Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

क्या मुसलमान भागवत के शक्तिहीन अस्तित्व के दृष्टिकोण से सहमत हैं?

ऑर्गनाइज़र और पंचजन्य को दिए गए एक साक्षात्कार में, आरएसएस प्रमुख ने कहा कि मुसलमानों को वर्चस्व की अपनी उपद्रवी बयानबाज़ी को छोड़ देना चाहिए।
mohan bhagwat
फ़ोटो साभार: PTI

पांच शब्दों में से- कौन, क्या, कहां, कब और क्यों- को पत्रकारिता का सार माना जाता है, हाल ही में मोहन भागवत के साक्षात्कार का आकलन करते समय, 'किस' की जांच करने की जरूरत  नहीं है। लेकिन अन्य चार शब्द जरूरी हैं, और इस क्रम में: कहाँ, क्या, क्यों और कब आता है।

इसलिए, पहले 'कौन' को लेते हैं, भागवत वे हैं, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख या सरसंघचालक हैं और औपचारिक रूप से देश के सबसे बड़े वैचारिक राजनीतिक समूह की अध्यक्षता करते हैं। नतीजतन, उनके कथनों पर ध्यान देने और उनका मूल्यांकन करना जरूरी है क्योंकि उनके इन कथनों से अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों प्रभाव पड़ते हैं।

कहां: भागवत ने संघ से जुड़े प्रकाशन ऑर्गनाइजर और पांचजन्य के संपादकों को इंटरव्यू दिया। इसलिए, यह कोई मीडिया पहल नहीं थी बल्कि अनिवार्य रूप से शून्य जोखिम के साथ एक सुविचारित प्रचार का अभ्यास था।

मीडिया जांच के बारे में बात करे तो, आरएसएस प्रमुख को बेनकाब करने का खतरा न के बराबर था क्योंकि दोनों संपादक उन्ही की वैचारिक बिरादरी का हिस्सा हैं और वे अजीबोगरीब या कुछ पूरक सवाल पूछ कर भगवा भाईचारे के भीतर अपने भविष्य को जोखिम में क्यों डालना चाहेंगे।

इसके विपरीत, सवाल जो पुछे गए वे छोटे लेकिन भाषाई निर्माण के थे जो एक गहन सवाल की भावना को व्यक्त करते थे लेकिन बहुत कम प्रभावी थे और खुद विश्वासपात्रों को संदेश देने का अवसर प्रदान देते थे, साथ ही साथ उन लोगों को भ्रमित करते, जो कम समझते हैं लेकिन ये लोग 'रसदार' चुनिंदा कथनों को चुनते हैं और जिन्हे साक्षात्कार के बाद मुख्यधारा के मीडिया ने समाचारों में तरजीह दी है। 

फिर भी इस साक्षात्कार ने, एक उद्देश्य की पूर्ति की- जिसने यह प्रदर्शित किया कि संघ परिवार अब कोई छायादार संगठन या राजनीतिक उद्यम नहीं है। इस बातचीत के साथ, भागवत ने संघ परिवार के विभिन्न पदाधिकारियों की मीडिया वार्ता को यह कहकर 'सामान्य' कर दिया कि "हालांकि हम कई मुद्दों पर मीडिया में नहीं जाना चाहते हैं, लेकिन अब हम  ऐसा करने से बच भी नहीं सकते हैं"। फिर, उन्होंने एक शर्त जोड़ी: "...कि इसके माध्यम से हमें प्रचार की  लालसा नहीं रखनी चाहिए।"

भागवत के 'जवाबों' को अच्छी तरह से संकलित कर, एक बयान, लेख या निबंध के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता था, लेकिन इसका उतना प्रभाव नहीं होता, और इस तरह यहां, 'कहाँ' का महत्व निहित है - यह एक साक्षात्कार भी है और है भी नहीं!

