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पेंच परियोजना के विस्थापित आज भी मूलभूत सुविधाओं से हैं वंचित 

सेवक राम साहू कहते हैं, "विस्थापन के पहले हमारा जीवन खुशहाल था, लेकिन उसके बाद से परेशानी काफ़ी बढ़ गई है। अब खाने के लाले पड़े है, बच्चों का भविष्य कैसे देखें? सरकार ने न तो हमें यहां बसाया है, न ही रोज़गार का इंतज़ाम किया है, हमको कचरे के ढ़ेर की तरह उठा कर फेंक दिया है।"
madhya pradesh
केवलारी संभा गांव के कुछ विस्थापित किसान

मध्यप्रदेश के छिदवाड़ा ज़िले में 711गांव को सिंचाई उपलब्ध कराने के लिए पेंच परियोजना (माचागोरा बांध) की आधारशिला 1988 में रखी गई थी। इसमें ज़िले के 30 गांव की 5607 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहित की गयी। इस दौरान भू-अर्जन अधिकारियों द्वारा लोगों को मुआवज़े का भुगतान भी किया गया। लेकिन शासन द्वारा दिये गये मुआवज़े से कई गांव के लोग असंतुष्ट हैं। 2017 तक इस परियोजना का कार्य 90 प्रतिशत पूरा हो चुका है। मगर परियोजना में 2572 परिवारों के 9580 विस्थापित किये गये लोगों को सरकार बुनियादी सुविधाएं तक नहीं दे पायी। इनमें अधिकतर आदिवासी, हरिजन और पिछड़ा वर्ग के लोग शामिल है। इन विस्थापित और प्रभावित लोगों का हाल जानने के लिए हमने परियोजना के क्षेत्र का दौड़ा किया और लोगों से बात की।

लोगों ने अपनी समस्याओं को बताते हुए कहा कि पेंच परियोजना में जिस पुर्नवास नीति 2002 के तहत सरकार ने हमें विस्थापित किया था उसी पुर्नवास नीति 2002 का पालन हमारे विस्थापन में नहीं किया। इससे हमें अब तक मूलभूत सुविधाएं नहीं मिली।

वहीं एक नज़र जब हम पुर्नवास नीति 2002 पर डालते हैं, तब नीति के बिंदु बताते हैं कि, विस्थापित व्यक्ति को कुछ समय बाद यह अहसास न हो कि वह अपने जाने-पहचाने पर्यावरण से दूर हो गया है। नौकरी, नागरिक सुविधाएं, ज़मीन प्लॉट, मछली पालन, पानी, मकान का मुआवज़ा, बसाहट के लिए चारागाह, पुस्तकालय, जैसी विभिन्न सुविधाएं दी जाएं।

लेकिन विस्थापित गांव की ज़मीनी स्थिति देखने और लोगों से बात करने पर पता चला कि पेंच परियोजना विस्थापन में वाकई पुर्नवास नीति 2002 का पालन नहीं किया गया। इससे विस्थापित लोग बुनियादी सुविधाओं से तो महरूम हुए ही, साथ में उनके स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक आर्थिक न्याय, जैसे संविधानिक मूल्यों का भी हनन हुआ है।

जब हमने धनौरा गांव (आबादी क़रीब 1000 से अधिक) के विस्थापितों से बात की, तब शीला के साथ-साथ कई महिलाओं ने बताया कि माचागौरा डैम (पेंच परियोजना) में हमारी 20-25 एकड़ ज़मीन डूब गयी, जिसमें मुआवज़ा 3-4 लाख रुपये एकड़ दिया गया। इस मुआवज़े से हम लोग 10 लाख रुपये एकड़ में 2-3 एकड़ ही ज़मीन ख़रीद पाए हैं। कुछ ऐसे किसान हैं जिनको मिले मुआवज़े में घर ही बन पाए। वह ज़मीन का एक टुकड़ा भी नहीं ख़रीद पाए। वहीं यशवती वर्मा (दृष्टिबाधित) की शिकायत है कि घर बनाने के लिए हम लोगों को यहां पट्टे भी नहीं दिये गये। सोचने की बात है कि संविधान में जो आर्थिक न्याय बताया गया है, उसका पालन यहां क्यों नहीं किया गया?

