24 तक किसी भी पत्रकार की हत्या का रिकॉर्ड नहीं दिखाया गया है।
हमें जो थोड़ी बहुत जानकारी समाचार पत्रों के माध्यम से मिली, उसमें 18 अगस्त् 2023 को अररिया में 35 वर्षीय पत्रकार विमल कुमार यादव की हत्या, 14 सितम्बर, 2023 को लखीसराय में पत्रकार अवध किशोर पर जानलेवा हमला, 13 मई, 2024 को जौनपुर जिले में पत्रकार आशुतोष श्रीवास्तव की हत्या, 25 जून, 2024 को बिहार के मनियारी थाना क्षेत्र के मारीपुर में पत्रकार शिवशंकर झा की हत्या, 30 जुलाई 2024 में बिहार में पत्रकार गौरव कुशवाहा की पेड़ से लटकी हुई लाश मिली, 23 दिसम्बर, 2024 को बिहार के गिरिडीह में खबर संकलन कर रहे पत्रकार अमरनाथ सिन्हा और अन्य पत्रकारों पर जानलेवा हमला, 28 दिसम्बर, 2024 को पूर्णिया में पत्रकार निलाबर यादव की हत्या, 9 जुलाई, 2023 को पत्रकार संकेत चतुर्वेदी को उनके आवास के पास ही पिटाई, 13 मई, 2024 को रायबरेली में अमित शाह की रैली को कवर कर रहे यू-ट्यूब चैनल ‘मॉलिटिक्स’ के पत्रकार राघव त्रिवेदी की पिटाई, 30 अक्टूबर 2024 को पत्रकार दिलीप सैनी की हत्या, नवम्बर 2024 में हमीरपुर के पत्रकार अमित द्विवेदी, और शैलेन्द्र मिश्रा को भाजपा के नगर पंचायत अध्यक्ष पवन अनुरागी द्वारा पिटाई, जनवरी 2025 में मथुरा में अस्पताल में हुई बच्ची की मौत की खबर दिखाने पर पत्रकार से मारपीट किया और पैसा छीन लिया गया, 7 जनवरी, 2025 को पत्रकार रवि के खाने का सामान खराब होने की शिकायत इतनी नागवार गुजरी कि आरोप है कि भाजपा नेता मनोज द्वारा रवि के परिवार के सामने उनको पीटा गया, 7 जनवरी 2025 को कर्नाटक में दैनिक गदीनाडु मित्र पत्रिका के संपादक रमनजिनप्पा टीए को खबर प्रकाशित करने पर चप्पलों से पिटाई की गई।
इस तरह के और भी पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं और कोई भी राज्य इससे अछूता नहीं है।
यह हमले ज्यादातर स्वतंत्र और छोटे पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकारों पर हो रहे हैं। कॉरपोरेट मीडिया, जिसको आम भाषा में गोदी मीडिया कहा जा रहा है, रिपोर्टर रखती नहीं। जरूरत पड़ने पर वह स्वतंत्र स्ट्रिंगर की सूचनाओं से ही सूचना लेते हैं, जिसकी एवज में बहुत कम पारिश्रमिक देते हैं। हिंसा की शिकार भी यही स्वतंत्र पत्रकार/स्ट्रिंगर ही होते हैं। इन पर सरकारी दमन होने या जान जाने पर मीडिया यह कहते हुए पाला भी झाड़ लेते हैं कि वह हमारा रिपोर्टर या कर्मचारी नहीं था।
कमेटी अगेंस्ट असॉल्ट ऑन जर्नलिस्ट्स की एक रिपोर्ट बताती है कि यूपी में 2017 से लेकर 2022 तक राज्य में कम से कम 138 पत्रकारों पर हमले हुए, जिसमें 12 की हत्या हुई। 2017 में दो पत्रकार मारे गए, कानपुर के बिल्हौर में हिंदुस्तान अखबार के नवीन गुप्ता और गाजीपुर में दैनिक जागरण के प्रतिनिधि राजेश मिश्रा की गोली मारकर हत्या की गई। 2020 में कुल सात पत्रकार मारे गए- राकेश सिंह, सूरज पांडे, उदय पासवान, रतन सिंह, विक्रम जोशी, फराज असलम और शुभम मणि त्रिपाठी। सरकारी दमन भी कम नहीं रहे। 2019 में स्कूली बच्चों को खराब भोजन परोसे जाने के मामले में पुलिस आंचलिक पत्रकार पवन जायसवाल के पीछे तब तक पड़ी रही, जब तक भारतीय प्रेस काउंसिल ने इस मामले का संज्ञान नहीं लिया। योगी सरकार की ज्यादती यहीं नहीं रुकी. सरकार ने दैनिक जनसंदेश का विज्ञापन भी रोक दिया, जहां यह खबर प्रकाशित हुई थी। इस घटना के कुछ ही दिन बाद आजमगढ़ जनपद के आंचलिक पत्रकार संतोष जायसवाल को 7 सितंबर, 2019 को एक प्राथमिक विद्यालय में बच्चों से जबरन परिसर की सफाई कराए जाने का मामला उजागर करने पर गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।