क्या: भागवत ने जो कुछ भी कहा, उनमें से कई बातो को विभिन्न लोगों द्वारा अतीत में कहा जा चुका है, जिसमें हिंदुत्व अभियान के सबसे महत्वपूर्ण विचारक, विशेष रूप से वीडी सावरकर और एमएस गोलवलकर शामिल हैं, और दोनों में से सावरकर कभी आरएसएस का हिस्सा नहीं थे। वास्तव में, सक्रिय राजनीति तथा यात्रा करने और सामान्य गतिविधि को फिर से शुरू करने की अनुमति देने के बाद उन्होंने संगठन का उपहास उड़ाया था।

लेकिन पिछले कुछ दशकों में, आरएसएस-बीजेपी-परिवार की तिकड़ी ने सावरकर को औपचारिक रूप से अपने खुद देवता के रूप में शामिल करने के सचेत प्रयास किए हैं। भागवत ने जो कुछ कहा वह सावरकर के विचार थे, हालांकि उन्हें अलग तरीके से व्यक्त किया गया था।

भागवत ने निम्नलिखित मुद्दों पर टिप्पणी की, हालांकि ऐसा उन्होने क्रम में नहीं किया और वास्तव में, 'साक्षात्कार' के विभिन्न बिंदुओं से होते हुए वे एक ही विषय पर बार बार लौट जाते थे: संघ और राजनीति के बारे में इसका दृष्टिकोण; इतिहास और विदेशी आक्रमणकारी; हिंदू समाज; हिंदू राष्ट्र (और पहचान); शिवाजी और (ग्यूसेप) गैरीबाल्डी; एलजीबीटीक्यू समुदाय; महिला और संघ; अर्थव्यवस्था; जनसंख्या असंतुलन (एसआईसी); हिंदू और आक्रामकता; विभाजन—ऐसा क्यों हुआ; मुसलमान—सुरक्षित रहने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए; और भारत में हिंदू (स्थान और महत्व)।

हमें बार-बार यह बताया गया है कि, आरएसएस एक "सांस्कृतिक संगठन" है। भागवत ने इस बार इस अस्पष्टता को दूर कर दिया: हालांकि "संघ ने जानबूझकर खुद को दिन-प्रतिदिन की राजनीति से दूर रखा है," "राजनीति के अन्य आयाम हैं जो हमारी राष्ट्रीय नीतियों, राष्ट्रीय हित और हिंदू हित को प्रभावित करते हैं। संघ को हमेशा इस बात की चिंता रही है कि समग्र राजनीतिक दिशा इन मुद्दों के अनुकूल है या नहीं...”।

इस प्रकार आरएसएस एक सांस्कृतिक संगठन नहीं है, बल्कि अपने राजनीतिक हितों के बारे में चयनात्मक है। यदि कोई इसे राजनीति से 'प्रेरित' होने के मामले में वाद-विवाद करता है, तो  भागवत की इस पुनरावृत्ति को पढ़ना बुद्धिमानी होगी: "हम दिन-प्रतिदिन की राजनीति से चिंतित नहीं हैं, लेकिन हम निश्चित रूप से राष्ट्र नीति-राष्ट्रीय नीति से जुड़े हुए हैं।"

अब, हम इतिहास और विदेशी आक्रमणकारियों की ओर बढ़ते हैं। भागवत अपने दावे में स्पष्ट हैं कि "हिंदू समाज 1,000 से अधिक वर्षों से युद्ध में शामिल रहा रहा है - यह लड़ाई विदेशी आक्रमणों, विदेशी प्रभावों और विदेशी साजिशों के खिलाफ चल रही है"। जो स्पष्ट रूप से यह सुझाव देता है कि दशकों से संघ परिवार के अभियान के कारण, "हिंदू समाज जाग गया है" और इसलिए "जो युद्ध कर रहे हैं उनका आक्रामक होना स्वाभाविक है"।

यदि दुश्मन की पहचान के बारे में कोई संदेह था, तो भागवत उसे स्पष्ट करते हैं और कहते हैं कि: “यह युद्ध बाहर के दुश्मन के खिलाफ नहीं बल्कि भीतर के दुश्मन के खिलाफ है। इसलिए, यह हिंदू समाज, हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति की रक्षा का युद्ध है। क्या यह कहने की जरूरत नहीं है कि यह जंग इस्लाम और इस धर्म को मानने वालों के खिलाफ है?

