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नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति की जगह प्रधानमंत्री से करवाना संविधान के ख़िलाफ़ है

उद्घाटन के लिए 28 मई की तारीख़ को चुनना, जो सावरकर की जयंती है, संसद जैसी  संस्था के अपमान से कम नहीं है।
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फ़ोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स

28 मई 2023, विनायक दामोदर सावरकर की 140वीं जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी से भारतीय संसद के नए भवन का उद्घाटन कराने का केंद्र सरकार का निर्णय दो कारणों से निंदनीय है।

पहला, भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के बजाय इसका उदघाटन मोदी करेंगे। यह ‘निर्णय’ इसलिए भी लिया गया लगता है कि इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं और यदि भाजपा राजस्थान में जीत जाती है तो लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला रजस्थान के मुख्यमंत्री बनने का दावा पेश कर सकते हैं, इसलिए इस 'निर्णय' पर विपक्ष का सवाल उठाना बिल्कुल जायज है।

कई अन्य नेताओं/लोगों के अलावा, जनता दल के सांसद मनोज झा ने एक ट्वीट में पूछा कि क्या राष्ट्रपति मुर्मू से नए संसद भवन के उद्घाटन का अनुरोध करना अधिक उचित न होता।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी और 'अयोग्य' लोकसभा सांसद ने भी कहा है कि नए भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि राष्ट्रपति को करना चाहिए। 

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी माइक्रो-ब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल यह बताने के लिए किया कि मोदी विधायिका के नहीं बल्कि "कार्यपालिका के प्रमुख हैं।"

कांग्रेस सांसद और संचार प्रमुख, जयराम रमेश और तृणमूल कांग्रेस सांसद सुखेंदु शेखर रे ने भी इस मुद्दे पर ट्विटर के जरिए बात रखी है।

सुखेंदु शेखर रे ने अपनी टिप्पणी में कहा कि स्वतंत्र भारत के 75 वें वर्ष में, यदि नई संसद भवन का उद्घाटन 26 नवंबर को किया जाता, यह वह दिन है जब 1949 में संविधान को अपनाया गया था तो बेहतर होता, रमेश ने कहा कि सरकार का निर्णय हमारे सभी संस्थापकों का "पूर्ण अपमान" है। यह गांधी, नेहरू, पटेल, बोस, वगैरह को पूरी तरह से नकारना है। संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर का घोर खंडन या परित्याग है।”

दिसंबर 2020 में, 5 अगस्त (अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की वर्षगांठ पर) को, अयोध्या में राम मंदिर के लिए भूमि पूजन अनुष्ठान-सार्वजनिक-समारोह के महीनों बाद, मोदी ने नए संसद भवन की नींव रखी थी। यह कदम राष्ट्रपति की प्रतिष्ठा को कम करने के अलावा धर्म और राज्य को अलग करने वाले उस विचार को मिटाने का एक ज़बरदस्त प्रयास था।

यह दूसरी बार था जब केंद्र सरकार एक प्रतीकात्मक या बेहतर कदम उठाने से चूक गई थी। यदि तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद को नई संसद की नींव रखने के लिए कहा जाता तो यह एक बड़े दिल वाला फैसला होता।

इस आयोजन में सार्वभौमिक रूप से अनुसूचित जाति के व्यक्ति के सामने किसी ब्राह्मण पुजारी द्वारा आयोजित हिंदू अनुष्ठानों को करते हुए दिखाया जाता। घटना का प्रभाव नाटकीय होता और प्रचलित जाति व्यवस्था को एक झटका भी होता।

इसी तरह, एक आदिवासी, जो अब राष्ट्रपति है, को उदघाटन की अनुमति देना एक उचित निर्णय होता क्योंकि इसका अत्यधिक प्रतीकात्मक मूल्य होता – क्योंकि जनवरी 1927 में ब्रिटिश राजघराने के एक प्रतिनिधि, वायसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन ने संसद का उद्घाटन किया था। बिल्डिंग का उदघाटन भारत के सबसे वंचित समुदायों में से किसी एक व्यक्ति ने किया होता तो इस पर भारतीयों को गर्व हो सकता था।

