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ईंधन की क़ीमतों में बढ़ोतरी से ग़रीबों पर बोझ न डालें, अमीरों पर लगाएं टैक्स

केंद्र सरकार ग़रीबों पर टैक्स लगाकर अमीरों से वसूले जाने वाले टैक्स में कटौती कर रही है।
petrol
Image courtesy : Reuters

पिछले दो सप्ताह में सरकार पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में तेरह बार वृद्धि कर चुकी है। मंगलवार को मुंबई में एक लीटर पेट्रोल की कीमत 119.60 और दिल्ली में 104.60 रुपए पार कर गई है और चित्तूर में डीजल की कीमत 106.80 पैसे प्रति लीटर पार हो गई है। ईंधन की बढ़ती कीमतों का अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों जैसे कि परिवहन खर्च और लागत पर व्यापक प्रभाव पड़ रहा है। ईंधन की बढ़ती कीमतों के परिणामस्वरूप मुद्रास्फीति खतरनाक गति से बढ़ रही है। परिणामस्वरूप टैक्स का बोझ श्रमिकों और मध्यम वर्ग पर पड़ रहा है। फिर भी, अति-समृद्ध वर्ग को टैक्स छूट का तोहफा दिया जा रहा है।

जैसा कि अनुमान था, केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कीमतों में वृद्धि के लिए पिछली सरकारों द्वारा जारी किए गए तेल बांडों को दोषी ठहराया है। कुछ महीने पहले, केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने दावा किया था कि राज्यों द्वारा लगाए गए करों के कारण ईंधन की कीमतें अधिक हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि ईंधन पर एकत्र किए गए करों का इस्तेमाल भारत के एलपीजी [कुकिंग गैस] सब्सिडी कार्यक्रम को निधि देने के लिए किया जा रहा है। पिछले साल, पूर्व पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने भी दावा किया था कि ईंधन पर टैक्स से भारत के टीकाकरण कार्यक्रम और अन्य कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के लिए किया जा रहा है। 

इन दावों के पीछे की सच्चाई को उजागर करना बहुत ही जरूरी है खासकर उनके लिए जो ईंधन की कीमतों में वृद्धि को सही ठहराने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए, वित्तमंत्री के दावों के विपरीत, पिछले आठ वर्षों में, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने अप्रैल 2021 तक तेल बॉन्ड के लिए केवल 3,500 करोड़ रुपये अदा किए जबकि पेट्रोलियम उत्पादों से शुल्क संग्रह रुपये से अधिक था, अकेले 2020-21 में यह 3,00,000 करोड़ रुपए था। दूसरा, ईंधन पर लगाए गए करों में केंद्रीय उत्पाद शुल्क (50 प्रतिशत तक) और राज्य सरकारों द्वारा एकत्र वैट (राज्य के आधार पर 15 प्रतिशत से 35 प्रतिशत तक) शामिल हैं। इसलिए, ईंधन से एकत्र किए गए करों बड़ा हिस्सा (लगभग दो-तिहाई) केंद्र सरकार को जाता है, राज्यों को नहीं। तीसरा, केंद्र ने मई 2020 में रसोई गैस (एलपीजी) पर सीधी सब्सिडी का भुगतान बंद कर दिया था।

साथ ही, यह दावा कि ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी के पीछे कच्चे तेल की ऊंची कीमतें हैं, यह दावा केवल आंशिक रूप से मान्य है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के आठ सालों के दौरान जब कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट आई थी, बावजूद इसके पेट्रोल की खुदरा कीमतों में बढ़ोतरी जारी रही। एनडीए सरकार ने करोड़ों रुपये की अप्रत्याशित कमाई की है। सरकार ने  पिछले आठ वर्षों में अकेले ईंधन करों से करीब 26,00,000 करोड़ रुपए [रु. 26 लाख करोड़] की कमाई की है।

इन एकमुश्त असत्य से भी अधिक महत्वपूर्ण ईंधन की कीमतों में वृद्धि के कारण और प्रभाव की जांच करना है - जो उनका बोझ वहन करते हैं, कौन हैं जो एकत्र किए गए कर से लाभान्वित होते हैं, और क्या इसने कल्याणकारी कार्यक्रमों को वित्त पोषित किया है।

2020-21 में, कोविड-19 लॉकडाउन से प्रेरित आर्थिक संकट के दौरान, सरकार ने पेट्रोल, डीजल और एलपीजी की कीमतों में बड़े पैमाने पर बढ़ोतरी की है। ईंधन की कीमतें 35 प्रतिशत से अधिक बढ़कर एक साल के भीतर 100 रुपये प्रति लीटर, जबकि एलपीजी की लागत में 50 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई, जो कई राज्यों में 1,000 रुपये प्रति सिलेंडर के करीब पहुंच गया है। 

इस तरह ईंधन की कीमतों में की गई बढ़ोतरी कारों और मोटरसाइकिलों जैसे निजी परिवहन पर बोझ डालती है और उत्पादन और आपूर्ति श्रृंखला में हर कदम पर कीमतें बढ़ाकर मुद्रास्फीति को बढ़ाती हैं। यह कृषि में खाद्य कीमतों, औद्योगिक वस्तुओं के निर्माण की लागत, सेवाओं की कीमतों और आवश्यक वस्तुओं की लागत को प्रभावित करता है।