भागवत की तरह शब्दबहुल होने की कोई जरूरत नहीं है और क्योंकि वह एक ही बिंदु को अलग-अलग तरीकों से कहते हैं, और अपने पसंदीदा विषयों में से किसी एक पर कभी भी जा सकते हैं, जैसा कि जनसंख्या के बारे में कहा: जनसंख्या 'असंतुलन': "जब भी, जहां भी (जनसंख्या) असंतुलन हुआ है, वहाँ देश का बंटवारा हो गया है। यह वैश्विक चलन रहा है और यह लोगों और सभ्यताओं की आक्रामक प्रकृति के कारण हुआ है।”

हालाँकि उन्होंने पहले "आक्रामकता" को सही ठहराया और कहा कि जनसंख्या 'असंतुलन' के संदर्भ में यह (हिंदुओं के बीच) समझ में आता है, भागवत ने इसे एक प्रमुख तर्क के रूप में पेश करने के लिए पर्याप्त आपत्तिजनक पाया।

सरसंघचालक ने यह भी कहा कि ये 'समस्याएं' केवल जन्म दर के सवाल के बारे में नहीं हैं। बल्कि उनके मुताबिक, धर्मांतरण और अवैध अप्रवास असंतुलन के मुख्य कारण हैं। इसे रोकने से संतुलन बहाल होता है। हमने यह भी देखा है। इसलिए, जनसंख्या नीति को इस संतुलन को सुनिश्चित करना चाहिए।" इसके बाद कोई यह न कहे कि आरएसएस ने नीति बनाने पर कोई बात नहीं की थी।  

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में आरएसएस के तीन अन्य पसंदीदा विषयों पर चलते हैं: हिंदू राष्ट्र (और पहचान); विभाजन-ऐसा क्यों हुआ और भारत में हिन्दुओं का (स्थान और महत्व)। चलिए बंटवारे का मुद्दा उठाते हैं।

इस पर, भागवत स्पष्ट है और कहते हैं कि "दर्ज़ किए गए इतिहास के शुरुआती बिंदु से, भारत अखंड और अविभाजित रहा है", और फिर वह स्वचालित रूप से (वफादार) पाठकों के बीच एक आलंकारिक प्रश्न पूछकर उत्तर का संकेत देते हैं: "इस्लाम का विनाशकारी आक्रमण सदियों के बाद समाप्त हो गया था। फिर बाद में अचानक देश का बंटवारा कैसे हो गया?”

आरएसएस प्रमुख के पास इस सवाल के लिए एक ही पंक्ति तैयार है जिसका कोई एक रेखीय उत्तर नहीं है: "मुझे केवल एक ही कारण दिखाई देता है: हिंदू भाव को जब-जब भूले, आई विपदा महान, भाई टूटे ... धरती खोई ... मिटे धर्म संस्थान।

भागवत उस सभ्यतागत अहंकार को प्रकट करते हैं, जो संघ परिवार को प्रेरित करता है: “हिंदू भाव इस्लामी पूजा पद्धति में कोई बाधा नहीं पैदा करता है। हिन्दू हमारी पहचान है, हमारी राष्ट्रीयता है, हमारी सभ्यता की विशेषता है-एक ऐसा गुण जो सबको अपना मानता है; जो सबको साथ लेकर चलता है।"

संभवतः, इस स्तर पर सामाजिक शांति के लिए क्या किया जाना चाहिए, भागवत ने इस पर  स्पष्ट विचार दिया कि मुसलमानों को सुरक्षित रहने के लिए क्या करना चाहिए। भागवत वास्तव में यह कहते हुए शुरू होते हैं कि "आज भारत में रहने वाले मुसलमानों को कोई नुकसान नहीं हो रहा है। यदि वे अपने विश्वास पर टिके रहना चाहते हैं, तो वे ऐसा कर सकते हैं। यदि वे अपने पूर्वजों की आस्था में लौटना चाहते हैं तो वे ऐसा भी कर सकते हैं। यह पूरी तरह से उनकी पसंद है”।

हालाँकि, “मुसलमानों को वर्चस्व की अपनी उपद्रवी बयानबाजी छोड़ देनी चाहिए। हम एक महान जाति के हैं; हमने एक बार इस भूमि पर शासन किया था और इस पर फिर से शासन करेंगे; सिर्फ हमारा रास्ता सही है, बाकी सब गलत हैं; हम अलग हैं, इसलिए हम ऐसे ही रहेंगे; हम एक साथ नहीं रह सकते - उन्हें इस कथा को त्याग देना चाहिए"।

इसका मतलब है कि, मुसलमान स्पष्ट रूप से केवल 'जीने' की उम्मीद कर सकते हैं और सत्ता संरचना का हिस्सा होने की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

यहां एक ऐसा सवाल उठाना उचित होगा जो कभी भी गैर-साक्षात्कार में नहीं रखा गया था: समकालीन भारत में कितने मुसलमान ऐसा सोचते हैं, और इस धारणा का प्रमाण क्या है?

