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ईआईए संशोधन- हिमालयी राज्यों में आपदाओं को होगा निमंत्रण

पर्यावरण प्रभाव आकलन यानी ईआईए अधिसूचना में प्रस्तावित संशोधन से हिमालयी राज्यों के पर्यावरणविद् भी चिंतित हैं कि आज एक कानून के होते हुए जब जल-जंगल-ज़मीन से जुड़े लोगों के अधिकार सुरक्षित नहीं हो पा रहे। इस कानून के और लचीला हो जाने से हिमालयी क्षेत्रों में पर्यावरण की क्या स्थिति होगी?
टिहरी में खनन की तस्वीर

हमारे आस-पास साफ हवा बची रहे, पेड़-पौधे बचे रहें, चिड़ियों की चहचहाहट बची रहे, नदियों से हमारा रिश्ता कायम रहे, पहाड़ प्रेम से भरे रहें, जंगल से जुड़े जीवन में शांति बची रहे, विकास के नाम पर चलाए जा रहे हथौड़ों-जेसीबी मशीनों, बारुदी विस्फोटों से ये धरती बची रहे, जैव-विविधता बची रहे ताकि मानवता बची रहे, कोरोना जैसे वायरस अतिक्रमण न कर सकें, इसलिए आज हम सबको बोलने ज़रूरत है। पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर अपनी प्रतिक्रिया दीजिए। आने वाली पीढ़ियों के लिए नहीं। बल्कि अपने-हमारे, इस वक़्त के लिए।

हिमालयी राज्यों का विरोध

पर्यावरण प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assesment) यानी ईआईए अधिसूचना (1994/2006) में प्रस्तावित संशोधन से हिमालयी राज्यों के पर्यावरणविद् भी चिंतित हैं कि आज एक कानून के होते हुए जब जल-जंगल-ज़मीन से जुड़े लोगों के अधिकार सुरक्षित नहीं हो पा रहे। इस कानून के और लचीला हो जाने से हिमालयी क्षेत्रों में पर्यावरण की क्या स्थिति होगी?

उत्तराखंड के साथ असम, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, जम्मू, कश्मीर, लद्दाख के लोगों-संस्थाओं से इस नए संशोधन पर प्रतिक्रियाएं इकट्ठा की गई हैं। जिसे केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को भेजा जा रहा है। साथ ही हिमालयी क्षेत्र के सांसदों को भी ये ज्ञापन सौंपा जाएगा।

टिहरी में ऑल वेदर रोड के निर्माण कार्य की तस्वीर1.jpg

EIA संशोधन से क्या है डर, ऑल वेदर रोड का उदाहरण

उदाहरण के तौर पर ऑल वेदर रोड। पहाड़ों में सड़क का विरोध नहीं होता बल्कि पहाड़ के गांवों में एक अदद सड़क की मांग होती है। लेकिन ऑल वेदर रोड के निर्माण में पर्यावरण को जिस तरह दरकिनार किया गया, पूरे हिमालयी क्षेत्र में इस सड़क का विरोध हुआ। पहाड़ों से निकला मलबा सीधे-सीधे नदियों में उड़ेलने की तस्वीरें सामने आईं। ऐसे आरोप लगे कि जहां एक पेड़ काटा जाना था, उसकी आड़ में दस और पेड़ काटे गए। अब भी ऑल वेदर रोड पर्यावरणीय संकट की ओर इशारा करती है। ये मामला एनजीटी में भी रहा। सुप्रीम कोर्ट में भी चल रहा है। 900 किलोमीटर लंबी ऑल वेदर रोड के पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन से बचने के लिए 53 छोटे-छोटे हिस्सों में बांटा गया। अब तक के कानून के तहत 100 किलोमीटर या उससे लंबी सड़क के निर्माण पर ये जानना जरूरी होता है कि उसका पर्यावरण पर क्या असर पड़ेगा।

पिछले वर्ष 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हाई पावर कमेटी बनाई। जिसे ये पता लगाना था कि ऑल वेदर रोड का पर्यावरण और लोगों के जीवन पर क्या असर पड़ा। इस कमेटी की अंतरिम रिपोर्ट इस वर्ष फरवरी में सौंपी जा चुकी है। फाइनल रिपोर्ट तक आते-आते ये कमेटी दो हिस्सों में बंट गई है। कमेटी में शामिल सरकारी अधिकारी या सरकार से लाभ लेने वाली संस्थाओं के 21 सदस्य एक तरफ हैं। कमेटी में स्वतंत्र तौर पर शामिल तीन या चार लोगों की राय कुछ मुद्दों पर अलग है।