असुरक्षित माहौल में काम कर रही या न्यूजरूम में महिला पत्रकार शारीरिक हमले, यौन उत्पीड़न, यौन हमले के जोखिम का सामना करती हैं। महिला पत्रकार न केवल अपने कवरेज को चुप कराने की कोशिश करने वालों से, बल्कि स्रोतों, सहकर्मियों और अन्य लोगों से भी मानसिक और शारिरीक हमलों की चपेट में आती हैं।
22 जून, 2014 में इंडिया टीवी की एंकर तनू शर्मा ने इंडिया टीवी के दफ्तर के सामने जहर खाकर जान देने की कोशिश की। तनु ने कहा कि इंडिया टीवी की एक वरिष्ठ सहयोगी ने उन्हें “राजनेताओं और कॉरपोरेट जगत के बड़े लोगों को मिलने” और “गलत काम करने को बार-बार कहा”।
अंतर्राष्ट्रीय महिला मीडिया फाउंडेशन (आईडब्ल्यूएमएफ) के साथ साझेदारी में और यूनेस्को के समर्थन से अंतर्राष्ट्रीय समाचार सुरक्षा संस्थान (आईएनएसआई) द्वारा शुरू किए गए लगभग 1,000 पत्रकारों के 2014 के वैश्विक सर्वेक्षण में पाया गया कि सर्वेक्षण में भाग लेने वाली लगभग दो-तिहाई महिलाओं ने कार्यस्थल में धमकी, भय या दुर्व्यवहार का अनुभव किया था।
एक और बड़ा मुद्दा उत्पीड़न है, जो ऑनलाइन और कार्यस्थल पर हो सकता है। महिलाओं द्वारा अनुभव किए जाने वाले उत्पीड़न की यौन प्रकृति अक्सर लिंग भेद में निहित होती है, जैसा कि बलात्कार की धमकियों और यौन रूप से स्पष्ट छेड़छाड़ की गई तस्वीरों और वीडियो के कई मामलों से स्पष्ट होता है, जिनका उपयोग महिला पत्रकारों को बदनाम करने और अपमानित करने के लिए किया गया है।
छत्तीसगढ़ में पत्रकारों ने काफी समय तक पत्रकार सुरक्षा कानून लाने की लड़ाई लड़ी। उसके बाद ‘छत्तीसगढ़ राज्य मीडिया कर्मी सुरक्षा अधिनियम 2023’ के नाम से जो विधेयक लाया गया वो भी पत्रकारों के साथ छलावा है। छत्तीसगढ़ के पत्रकारों ने छत्तीसगढ़ पीयूसीएल की मदद से जो ड्राफ्ट तैयार किया था उसके कोई भी प्रावधान इसमें नहीं लिये गये हैं। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा गठित जस्टिस आफताब आलम की कमेटी द्वारा प्रस्तुत ड्राफ्ट को भी इसमें पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है। ‘छत्तीसगढ़ राज्य मीडिया कर्मी सुरक्षा अधिनियम 2023’ जैसा कागजी विधेयक को भी सरकार लागू करने को तैयार नहीं है।
मजीठिया वेज बोर्ड को सही ढंग से आज तक लागू नहीं किया गया। सरकार स्वतंत्र पत्रकारिता की हिफाजत करने की जगह खुद डरी हुई है कि कहीं ये यू-ट्यूबर या स्ट्रिंगर जो पोल खोलते रहते हैं, वो किसी दिन राजसत्ता और सरकार के लिए चिंगारी का काम नहीं कर दे। इसमें वे पत्रकार शामिल हैं जो मुख्यधारा की मीडिया (गोदी मीडिया) से त्रस्त हैं। बहुत से पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक अपनी आवाज को दबाते हुए देख यू-ट्यूब और सोशल मीडिया का सहारा लेते हैं। बाद में बेरोजगारी से त्रस्त और लोगों की आवाज बनाने के लिए एक सही पत्रकारिता का रास्ता चुनते हैं। वह छोटे-छोटे लघु-पत्रिकाओं में लिखते हैं, यू-ट्यूब चैनल बनाते हैं, जिससे सरकार डरने लगी है और इस पर लगाम लगाने के लिए कानून लाने की बात करती है। वह डरती है कि कोई चिंगारी कहीं से भड़क सकती है और उनके शोषणकारी व्यवस्था को जलाकर खाक कर सकती है। इसी डर से सरकार हर शब्द से और उन हर लोगों से डरती है जो सच्चाई को बखान करते है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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