'क्यों' की ओर बढ़ते हुए, जिसमें भागवत की व्याख्या में एकमात्र नए तत्व की जांच मुख्य रूप से जरूरी है: वह है एलजीबीटीक्यू के बारे में उनका दृष्टिकोण। आरएसएस नेता ने हाल के वर्षों में, सामने आए इस मुद्दे पर संघ परिवार के विरोधियों: "तथाकथित नव-वामपंथी" पर दोष मढ़ना शुरू किया था।

हालाँकि, समुदाय के अस्तित्व को नकारने और इसे "प्रकृति के साथ तालमेल नहीं रखने" के रूप में करार देने और यह कहना कि "परंपरागत रूप से भी, भारतीय समाज ऐसे संबंधों को स्वीकार नहीं करता है," उन्होंने जोर देकर कहा कि: "ये नए मुद्दे नहीं हैं; वे हमेशा से रहे हैं। इन लोगों को जीने का अपरिहार्य अधिकार भी है। .... हमारे पास एक ट्रांसजेंडर समुदाय है। हमने इसे कभी समस्या के रूप में नहीं देखा। उनका एक संप्रदाय है और उनके अपने देवता हैं। उनका अपना महामंडलेश्वर भी है। कुंभ के दौरान, उन्हें एक विशेष स्थान दिया जाता है।

अब 'क्यों' पर बात करने से पहले, यह पूछने की जरूरत है कि क्या इस समुदाय में सभी हिंदू हैं जिनका अपना संप्रदाय, देवता और महामंडलेश्वर हैं?

विचार में इस अचानक उलटफेर के पीछे केवल एक आबादी का आधुनिक होना और दिन-ब-दिन युवा होना जरूरी नहीं है। इसके बजाय लगता है उन्हे यह अहसास हो गया है कि, जैसे-जैसे भारतीय परिवार इस समुदाय के लिए अपने दरवाज़े खोल रहे हैं और अपनो का बहिष्कार करना बंद कर रहे हैं, इसलिए यह समुदाय भी एक संभावित राजनीतिक समूह बन जाता है जिसका समर्थन स्वागत योग्य होगा।

आखिकार, अंतिम, लेकिन महत्वपूर्ण शब्द 'कब’ आता है। 2023 कम से कम नौ राज्यों और संभवतः 10वें (जम्मू और कश्मीर में) विधानसभा चुनावों होने का वर्ष है। और अगले साल लोकसभा चुनाव भी हैं। क्या भागवत ने यह नहीं कहा कि आरएसएस राष्ट्रीय नीतियों से सरोकार रखता है?

मध्यावधि भविष्य में एक और महत्वपूर्ण कार्यक्रम 2025 में आरएसएस की शताब्दी है, जो लगभग 1950 में भारत के गणतंत्र बनने की 75वीं वर्षगांठ समारोह के साथ मेल खाएगी।

क्या आरएसएस के लिए यह बेहतर होगा कि शताब्दी समारोह के दौरान दफ्तर में उनकी 'अपनी' सरकार हो या इसके बजाय वे एक विरोधी सरकार देखना पसंद करेंगे? जाहिर है, पहला वाला सही है।

कोई गलती न हो। आरएसएस अब किसी भी चुनाव के दौरान भाजपा के साथ काट वाले  उद्देश्यों पर काम नहीं करती है। हो सकता है कि पिछले साढ़े आठ वर्षों में प्रोटोकॉल सूची में प्राथमिकता के क्रम में प्रधानमंत्री से संघ हार गया हो, लेकिन आरएसएस को अपना लिया गया है और नए संघ परिवार नियम के अनुसार इसे लाभ है। और, भागवत आरएसएस के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं।

लेखक एनसीआर स्थित लेखक और पत्रकार हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक 'द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकंफिगर इंडिया' है। उनकी अन्य पुस्तकों में 'द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट' और 'नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स' शामिल हैं। उन्हे @NilanjanUdwin ट्वीट हैंडल पर संपर्क किया जा सकता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Do Muslims Agree With Bhagwat’s View of Powerless Existence?

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest