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अंबेडकर को पूजो मत, पढ़ो

तमाम सरकारें एक तरफ़ अंबेडकर का गुणगान करती हैं और उनकी मूर्तियां स्थापित करती हैं वहीं दूसरी तरफ़ उनके सिद्धांतों व विचारों को जानबूझ कर दबाती हैं और...
Ambedkar

“आप पिछले लगभग 15 वर्षों से मेरा जन्मदिन मनाते आ रहे हैं। मैंने उनमें कभी भाग नहीं लिया। मैं हमेशा उनका विरोध करता रहा हूं। आपने अब मेरी स्वर्ण जयंती मनाई है; अब रहने दो। अब कोई उत्सव न हो।” डॉ. बी. आर. अंबेडकर की 50वीं जयंती मनाने के उद्देश्य से अंबेडकर जयंती समिति द्वारा आयोजित कार्यक्रम में 26 अप्रैल 1942 को कामगर मैदान मुंबई में अपने अनुयायियों की एक विशाल बैठक में अंबेडकर ने यह उद्बोधन दिया था।

दरअसल, अंबेडकर किसी व्यक्ति के जन्मदिन का उत्सव मनाने के विरोधी नहीं थे। वे सार्वजनिक जीवन या राजनीति में भक्ति एवं नायक पूजा के विरोधी थे। इसका कारण वे बताते है कि “नेताओं के प्रति अति-सम्मान जनता के आत्मविश्वास को कम कर देता है, जो परीक्षण के समय या बेईमान नेता नेतृत्वहीन होने पर उन्हें असहाय छोड़ देते है।” राजनीति में इस प्रकार की भक्ति एवं नायक पूजा के लिए ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म की शिक्षाओं को वे जिम्मेदार मानते है। जहां एक मसीहा, एक रक्षक या एक असाधारण व्यक्ति (सुपरमैन) की तलाश में हिंदू धर्मावलंबी रहते है। अंबेडकर के शब्दों में “हिंदू समाज के पतन और उसकी पतित स्थिति के स्थायी होने का एक बड़ा कारण कृष्ण का आदेश है कि जब भी कठिनाइयों में हों तो उन्हें निराशा की दलदल से छुड़ाने के लिए उनके अवतार की तलाश करनी चाहिए। इसने हिंदू समुदाय को आपदा के सामने बेबस बना दिया है।”

अंबेडकर के देहावसान के वर्षों बाद अंबेडकर की भक्ति चरम पर है। अंबेडकर के अनुयायी उन्हें भगवान की तरह देखते है। उनकी मूर्तियों पर फूल मालाएं पहनाई जा रही है। छोटी से लेकर विशालकाय मूर्तियां स्थापित की जा रही है। तेलंगाना सरकार ने राज्य सचिवालय के समीप उनकी 125 फीट ऊंची मूर्ति बनवाई, जिसका उद्घाटन तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव द्वारा उनके जन्मदिवस पर किया गया। लगभग एक वर्ष पूर्व दिल्ली व पंजाब में शासित आम आदमी पार्टी ने प्रत्येक सरकारी कार्यालय, विद्यालय एवं अनेकों सार्वजनिक स्थलों पर अंबेडकर और भगत सिंह की तस्वीर लगाने का आदेश दिया और लगाई भी। भाजपा सरकार भी मध्य प्रदेश में अंबेडकर महाकुंभ का आयोजन करने जा रही है। यह सब अंबेडकर के विचारों के बिलकुल विपरीत है। राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए अंबेडकर के नाम का सहारा ले रहे है। जनता और अंबेडकर के अनुयायियों को आभास कराया जा रहा है कि सरकारें अंबेडकर के पदचिन्हों पर चल रही है। ब्राह्मणवादी हिंदूवादी समाज में जहां प्रत्येक वस्तु की पूजा की जा रही हो, वहां अंबेडकर भी उनके लिए पूजनीय बन जाते है जो स्वयं पूजा पाठ, कर्मकांड, भक्ति और नायक पूजा का पुरजोर विरोध करते थे।

केंद्र की भाजपा सरकार और राज्य सरकारें वोट पाने के लिए अंबेडकर की मूर्तियां स्थापित कर रही है। उनके नाम पर स्थलों, योजनाओं आदि का नामकरण कर रहे है। जैसा कि हमने देखा आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार ने दलित बस्तियों और अन्य कई रिहाइशी क्षेत्रों के नाम अंबेडकर के नाम पर रखे। कई विद्यालयों के नाम अंबेडकर विद्यालय कर दिए गए। भाजपा भी केवल अंबेडकर के नाम का गुणगान करती है। क्या इन सरकारों ने समाज के निचले तबके से आने वाले समुदायों के लिए सरकारी नौकरियों में उचित प्रतिनिधत्व सुनिश्चित किया? क्या जात-पात ख़त्म करने के लिए कोई नई मुहिम की शुरुआत की? जवाब मिलेगा नहीं।

सरकारें अंबेडकर की मूर्तियां तो स्थापित कर रही है लेकिन नए पुस्तकालय, विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय या अन्य शैक्षिक संस्थानों की स्थापना उसी गति में दिखाई नहीं देती। कुछ एक उदाहरणों को देखें तो हमें पता चलता है कि सरकारें इनका हितैषी होने की बजाए इनको उसी दयनीय स्थिति में रखना चाहती है जैसी पहले थीं। दलित आदिवासी व अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आवंटित बज़ट को उनके उत्थान के लिए पूर्णरूपेण खर्च ही नहीं करते। इन वर्गों के छात्रों को समय पर छात्रवृति आवंटित नहीं करते। दिल्ली सरकार सफाई कर्मचारियों को कई कई महीनों तक वेतन नहीं देते। कई मामलों में तो 6 माह या इससे अधिक समय तक वेतन रोके रखते है। अपवाद छोड़ दें तो सफाई कर्मचारियों में सबसे अधिक दलित समुदाय से आते है। देश भर में इन वर्गों के लिए आरक्षित पद रिक्त पड़े है। सरकारें इन पदों को भरने के लिए भी कोई कदम नहीं उठाती। विश्वविद्यालयों में नियुक्ति के दौरान इन्हें अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। उत्पीड़न की अधिकतर ख़बरों को अखबारों, चलचित्रों में जगह न देने के बावजूद भी प्रतिदिन दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग के उत्पीड़न की ख़बरें अलग-अलग सूचना के माध्यमों से सामने आती रहती हैं। यहां स्पष्ट है कि तमाम सरकारें एक तरफ अंबेडकर का गुणगान करती है और उनकी मूर्तियां स्थापित करती है वहीं दूसरी तरफ उनके सिद्धांतों व विचारों को जानबूझ कर दबाती है और उनके विचारों के प्रचार-प्रसार को अवरुद्ध करती है।

बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा लिखी पुस्तकों एवं संबंधित साहित्य का मुद्रण महाराष्ट्र के प्रकाशन विभाग द्वारा 1970 के दशक में शुरू किया गया। उसके बाद केंद्र सरकार के अंतर्गत सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा भी प्रकाशन किया जाने लगा। अब तक 22 खंडों में प्रकाशित पुस्तकों का पुनर्मुद्रण बहुत धीमा रहा है। पाठक जो बाबा साहेब को जानना समझना चाहते है उन्हें भी पुस्तकें उपलब्ध नहीं हो पाती। सरकारें एवं सरकारी प्रकाशन बहुत कम प्रतियां प्रकाशित करते है। इसलिए मूर्तियों तस्वीरों की बजाए बाबा साहेब अंबेडकर के साहित्य प्रकाशन की मांग करनी चाहिए। लेकिन आज लगभग भारत और विश्व भर में उनकी तस्वीरों और मूर्तियों की भरमार है। अंबेडकर की तस्वीर लगाना, उनकी मूर्ति बनाना और उसकी पूजा करना, अंबेडकर की तस्वीर छपी टी शर्ट पहनना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि नहीं है। वह चाहते थे कि एक विवेकशील, वैज्ञानिक अभिवृति वाला समाज बने। उनके नाम की जय जयकार करने की बजाए उनके बताए मार्ग पर चलना उनका संदेश था। वह मार्ग था शिक्षा, ज्ञान, तर्क, वितर्क और विवेक का। उनके लेखन को पढ़ने वालों की संख्या नगण्य है। समझने वालों की और भी कम है। इसके लिए भारत की सत्ता में विराजमान वर्तमान सरकार और पिछली सरकारें जिम्मेदार है। जो विद्यालयों में इतिहास की पुस्तकों में अंबेडकर को स्थान देना नहीं चाहती थी। अगर कहीं उनके बारे में कुछ लिखा भी गया तो उन्हें केवल संविधान निर्माता या दलितों के नेता की भूमिका तक संकुचित या सीमित कर दिया गया।

अंबेडकर चाहते थे कि जितने परिश्रम से उन्होंने देश-विदेश में शिक्षा ग्रहण की और ब्राह्मणवाद व उच्च जातियों के चंगुल में फंसी जनता के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उसी प्रकार तथाकथित नीची जातियों के लोग भी उच्च शिक्षा प्राप्त करें और समाज में व्याप्त गैर बराबरी और शोषण के खिलाफ संघर्ष करें। अंबेडकर के शब्दों में “मैं नहीं चाहता कि तुम ऐसी विनाशकारी शिक्षा का पालन करो। मैं नहीं चाहता कि आप अपने उद्धार के लिए किसी एक व्यक्तित्व पर निर्भर रहें। तुम्हारा उद्धार तुम्हारे ही हाथों में, तुम्हारे अपने प्रयासों के द्वारा होना चाहिए।” अतः अंबेडकर को पूजो मत, पढ़ो।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय, इतिहास विभाग में पीएचडी शोधार्थी हैं।) 

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