यह केवल सांकेतिकवाद होता, लेकिन ऐसे मौके आते हैं जब इस तरह के कदम सबसे शक्तिशाली लोगों की लालसा को बढ़ावा देने से ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं ताकि उनका नाम पत्थर पर उकेरा जा सके।

इस मुद्दे पर विपक्षी नेताओं ने चौतरफा आलोचना की है, लेकिन दिसंबर 2020 में अधिकांश ने चुप्पी साध ली थी। हालांकि इनमें से अधिकांश समारोह से दूर रहे, और कोविड-19 महामारी और अनावश्यक खर्च स बचाने का हवाला दिया था। 

सीताराम येचुरी, सीपीआईएम के महासचिव और पूर्व वित्तमंत्री पी॰ चिदंबरम जैसे कुछ लोगों ने उस समय समारोह की आलोचना की थी क्योंकि भूमि पूजन राष्ट्रपति के बजाय प्रधानमंत्री ने किया था। 

मोदी का नई संसद भवन का उद्घाटन करना और पहले धार्मिक (हिंदू) अनुष्ठान करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के खिलाफ जाता है, जो कहता है कि: "यूनियन/संघ के लिए एक संसद होगी जिसमें राष्ट्रपति और दो सदन शामिल होंगे। .."

यह अनुच्छेद उनमें से था जिस पर 3 जनवरी, 1949 को संविधान सभा ने "बिना संशोधनों के" बहस की थी और पारित किया था। अर्थशास्त्री और अधिवक्ता के.टी. शाह, जिन्होंने बाद में भारत के पहले राष्ट्रपति चुनाव में राजेंद्र प्रसाद के खिलाफ चुनाव लड़ा था, ने अनुछेद से "राष्ट्रपति शब्द को हटाने" के लिए एक संशोधन का मसौदा पेश किया था। 

उनका तर्क था कि राष्ट्रपति को संसद का वास्तविक प्रमुख बनाना "ब्रिटिश प्रणाली की अनावश्यक नकल" का एक उदाहरण है। उन्होंने कहा था: "राष्ट्रपति केवल राष्ट्र का एक सजावटी मुखड़ा है और उसे विधायिका का अभिन्न अंग नहीं होना चाहिए।"

शाह के दृष्टिकोण का अधिकांश सदस्यों ने विरोध किया था। संविधान सभा ने अंततः अनुच्छेद 79 को अपनाया, और स्वीकार किया कि "भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को प्रमुखता है – और वह राष्ट्र के कार्यकारी प्रमुख हैं।" नतीजतन, "राष्ट्रपति को विधायिका में शामिल करना महत्वपूर्ण था।"

यहां तक कि एमएन कौल और एसएल शकधर ने अपनी व्यापक रूप से सम्मानित और चर्चित पुस्तक, प्रैक्टिस एंड प्रोसीजर ऑफ पार्लियामेंट, जिसे संसदीय प्रक्रियाओं पर 'अंतिम शब्द' माना जाता है, में लिखा है, "एक तरफ, राष्ट्रपति कार्यपालिका का प्रमुख होता है, और दूसरी तरफ राष्ट्रपति अन्य, वह संसद का एक घटक हिस्सा है।"

यह महत्वहीन नहीं है कि प्रधानमंत्री के कार्यालय का संसद के कामकाज और प्रबंधन में कोई काम नहीं है। प्रधानमंत्री के पास मंत्रिपरिषद के प्रमुख या सदन के नेता के रूप में व्यक्तिगत रूप से संसद में कोई पोजीशन नहीं है।

मोदी ने निश्चित रूप से लगभग सभी शिलान्यास समारोहों और उद्घाटन पर लगभग एकाधिकार जमा लिया है, ताकि अधिकतम पट्टिकाओं में एक रिकॉर्ड स्थापित किया जा सके, जिस पर उनका नाम अंकित हो।