तालिका: सितंबर के बीच 2021 और मार्च (चौथा सप्ताह), 2022 में मूल्य वृद्धि। 

महामारी के दौरान, एक बड़ी आबादी ने अपनी बचत और आय के स्रोतों को खो दिया है। आर्थिक गतिविधियों में अचानक रुकावट ने लगभग 20 करोड़ लोगों को अधिक गरीबी में धकेल दिया है। सब्सिडी की आवश्यकता अब पहले की तुलना में अधिक तीव्र है, लेकिन सरकार ने मई 2020 में एलपीजी पर भुगतान की जाने वाली सब्सिडी को समाप्त कर दिया था। (वित्त वर्ष 2021-22 में, केंद्र सरकार को इस सब्सिडी पर लगभग 36,000 करोड़ रुपये की बचत होने की उम्मीद है।) भले ही एक एलपीजी सिलेंडर की कीमत 1,050 रुपये को पार कर गई हो, अत्यंत विकट परिस्थितियों को छोड़कर, अधिकांश परिवार इसके लिए बजट में कटौती नहीं कर सकते हैं। इसलिए, लोग इसके बजाय स्वास्थ्य, भोजन और शिक्षा की लागत में कटौती कर रहे हैं।

ग़रीबों पर बढ़ता टैक्स का बोझ 

ईंधन की कीमतों में वृद्धि हर व्यक्ति को प्रभावित करती है। हालांकि, इससे गरीबों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है, क्योंकि वे अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा मुद्रास्फीति के बोझ को कम  करने के लिए खर्च करते हैं। ईंधन पर कर अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा, जो उत्पाद और सेवाओं पर उत्पाद शुल्क और जीएसटी से एकत्रित किया जाता है वह एक प्रतिगामी कदम है। प्रत्यक्ष करों में वेल्थ टैक्स, कॉर्पोरेट टैक्स, आयात टैक्स, आयकर और अमीर और औद्योगिक घरानों से एकत्र किए गए अन्य टैक्स शामिल हैं। जहां सरकार की प्राप्तियों में प्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी घटी है, वहीं पेट्रोलियम उत्पादों से उत्पाद शुल्क और जीएसटी सहित अप्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी बढ़ी है। दूसरे शब्दों में, इसने गरीबों पर करों को बढ़ाकर अमीरों से वसूले जाने वाले करों में गिरावट की भरपाई की है।

वित्तवर्ष 2021 में, पेट्रोलियम उत्पादों से केंद्र सरकार के उत्पाद शुल्क संग्रह में पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 74 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अप्रैल और सितंबर 2021 के बीच, पेट्रोलियम उत्पादों से उत्पाद शुल्क संग्रह पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में 33 प्रतिशत अधिक और 2019 में (पूर्व-कोविड-19 स्तर) से 79 प्रतिशत अधिक था।

मोदी सरकार ने प्रत्यक्ष करों में काफी कमी की है और अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि की है। इसने संपत्ति कर को समाप्त कर दिया, जिसकी कीमत लगभग 950 करोड़ है। 2019 में, इसने कॉर्पोरेट टैक्स की दर को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया था, जिससे सरकार को वित्त वर्ष 2010 में सरकार की प्राप्तियों में 1,00,000 [1 लाख] करोड़ के राजस्व नुकसान हुआ है। इसी तरह, 2020-21 में कॉर्पोरेट टैक्स से कुल कलेक्शन इनकम टैक्स से नीचे आ गई है। इससे अमीरों को भारी मुनाफा हुआ है।

महामारी के दौरान, निगमों का जीडीपी लाभ का अनुपात दस साल के उच्च स्तर पर पहुंच गया है, और सूचीबद्ध कंपनियों के शुद्ध लाभ में 57 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अरबपतियों के नियंत्रण वाली संपत्ति में पिछले साल भारत में एक दिन में 2,200 करोड़ रुपये जुड़े, जबकि सबसे गरीब कर्जदार हो गए हैं। धन की स्पष्ट असमानताएँ अरबपतियों की संख्या में 40 और उनकी संपत्ति में 35 प्रतिशत की वृद्धि से साबित होती हैं। सुपर-रिच के उद्यमों को सार्वजनिक धन का उपहार देना भी एनडीए और पूर्व संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकारों द्वारा प्रचलित नव-उदारवादी अर्थशास्त्र के मूल में है।

मौजूदा विकल्प

केंद्र सरकार के पास अन्य माध्यमों से राजस्व जुटाने की पर्याप्त गुंजाइश है, जिसे वह नव-उदारवादी नीतियों को लागू करने के कारण जानबूझकर इस्तेमाल नहीं कर पाई है। सरकार वर्ग पूर्वाग्रह के चलते अमीरों पर प्रत्यक्ष कर लगाने के बजाय पेट्रो उत्पादों पर टैक्स लगा रही है। एक ऐसी राजकोषीय नीति जो प्रत्यक्ष करों को बढ़ाती हो और खासकर सुपर-अमीर तबके को इस दायरे में लाती हो, को अपनाया जाना चाहिए, खाकर तब जब रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते कच्चे तेल की कीमतें विश्व बाजारों में अस्थिर हैं। सरकार को पेट्रोलियम उत्पादों की खुदरा कीमतों और उनके वितरण में मात्रात्मक राशनिंग को नियंत्रित करना चाहिए ताकि कीमतों में बढ़ोतरी के बजाय कच्चे तेल के आयात को प्रतिबंधित किया जा सके। इस तरह की अभूतपूर्व मूल्य वृद्धि के खिलाफ मुखर जन संघर्ष केंद्र सरकार को अपनी जनविरोधी आर्थिक नीतियों को वापस लेने के लिए मजबूर कर सकता है।

डॉ. सोमा मारला आईसीएआर नई दिल्ली से एक प्रमुख वैज्ञानिक, जैव प्रौद्योगिक  वैज्ञानिक हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

Don’t Burden the Poor with Fuel Price Hikes, Tax the Rich

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