इस सड़क के निर्माण में पेड़ और पहाड़ बेतरतीब तरीके से कटे। उत्तराखंड के कुछ हिस्से भूकंप के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं और सेस्मिक ज़ोन पांच में आते हैं। यहां भी ऑल वेदर रोड के तहत पहाड़ काटे जाने हैं। हाई पावर कमेटी ने माना है कि इस सड़क के निर्माण में पर्यावरणीय मानकों को दरकिनार किया गया है। इससे नए भूस्खलन ज़ोन सक्रिय हो गए हैं। सड़क का निर्माण शुरू होने से पहले इसके पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन किया ही नहीं गया। तब जब हमारे पास पर्यावरण संरक्षण के लिए बनी ईआईए अधिसूचना थी। जिसे अब और लचीला बनाया जा रहा है। कमेटी मानती है कि ऑलवेदर रोड के निर्माण में जरुरी सावधानी बिलकुल नहीं बरती गई।

टिहरी में ऑल वेदर रोड के निर्माण कार्य की तस्वीर2.jpg

धरती को चुनौती!

टिहरी के बीज बचाओ आंदोलन के लिए पहचाने जाने वाले विजय जड़धारी ईआईए संशोधन पर हैरानी जताते हैं। वे कहते हैं कि जब कानून होते हुए हम लोग ऑल वेदर रोड के नाम पर बेतरतीब काटे गए पेड़ों को नहीं बचा पाए। सड़क के साथ गांवों की तरफ भी पेड़ काट डाले गए। गिनती में जितने पेड़ कटे, भूस्खलन के बाद उपर से और भी वनस्पतियां मिट्टी के साथ मलबे में मिल गए। ऑल वेदर रोड के मलबे में कितनी ही वनस्पतियां दबी होंगी। ईआईए को अधिक सख्त बनाने के लिए संशोधन होना चाहिए था, न कि लचीला बनाने के लिए। ऐसा होता है तो ये धरती के साथ सीधे-सीधे युद्ध सरीखा होगा।

उधर, हरिद्वार का मातृसदन आश्रम रायवाला से भोगपुर तक गंगा के विस्तार में खनन रोकने और गंगा पर बन रहे बांधों को स्थगित करने की मांगों को लेकर तपस्या के रास्ते अपने संतों की जान कुर्बान कर चुका है। कोरोना के चलते स्थगित अनशन अब अगस्त में दोबारा शुरू किया जा रहा है। मातृसदन के स्वामी शिवानंद कहते हैं कि हम इतने वर्षों से खनन-बांध रोकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं लेकिन सरकारें हमारी नहीं सुन रही। नदियों में खनन सीमा डेढ़ से तीन मीटर तक बढ़ाया गया। कोरोना में लॉकडाउन के दौरान हरिद्वार में गंगा खनन हुआ। जब एक कानून के रहते हम पर्यावरण बचाने के लिए कुछ नहीं कर पा रहे, इन नियमों को और लचीला बनाने के बाद हम क्या कर पाएंगे।

केदारनाथ आपदा इतनी भयावह क्यों हुई

हिमालय क्षेत्र प्राकृतिक तौर पर सबसे अधिक संवेदनशील है। करीब 51 मिलियन लोग हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं के बीच बसे हैं। इनकी आजीविका पर्वतीय खेती, अलग-अलग किस्म के जंगलों से जुड़ी हुई है। हिमालय अपने ग्लेशियर के साथ नदियों, पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों समेत जैव विविधता का एक भरा-पूरा संसार है। दुनिया की सबसे युवा पर्वत श्रृंखला देश का सबसे बड़ा कार्बन सिंक है। लेकिन विकास के लिए बड़ी तेजी से हिमालयी क्षेत्र की नदियां जल-विद्युत परियोजनाओं का घर बन गईं। हिमालयी राज्यों में जिस तरह पर्यटकों की भीड़ उमड़ रही है, यहां जंगलों के बीच सड़क, होटल, रिसॉर्ट बढ़ते जा रहे हैं।

वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के जानलेवा होने की वजह हिमालयी क्षेत्र में विकास के नाम पर किया गया बेतरतीब निर्माण और जलविद्युत परियोजनाएं ही थीं। आपदा के बाद राज्य की इन जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण पर रोक लगा दी गई। जिसे दोबारा शुरू कराने की राज्य सरकार पूरी कोशिश कर रही है। इस वर्ष मार्च में उत्तराखंड की 24 जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से इनके पर्यावरण पर पड़ने वाले असर की रिपोर्ट मांगी है। इन मामलों से जुड़े अलकनंदा-भागीरथी नदी घाटी की हाइड्रो पावर परियोजनाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने ही टिप्पणी की थी कि क्या सरकार इन प्रोजेक्ट्स को इको सेंसेटिव ज़ोन के बाहर दूसरे क्षेत्रों में शिफ्ट करने पर विचार कर सकती है। ताकि लोगों की ज़िंदगियां खतरे में न आएं।

