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शरीर और बुद्धि के द्वंद्व : फिर से हयवदन

आख़िर इस नाटक में ऐसा क्या है जो देश-काल से परे जाकर लोगों को आकृष्ट करता है?  गिरीश कर्नाड ने कथासरित्सागर और टॉमस मान के लिखे ‘द ट्रांसपोज्ड हेडस’ से उन्होंने प्रेरणा ली थी
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दिल्ली के श्रीराम सेंटर में नाटक मंचन का एक दृश्य।

चर्चित नाटककार गिरीश कर्नाड का लिखा ‘'हयवदन' नाटक आधुनिक रंगमंच में क्लासिक का दर्जा रखता है। मूल कन्नड़ भाषा में लिखे इस नाटक का पिछले पचास सालों में विभिन्न भाषाओं में अनेक बार मंचन हुआ है। हिंदुस्तानी में (अनुवाद बी वी कारंत) इस नाटक का मंचन ‘महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स’  (मेटा) के तहत पिछले दिनों दिल्ली के श्रीराम सेंटर में हुआ और बेस्ट ऑनसंबल (best ensemble) और सहायक अदाकार (स्त्री) की भूमिका के लिए पल्लवी जाधव को पुरस्कृत भी किया गया। सभागार जिस तरह भरा हुआ था, कहा जा सकता है कि नयी पीढ़ी की रुचि इस नाटक में बनी हुई है।

आखिर इस नाटक में ऐसा क्या है जो देश-काल से परे जाकर लोगों को आकृष्ट करता है?  गिरीश कर्नाड ने कथासरित्सागर और टॉमस मान के लिखे ‘द ट्रांसपोज्ड हेडस’ से उन्होंने प्रेरणा ली थी और अपने मित्र, प्रख्यात रंगकर्मी बी वी कारंत को कहानी इस तरह सुनाई थी:  ‘यदि दो लोगों के सिर की अदला-बदली हो जाए, ऐसे में कौन सा रूप किसका होगा? क्या एक पुरुष की पहचान उसके सिर से होगी या शरीर से?’ अपनी संस्मरणात्मक किताब ‘दिस लाइफ एट प्ले’ में कर्नाड ने लिखा है कि इस कथा पर वे एक फिल्म बनाना चाहते थे, पर कारंत ने नाटक लिखने का सुझाव दिया। ‘हयवदन’ (घोड़े की सिर वाला आदमी) नाम भी उन्हीं का दिया है।

ARTइस नाटक की विषय-वस्तु के लिए वे भारतीय परंपरा, लोक, मिथक में व्याप्त कथा की ओर गए। उन्होंने लिखा है कि इस नाटक में गीत-संगीत, नृत्य का जिस तरह इस्तेमाल किया, इससे पहले आधुनिक नाटकों में नहीं होता था। बाद में ‘घासी राम कोतवाल’ (विजय तेंदुलकर) और ‘चरण दास चोर’ (हबीब तनवीर) जैसे नाटकों में कुशलता से इसका प्रयोग हुआ और काफी सफल रहा।  वर्ष 1971 में लिखे इस नाटक को देखते हुए मुझे कर्नाड के समकालीन हिंदी के नाटककार और लेखक मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे (1969)’ की याद आ रही थी। क्या जीवन में, संबंधों में पूर्णता की तलाश व्यर्थ है? 

यह नाटक देवदत्त, कपिल और पद्मिनी के प्रेम त्रिकोण के इर्द-गिर्द है। पद्मिनी देवदत्त और कपिल दोनों की ओर आकर्षित है। देवदत्त की मेधा का आकर्षण और कपिल का शरीर-सौष्ठव उसे अपनी ओर खींचता है, पर जब दोनों के सिर की अदला-बदली हो जाती है, पद्मिनी की दुविधा दर्शकों के सामने मुखर हो उठती है।

यह नाटक शरीर और बुद्धि के द्वंद्व को सामने लाता है। प्रेम, इच्छा, ईष्या जैसे शाश्वत भाव लोगों को आकर्षित करते रहे हैं। मुख्य कथा के साथ-साथ ही एक उप-कथा घोड़े के सिर वाले आदमी (हयवदन) की भी साथ चलती है, जिसमें हास्य का भी पुट है।

जहाँ ‘आधे-अधूरे’ नाटक सामाजिक यथार्थ के ताने-बाने से लिखा गया है, वही ‘हयवदन’ लोक (फोक), मिथक और तंत्र-मंत्र से सामग्री उठाता है। सूत्रधार, मुखौटे, गुड्डे-गुड़ियों और गीत-संगीत का इस्तेमाल कथानक को कुशलता से आगे बढ़ाता है और दर्शकों को पूरे नाटक के दौरान बांध कर रखता है। उल्लेखनीय है कि इस प्रस्तुति में बी वी कारंत के दिए संगीत का ही इस्तेमाल किया गया। नाटक के शुरुआत में गणेश वंदना काफी रोचक था, लेकिन यही बात पूरे नाटक के दौरान बजने वाले गीत-संगीत को लेकर नहीं कही जा सकती।  

इस नाटक का निर्देशन चर्चित रंगकर्मी नीलम मानसिंह चौधरी के कुशल हाथों में था और लगभग सभी पात्र राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से प्रशिक्षित थे। जाहिर है, मंचन कसा हुआ और मनोरंजक था। मूल नाटक में पद्मिनी सती हो जाती है, पर निर्देशक ने समकालीन भाव-बोध के अनुरूप इसे एक स्त्री के अस्तित्व और पहचान से जोड़ दिया है, जो आखिर में अपना रास्ता खुद चुनती है।

समकालीन रंगमंच में 'प्रॉप्स' और तकनीक का बेवजह इस्तेमाल बढ़ा है। कई निर्देशक मंच पर प्रयोग के माध्यम से नवीनता लाने की कोशिश करते हैं। इस नाटक में भी मंचन के दौरान एक ट्रक मौजूद रहा। ट्रक की छत पर संगीतकारों की टोली विराजमान थी। इस चलायमान ट्रक का औचित्य समझ में नहीं आया। क्या इसके बिना नाटक की परिकल्पना संभव नहीं है? प्रसंगवश, मेटा के आयोजन में  ही हिंदुस्तानी में किए गए एक अन्य नाटक  ‘एवलांच (निर्देशक, गंधर्व दीवान)’, जो तुर्की के नाटककार टूजनेर जुजूनलू की इसी नाम से लिखे नाटक पर आधारित था, को कमानी सभागार के मंच पर एक बंद स्पेस में किया गया, जहाँ पर तापमान बेहद कम रखा गया। साथ ही ऊंची पहाड़ियों पर तेज बहने वाली हवा (आवाज) के माध्यम से देशकाल (पहाड़ी पर बसे गाँव) का बोध करवाया गया था। दर्शकों को ठंड से बचने के लिए आयोजकों ने कंबल भी मुहैया करवाया था!

रंगकर्म में प्रयोग जरूरी है। 'हयवदन' की प्रासंगिकता से भी इंकार नहीं, पर समकालीन यथार्थ को संपूर्णता में व्यक्त करने के लिए हिंदी में नए नाटक लिखने होंगे, जिसका सर्वथा अभाव दिखता है।

(लेखक पत्रकार और शोधार्थी हैं।)

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