माचागोरा गांव के विस्थापित लोग

आगे हम माचागोरा डेम की बाउंड्री के पास पहुंचे जहां हमारी बात श्याम वर्मा से हुई। वह बताते हैं कि धनौरा गांव में लाइट की बहुत समस्या हैं। बिजली तो पहुंची लेकिन लाईट नहीं जलाई गयी। कुछ लोेगों ने घर के अंदर स्वयं लाईट की व्यवस्था की है। डैम का पानी जो फ़िल्टर होकर आता है। उसे पीने से मलेरिया और सर्दी जुकाम जैसी कई बीमारियां होती है। यहां का मेन रोड पानी के अंदर ख़त्म होता है। इसके लिए कोई संकेत चिन्ह नहीं लगाये गये। ऐसे में दुर्घटना की संभावना बनी रहती है। डैम में पानी के भराव से यहां सांप अक्सर आते रहते है। यदि सांप किसी को काट ले तो उसके इलाज के लिए गांव में अस्पताल नहीं है। अस्पताल यहां से काफ़ी दूर है। यहां ग़ौर करने की बात यह है कि सरकार की नीतियों से क्या अवाम के जीवन जीने की स्वतंत्रता (संविधान के अनुच्छेद 21) का हनन नहीं होता?

फिर आगे, धनौरा गांव की शांतिबाई जैसी अन्य महिलाओं ने यह भी बताया कि यहां सरकार ने हमें रोज़गार का कोई साधन नहीं दिया। बचे-खुचे मुआवज़े से हम पेट भर रहे हैं। जिनका मुआवज़ा खत्म हो गया वह बेरोज़गार भटक रहे हैं।

कई ग्रामीणों का यह भी आरोप है कि डैम में डूबकर 25-30 लोगों की मौत हो चुकी है। इन लोगों में ऐसे लोग भी है जिन्होनें विस्थापन के बाद बेरोज़गारी जैसी कई समस्याओं से तंग आकर आत्महत्या कर ली है।

हमारी बात दयाराम से हुई जिनका कहना है कि हमारी ज़मीन (माचागोरा डैम) डूब में जाने के बाद मेरे बेटे मुकेश वर्मा को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा जिससे परिवार और बच्चों की शिक्षा का ख़र्च न चला पाने की वजह से उसने आत्महत्या कर ली। मुकेश की आत्महत्या का कौन ज़िम्मेदार है?

आगे जब हम पहाड़ी से उतरते हुए केवलारी संभा गांव पहुंचे तब हमारी मुलाक़ात रामकुमार वर्मा से हुई। उनका कहना है कि मेरी 2 एकड़ ज़मीन पेंच परियोजना में गयी थी जिसका मुआवज़ा हमें 6 लाख मिला जबकि ज़मीन की बाज़ार की क़ीमत 8 लाख रुपये एकड़ थी। कुआं, पाइप लाइन और पेड़ों का मुआवज़ा भी हमें नहीं दिया गया। इनकी हां में हां मिलाते हुए बुद्धिबाई भी बोल पड़ती हैं कि मेरे हज़ार पेड़ इस डैम के लिए काटे गये लेकिन इनका मुआवज़ा नहीं मिला।

केवलारी संभा गांव के कुछ डूब प्रभावित लोग

रामकुमार आगे कहते हैं कि हमारे गांव केवलारी में शमसान घाट भी नहीं बनाया गया। विस्थापन से पहले हमारे पशुओं को चरने के लिए 1.5 किलो मीटर जगह थी। लेकिन अब जल भराव से जगह ख़त्म हो गई। पशुओं को चराने का संकट हमारे सिर पर है। केवलारी गांव में चारों तरफ़ पानी भरा हुआ है। जिससे आने जाने में परेशानी होती है।

आगे महासंग्राम नाम के व्यक्ति अपना दर्द बयां करते हुए कहते हैं माचागोरा डैम को लेकर अधिकारियों ने हमसे बोला कुछ और किया कुछ। अब हम रोडछाप हो गए हैैं। जो मकान डूब में जा रहे थे, उन्हें भी डूब में नहीं लिया। जिससे हमारी घरों में बहुत सीड़ (गीलापन) है। ऐसे में हमें और बच्चोें को दूसरों के घरों में रहना पड़ता है। हमारी ज़मीन सरकार ने जब से ली है, तब से हमारी हालत भीख मांगने जैसी हो गयी है। महासंग्राम यह सवाल भी पूछते हैं कि क्या सरकार ने हमारे साथ यह न्याय किया है?