इन परियोजनाओं ने नदियों का मूल रूप छीन लिया है। भोपाल गैस त्रासदी जैसी भयावह घटना के बाद बने पर्यावरण संरक्षण कानून ने ईआईए को जन्म दिया। जो पूंजीपतियों और उनके विकास से हमें और हमारी धरती को बचाने का एक ज़रिया बना। विकास परियोजनाएं शुरू करने, अर्थव्यवस्था को धार देने के लिए, सरकार जिन नियमों को बाधा मानकर लचीला करने का प्रयास कर रही है, क्या इन परियोजनाओं से जल-जंगल-ज़मीन से जुड़े लोगों का जीवन बेहतर हुआ। कर्ज़ में डूबे मध्य वर्ग को इन परियोजनाएं से क्या लाभ मिला।

ईआईए के किन बदलावों पर हिमालयी राज्यों को है आपत्ति

ईआईए अधिसूचना किसी भी विकास परियोजना को मंजूरी मिलने से पहले जल-जंगल-ज़मीन, लोगों और समाज पर उस परियोजना से पड़ने वाले असर के आकलन का मौका देती है। इसमें परियोजना से प्रभावित लोगों की रज़ामंदी लेनी जरूरी होती है। उदाहरण के तौर पर सड़क के लिए ली जा रही ज़मीन, टिहरी बांध के लिए ली जा रही ज़मीन या पंचेश्वर बांध के लिए ली जा रही ज़मीन और उस पर चल रही जन-सुनवाई। अब भी टिहरी बांध से प्रभावित कई गांवों का विस्थापन नहीं हो सका है और झील को वे अपने लिए काला पानी की सजा मानते हैं।

ईआईए का नया मसौदा विकास के नाम पर होने वाले निर्माण बांध, सड़कें, हवाई अड्डों के निर्माण से पहले की कानूनी प्रक्रिया में उद्योगपतियों को रियायत देता है। नए संशोधन में पर्यावरण मंजूरी मिलने से पहले ही विकास परियोजनाओं को निर्माण करने की छूट दी गई है।

सीमा पर होने वाले निर्माण कार्य या हाईवे के निर्माण जैसे प्रोजेक्ट में यदि किसी की ज़मीन का अधिग्रहण करना है तो वहां के लोगों की रज़ामंदी जरूरी होती है लेकिन नए नियम में ये रज़ामंदी जरूरी नहीं होगी। यानी चमोली में हवाई अड्डा बनाना है और उसके लिए सैकड़ों पेड़ धराशायी होने हैं तो अब कोई रोक-टोक नहीं।

अब तक हर 6 महीने में परियोजना की निगरानी की जाती थी, जिसे बढ़ाकर एक साल किया जा रहा है।

यदि किसी परियोजना को ‘रणनीतिक’ कहा जाता है तो उससे जुड़ी जानकारी पब्लिक डोमेन में नहीं साझा की जाएगी। राष्ट्रीय रक्षा-सुरक्षा से जुड़ी परियोजनाएं रणनीतिक मानी जाती हैं लेकिन अब इस अधिसूचना के ज़रिये अन्य परियोजनाओं के लिए भी ‘रणनीतिक’ शब्द नए सिरे से परिभाषित किया जा सकता है। मान लीजिए कि ऑल वेदर रोड ‘रणनीतिक’ परियोजना है, तो अब इसके निर्माण से जुड़ी सूचनाओं पर पब्लिक का कोई हक नहीं।

क्यों न ‘विकास’ को नए सिरे से परिभाषित करें

कोरोना जैव विविधिता को खत्म करने से जुड़ा खतरा भी है। जलवाय़ु परिवर्तन, ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे खतरों से जूझते हुए, दिल्ली की दमघोंटू हवा, नदियों का ज़हरीला होता पानी, समंदर में बढ़ते कचरे को देखते हुए जरूरत ‘विकास’ को नए सिरे से परिभाषित करने की है जो हमारे पर्यावरण की राह में बाधा बन रहा है।

11 अगस्त तक केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इस अधिसूचना पर लोगों से राय मांगी है। ऐसा तब ही होता है जब किसी नियम से लोग बड़ी संख्या में प्रभावित होते हैं। तो अब कुछ ही दिन बचे हैं। तो थोड़ा वक्त निकालकर परियोजना का ड्राफ्ट पढ़ें। जो कि अंग्रेजी में दिया गया 83 पेज का ड्राफ्ट है। जटिल भी है। यानी कुछ मुश्किल होगीं। इससे जुड़ी हिंदी में खबरें भी पढ़ें। अपनी राय जरूर भेजें।

(वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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