फ्रांस के सामाजिक टीकाकार और राजनीतिक विचारक, बैरोन डी मॉन्टेस्क्यू का, 1748 में द स्पिरिट ऑफ द लॉज़ में शक्तियों के पृथक्करण पर दिया गया असंदिग्ध बयान, इस मोड़ पर उपयुक्त लगता है:

"जब विधायी और कार्यकारी शक्तियां एक ही व्यक्ति में समा जाए, या मजिस्ट्रेटों के एक ही निकाय में एकजुट हो जाए, तो कोई आज़ादी नहीं रहेगी ... यदि निर्णय लेने की शक्तियों को विधायी और कार्यकारी से अलग नहीं किया जाता है तो कोई आज़ादी नहीं होगी... अगर वही आदमी या वही निकाय ... उन तीन शक्तियों का प्रयोग करे तो हर चीज का अंत हो जाएगा।"

28 मई को नए संसद भवन के उद्घाटन का दूसरा कारण सिर्फ इसलिए नहीं है कि यह सावरकर की जयंती है, बल्कि 1964 में उस दिन की भी वर्षगांठ है जब जवाहरलाल नेहरू का अंतिम संस्कार हुआ था।

मोदी ने पहली बार 26 मई, 2014 को पदभार ग्रहण किया था। इसके एक दिन बाद, नेहरू की पुण्यतिथि थी, तब तक उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में शांति वन की प्रथागत की यात्रा नहीं की थी।

न केवल सावरकर को नेहरू के ऊपर वरीयता देना, बल्कि नई संसद भवन के साथ उनकी स्मृति को अमिट रूप से जोड़ना संवैधानिक और संसदीय रूप से निंदनीय है।

इसके कई कारण हैं, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि देश के बारे में उनका दृष्टिकोण राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं के साथ पूरी तरह से भिन्न था। हिंसा के इस्तेमाल करने के मामले में  प्रतिबद्ध सावरकर का इतिहास के बारे में विकृत दृष्टिकोण था।

उनका विचार था कि राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तभी एक शक्तिशाली शक्ति बन पाएगा जब हिंदू महासभा संसद पर हावी हो जाएगी और तब, जब भारत के बहुसंख्यक समुदाय का शासन पूरे देश में होगा। 

1937 में रत्नागिरी जिले में नज़रबंदी से रिहा होने और सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी पर से हटे सभी प्रतिबंधों के बाद भी, स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लिया और उल्टे सावरकर ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सैनिकों में भर्ती होने की सक्रिय रूप से वकालत की थी।

वह उपनिवेशवादियों को विरोधी नहीं मानते थे जिनकी गुलामी से भारत को आज़ाद होना था। इसके बजाय, उनके दिमाग में हिंदुओं के 'दुश्मन' मुसलमान थे और उनके सपनों के हिंदूराष्ट्र को, भारत को लूटने वाले 'आक्रमणकारियों' के वंशजों के नियंत्रण और प्रभाव से बचाना था।

उन पर महात्मा गांधी की हत्या की साजिश में शामिल होने का आरोप लगाया गया था। हालांकि उन्हें ट्रायल कोर्ट ने बरी कर दिया था, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उन्होंने अकेले हत्यारे - नाथूराम गोडसे और उनके सहयोगी नारायण आप्टे को प्रेरित किया था, गांधी जिन्हें नवंबर 1949 में भी मार दिया गया था।

उनकी 'जीवन से बड़ी' वर्तमान छवि जिसे वर्तमान हुकूमत और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली पिछली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के प्रयासों के कारण बल मिला, 1966 में सावरकर की मृत्यु पर बहुत कम ध्यान दिया गया था।

एक व्यक्ति जिसने हिंदू राष्ट्रवादी विचार को संहिताबद्ध किया, सावरकर को एक विभाजनकारी सिद्धांतकार और एक ऐसे व्यक्ति के रूप में माना गया, जिसके हिंदू राष्ट्र के विचार की अवधारणा ने भारत को अंतिम विभाजन की ओर धकेल दिया था। 

जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने अपने जीवन का अंतिम वक़्त व्यावहारिक रूप से गुमनामी में बिताया और सार्वजनिक जीवन पर उनका कोई प्रभाव नहीं था। 

भारतीय जनसंघ, जो हिंदू राष्ट्रवादी संकल्प के साथ दृढ़ता से आगे बहड़ रहा था, वह भी औपचारिक रूप से उस व्यक्ति के साथ नहीं जुड़ा, जो भगवा का वैचारिक स्रोत था – और जिसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठन को प्रेरित किया था।

1960 के दशक के अंत में कई घटनाओं के बाद जीवन लाल कपूर जांच आयोग की रिपोर्ट जमा की गई थी, जिसमें कहा गया था:

"तथ्यों (आयोग द्वारा खोजे गए या स्थापित) के मुताबिक, सावरकर और उनके समूह, हत्या की साजिश के अलावा, हर विचार में विनाशकारी थे।"

इस तरह की निंदनीय रिपोर्ट के बावजूद, हिंदू दक्षिणपंथी ने सफलतापूर्वक पैरवी की और सावरकर को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में उभारने की प्रक्रिया शुरू की। हिंसक राष्ट्रवाद में उनकी पूर्व-अंडमान की भागीदारी को दिखाया गया और उन्हे वीर के उपनाम के ज़रिए लोकप्रिय बनाया गया।

यहां तक कि, इंदिरा गांधी की सरकार ने उन्हें सम्मानित करने के लिए एक डाक टिकट जारी किया था और 1980 में सत्ता में लौटने के बाद, फिल्म डिवीजन ने सावरकर पर एक वृत्तचित्र फिल्म भी बनाई थी।

इसके बावजूद, सावरकर अभी भी भारतीय राजनीतिक विमर्श में एक परिधीय व्यक्ति बने हुए हैं। जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब उनका रुतबा निश्चित रूप से बढ़ा था।

उनकी सरकार ने पहले सावरकर को मरणोपरांत भारत रत्न देने का प्रयास किया था, लेकिन  राष्ट्रपति के.आर. नारायणन के फ़ाइल पर हस्ताक्षर न करने से यह विफल हो गया, तो केंद्र ने संसद के सेंट्रल हॉल में सावरकर का चित्र लगवाया था।

हालाँकि, उद्घाटन का लगभग पूरे विपक्ष ने बहिष्कार किया था और 28 मई को होने वाले  वार्षिक कार्यक्रम पर किसी का ध्यान नहीं गया और न कोई शामिल हुआ था। मोदी के पद संभालने के साथ ही यह बदलना शुरू हो गया - 2014 में उन्होंने इस दिन सावरकर को पुष्पांजलि अर्पित करने के लिए एक नाटकीय उपस्थिति दर्ज की।

कुछ दिन पहले, जिस दिन उन्हें औपचारिक रूप से भाजपा संसदीय दल का नेता चुना गया, उन्होंने घोषणा की थी कि वे संसद को "लोकतंत्र का मंदिर" मानते हैं।

पिछले नौ वर्षों में, इस मंदिर की पवित्रता को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ नहीं किया गया है। न केवल संसद की संस्था को खोखला कर दिया गया है, बल्कि कार्यपालिका ने विधायिका की स्वायत्तता और खास पहचान का तेजी से अतिक्रमण किया है।

यह चौंकाने वाली बात थी कि मोदी ने भूमि पूजन किया और उस पर नई संसद के उद्घाटन के लिए 28 मई को चुनना संसद जैसी संस्था के अपमान से कम नहीं है।

नीलांजन मुखोपाध्याय, एनसीआर में रहने वाले एक लेखक और पत्रकार हैं, उनकी नवीनतम पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकंफिगर इंडिया है। उनकी अन्य पुस्तकों में द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स शामिल हैं। उनके ट्वीट @NilanjanUdwin पर देखे जा सकते है। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रुप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

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