गांव के ही एक अन्य व्यक्ति राधेश्याम साहू बोलते है कि क़रीब 50 घर ऐसे है, जिनका मुआवज़ा नहीं दिया गया। ये घर बांध से सटे हुए हैं इसलिए घरों में बहुत सीड (गीलापन) बना रहता हैै जिससे दिवालें सीड़ कर गिर रही है। इस गीलेपन से इतने कीड़े-मकौड़े आते है कि रोटी खाना दुभर हो जाता है।

परसराम कहते हैं, यहां डैम में हम लोगों की ज़मीन डूब गयी है और घर सिर्फ़ बचे है, हम क्या करें? यह हमारी समस्या है। वहीं प्रकाश का कहना हैं कि हमें एक कुएं का मुआवज़ा नहीं दिया गया। 50 पेड़ोें में से हमें 6-7 पेड़ो का ही मुआवज़ा मिला।

केवलारी संभा गांव के सरपंच के घर जब हम पहुंचे, तब सरपंच के परिजन रामसींग ने दिखाया कि, कैसे डैम का पानी उनके घरों में घुसने लगा है। उनका कहना है कि कलेक्टर को इसकी शिकायत भी की है लेकिन कुछ भी नहीं हुआ।

केवलारी संभा से कुछ दूर चलने पर देवरी कलां (आबादी करीब 1000) गांव पहुंचे यहां रामकृष्ण समेत अन्य लोगों से उनकी समस्या पर चर्चा की। रामकृष्ण अपनी दशा बयां करते हुए कहते हैं

मेरे गांव के 15 किसानों और अन्य गांव के किसानों की 50 डिसमल से एक एकड़ तक भूमि पानी में डूबी है, लेकिन हमें उसका मुआवज़ा नहीं दिया गया। हम लोगों ने इसकी शिकायतें भी दर्ज करवाई लेकिन मसला हल नहीं हुआ।

दादुराम अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए बोलते हैं कि कई गांव ऐसे जहां खेत जाने के रास्ते भी पानी से डूबे हैं। ऐसे में गांव वालों को निकास की समस्या हो रही है। इसकी आपत्तियां भी हम लोगों ने दर्ज की लेकिन हल नहीं हुई। हमसे राय लिए बिना, हमें गुमराह करके, बिना मूल्यांकन के, सरकार ने मुआवज़ा दिया है। मुआवज़े में कुआं, पेड़, पाइप लाइन का विवरण नहीं दिया गया।

इसी गांव के पंकज कहते हैं माचागोरा डैम में हमें मछली पालन का भी रोज़गार नहीं दिया गया। एक अन्य व्यक्ति संतकुमार (बीए पास) का कहना हैं सरकार ने मछली पालन का ठेका शिवनी ठेकेदार को दिया है। जबकि हमारी दशा यह कि गांव से 50 किलो मीटर दूर रोज़गार है। जहां आने-जाने में दिहाड़ी का रुपया किराए में चला जाता है। हमारे गांव के लड़के इतने ज़्यादा बेरोज़गार हैं कि अब सरकार से सरकारी नौकरी नहीं मांग रहे। सरकार हमें प्राईवेट नौकरी ही दे दे तो हमारा घर चल जाए।

आगे नीरज भीलबंसी का कहना है यहां कोई काम नहीं तो लोग दूसरे शहरों में काम के लिए पलायन कर रहे हैं। इसी तरह धनौरा बारहबरियारी गांव के कोटवाल का कहना है कि हमारे गांव के 200 लोग बाहर पलायन कर गये है।

धनौरा बारहबरियारी (क़रीब 1200 आबादी) केे विस्थापित सेवक राम साहू अपना दर्द बयां करते हुए भावुक हो जाते हैं। वे कहते हैं, विस्थापन के पहले हमारा जीवन खुशहाल था, लेकिन उसके बाद तबाह हो गया है। खाने के लाले पड़े है, बच्चों का भविष्य कैसे देखें? सरकार ने न तो हमें यहां बसाया है, न ही रखा है, हमको कचरे के ढ़ेर की तरह उठा कर फेंक दिया है। अगर व्यवस्था की होती तो मकान, सड़क, स्कूल, बिजली, पानी, सब अच्छा होता।

गांव के ही सुंदर लाल डहेरिया (कोटवाल) का कहना है कि, हमसे कहा गया था ज़मीन के बदले ज़मीन मिलेगी, लेकिन गांव में किसी को नहीं दी गयी, ना किसी को घर बनवाकर दिये गये। इसका मतलब क्या ग्रामीणों को धोखा दिया गया?

सूरती प्रशाद भीलबंसी अपने हालात कुछ इस तरह बयां करते हुए कहते हैं, सरकार ने विस्थापन के पहले कहा था परिवार को नौकरी, मकान, सब सुविधाएं मुफ़्त देंगे लेकिन कुछ नहीं दिया हम लोगों की लड़कियों को ज़मीन के पट्टे भी नहीं दिए गये। गांव में जवान लड़के घूम रहे हैं उनकी शादी नहीं हो रही। कोई यह कहते हुए लड़की नहीं देता कि आपके पास ज़मीन नहीं है।

इसी गांव के निवासी बलराम कहते हैं, माचागौरा डैम (ढूब क्षेत्र) बनने के पहले धनौरा गांव से छिदवाड़ा 20 किलो मीटर पड़ता था। लेकिन अब घूमकर 40 किलो मीटर जाना पड़ता है। ऐसे ही पहले चौरई तहसील की दूरी 12 किलो मीटर थी। लेकिन अब 35 किलो मीटर घूमकर जाना पड़ता है।

ये सब समस्याएं सरकार को छोटी लग सकती है लेकिन बुनियादी सुविधाओं के अभाव में ज़िंदगी गुज़ारती आवाम को इन्हीं समस्याओं से रोज़ाना जुझना पड़ रहा है।

गांव धनौरा बारहबरियारी की सरपंच बबली नाहरमसराम से जब हमारी ग्रामीण व्यवस्थाओं को लेकर बात हुई, तब उन्होनें बताया कि गांव में रोज़गार, स्कूल, आगनवाड़ी चिकित्सा, रोड जैसी अन्य सुविधाएं नहीं है। हमने सरकार को इन सबको लेकर प्रस्ताव भेजा है लेकिन कोई जवाब नहीं आया।

सरपंच के बगल में खड़े शेख सफी अंसारी कहते हैं, गांव तीन तरफ़ से पानी से घिरा है और रास्ता एक ही है। सरकार ने कोई सुविधाएं नहीं दी है। जब डैम बन रहा था तब हमें मार-मार कर जबरन विस्थापित किया गया था।

माचागोरा गांव के प्रकाश साहू जैसे कई ग्रामीणों की सरकार से मांग है कि सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों को जैसा मुआवज़ा दिया जाए। उनके विस्थापितों को 65 लाख रुपये और नौकरी दी गई थी वही हमें भी दी जाए। मांचा डूब प्रभावितों की बुनियादी समस्याएं भी सरकार दूर नहीं कर पायी। कई लोगों के राशन कार्ड भी नहीं बनाये गये। इनमें से एक संभू दयाल भी हैं। उन्होंने बताया कि हम 2-3 बार राशन कार्ड का आवेदन भी जमा कर चुके हैं लेकिन सुनवाई नहीं हुई। शिवपाल साहू जैसे कई ग्रामीणों का कहना है कि हमारी ज़मीन पर माचागोरा डैम बनाया गया लेकिन डैम से हमें और हमारे मवेशियों को शुद्ध पानी जैसी अन्य सुविधाओं का कोई लाभ नहीं मिल रहा है।

माचागोरा डेम की बाउंड्री पर बैठे कुछ डूब प्रभावित किसान

रमेश डहरिया को इस बात की तकलीफ़ है कि उनकी किराना दुकान का आधा सामान डैम में डूब गया। वह कहते हैं कि मेरी किराना दुकान को डैम में 3 लाख 75 हज़ार रुपये देकर हटाया गया। दुकान इतनी क़ीमती थी की उसे मैं 20 लाख रुपए में भी नहीं बेच सकता था।

हज़ारों विस्थापित लोगों को मुआवज़े और बुनियादी सुविधाओं के संकट को लेकर किसान संघर्ष समिति की प्रदेश उपाध्यक्ष और एडवोकेट आराधना भार्गव ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका (सिविल अपील नंबर 10584-10585/2013) भी दायर की है जिसकी सुनवाई चल रही है।

वहीं, हमने जब पेंच परियोजना में विस्थापितों के प्रति बरघी बांध विस्थापित संघ के वरिष्ठ और जाने-माने कार्यकर्ता राजकुमार सिन्हा के विचार जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि, "...विकास के नाम पर किसी को जबरन विस्थापित करना उसके प्राकृतिक न्याय के ख़िलाफ़ है। ये उनके साथ ये धोखा है। पेंच परियोजना में बताया गया कि हम आपको विस्थापित करेंगे और आपकी सारी व्यवस्था करेंगे तो लोग सरकार पर विश्वास करते थे लेकिन उनके साथ धोखा हुआ है। विकास के नाम पर आप लोगों को उजाड़ देते हैं और कुछ व्यवस्था करते नहीं है। इस व्यवस्था की इच्छा शक्ति भी नहीं संपूर्ण समाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पुर्नवास करने की। ये तीनों होना चाहिए।यहां के लोगों ने ज़मीन के बदले ज़मीन की मांग की, लेकिन सरकार देती नहीं। सरदार सरोवर बांध में लोगों ने लड़कर (ज़मीन के बदले ज़मीन) हासिल किया। कुल मिलाकर ऐसी परियोजनाओं में उनके (विस्थापितों के) संसाधनों से उनको बेदख़ल करके तिल-तिल मरने को छोड़ दिया जाता हैं।"

आगे, जब हमने पेंच परियोजना के संबंध में छिंदवाड़ा की एसडीएम (सब डिविजनल मजिस्ट्रेट) प्रीति से बात की। तब उन्होंने कहा कि पेंच परियोेजना पानी, सिंचाई वग़ैरह के लिए लायी गयी। हमारे यह पूछने पर कि क्या पेंच परियोजना में पुुर्नवास नीति 2002 का पालन हुआ? तब उन्होंने ने कहा, हां बिल्कुल हुआ है। आगे हमारे पूछने पर कि विस्थापितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति जानने की क्या प्रशासन ने कोशिश की? तब इसके जवाब में एसडीएम कहती हैं कि प्रशासन का तो मुझे आइडिया नहीं है। लेकिन उनको (विस्थापितों) को समय-समय पर जो भी सुविधाएं चाहिए वो पूरी कर दी जाती हैं। फिर हमने जब यह पूछा कि पेंच परियोजना में विस्थापित गांव को क्या-क्या सुविधाएं दी गयी हैं? तब एसडीएम अपने जवाब में कहती हैं कि एक गांव में जो बेसिक सुविधाएं रहती है उसे उठाने से पहले, वो सारी सुविधाएं दी गई हैं जैसे, स्कूल, पंचायत भवन, चिकित्सालय, पशु चिकित्सालय, आंगनबाड़ी, खेल मैदान, नाली। रोज़गार को लेकर एसडीएम कहती हैं इसका रिकॉर्ड पंचायतों के पास होगा। इसकी वहां तैयारी होती है और क्वालिटी के हिसाब से जॉब दी जाती है।

रोज़गार के मुद्दे पर बारहबरियारी गांव की सरपंच बबली का साफ़ तौर पर कहना है कि गांव में रोज़गार की कोई व्यवस्था नहीं है, सब बेरोज़गार घूम रहे हैं। गांव में बुनियादी सुविधाएं भी नहीं दी गयी।

पेंज परियोजना के विस्थापितों के साथ भेदभावपूर्ण रवैया उनके मौलिक अधिकारों का हनन है। ऐसे में सरकार और प्रशासन की नैतिक ज़िम्मेदारी है कि उन्हें मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराए और उनके लिए रोज़गार की व्यवस्था कराई ताकि वे अपने बच्चों और परिवार का बेहतर तरीक़े से देखभाल कर सकें।

(सतीश भारतीय संविधान विकास संवाद परिषद में फेलो पत्रकार हैं)

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