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EXCLUSIVE: "बनारस में बाढ़ नहीं, ये कराहती गंगा के आंसू हैं"

"गंगा को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास कोई नया नज़रिया नहीं है। अगर कुछ है तो सिर्फ स्लोगन और जुमले। इनकी नीति और नीयत दोनों गलत है। बनारस की गंगा के साथ मनमाने ढंग से जो छेड़छाड़ किया जा रहा है, उसी का नतीजा है जलप्लावन और आम जनता की तबाही।"
EXCLUSIVE: "बनारस में बाढ़ नहीं, ये कराहती गंगा के आंसू हैं"

"बनारस में बाढ़ नहीं आई, बल्कि ये उस कराहती गंगा के आंसू हैं, जिसके प्रवाह, गहराई और दिशा के साथ भाजपा सरकार लगातार मनमानी कर रही है। इसी सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी ने बनारसियों को भरमाने के लिए कहा था, ‘मैं आया नहीं, मां गंगा ने मुझे बुलाया है।’ सच यह है कि गंगा को लेकर पीएम मोदी के पास कोई नजरिया नहीं है। अगर कुछ है तो सिर्फ स्लोगन और जुमले। इनकी नीति और नीयत दोनों गलत है। बनारस की गंगा के साथ मनमाने ढंग से जो छेड़छाड़ किया जा रहा है, उसी का नतीजा है जलप्लावन।" यह बेबाक राय है चंचल की, जो बनारस के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे और जन-सरोकारों के प्रति स्पष्ट नजरिया रखने वाले मुखर समाजवादी चिंतक हैं।

चंचल बेबाकी के साथ कहते हैं, " नमामि गंगे" बेवकूफ बनाने वाली योजना है। हर नदी का अपना एक अलग स्वभाव होता है। सभी नदियों को बचाने का कोई एक तय तरीका नहीं होता। बारिश के दिनों में गंगा समेत दुनिया भर की नदियां बाढ़ लाकर खुद को साफ करती हैं। इनसे छेड़छाड़ करोगे तो डिजास्टर होगा ही। बनारस में इन दिनों बिना बारिश के बाढ़ इसलिए विकराल है कि सरकार ने गंगा का रुख बदलने और वाहवाही लूटने के लिए रेत पर "मोदी नहर" बनवा दी। विश्वनाथ कारिडोर का सारा मलबा गंगा में डालवा दिया। मणिकर्णिका घाट के सामने गंगा में प्लेटफार्म बनाकर उसके वेग को रोकने की गंदली कोशिश की गई। ऐसे में बनारस के लोगों को खतरनाक नतीजे तो भुगतने ही पड़ेंगे।"

'स्मार्ट सिटी' में चल रहीं नौकाएं

बनारस में गंगा ने सचमुच खतरे का अलार्म बजा दिया है। नदी का जल लाल निशान पार कर चुका है। इसका असर वरुणा और गोमती पर भी है। 'स्मार्ट सिटी' की गलियों में नावें चलाई जा रही हैं। सामने घाट इलाके के लोग योगी सरकार का मुंह देख रहे हैं, लेकिन इनके पास जो कुछ पहुंच रहा है वह सरकार नहीं, सामाजिक संस्थाएं दे रही हैं। बनारस में गंगा के साथ वरुणा ने इस कदर तबाही मचाई है कि बनारसी साड़ियों का ताना-बाना डूब गया है। करघों की खटर-पटर बंद है। हजारों बुनकरों के सामने रोजी-रोटी की भीषण समस्या है। बाढ़ से घिरे लोगों की नजरें प्रशासन से मिलने वाली मदद की ओर गड़ी हुई हैं। ऐसे लोगों की संख्या हजारों में है जो अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हो गए हैं।

गंगा में उफान के कारण इसके तटवर्ती इलाकों के साथ-साथ वरुणा के मुहाने पर बसे रिहायशी इलाकों में बाढ़ का पानी घुस गया है। शहर के दर्जनों इलाकों में जन-जीवन अस्त-व्यस्त है। वाराणसी शहर के दशाश्वमेध घाट पर स्थित जल पुलिस थाना भी बाढ़ के पानी से घिर गया है। मणिकर्णिका घाट पर शवदाह स्थल डूब गया है। हरिश्चंद्र घाट की सबसे ऊपरी सीढ़ी पर शवदाह किया जा रहा है। यही स्थिति सामने घाट, रमना, डोमरी, रामनगर आदि शवदाह स्थलों की है।

बनारस का सीन यह है कि गंगा घाटों का आपसी संपर्क भी पूरी तरह टूट गया है। बलिया-गाजीपुर मार्ग पर आवागमन ठप है। चंदौली जिले में बलुआ घाट पार कर गंगा का पानी बाजार में पहुंच गया है। कोनिया, सामने घाट, सरैया, डोमरी, नगवा, रमना, बनपुरवा, शूलटंकेश्वर के कुछ गांव, फुलवरिया, सुअरबड़वा, नक्खीघाट, सरैया समेत कई इलाकों में बाढ़ ने अपना कहर बरपाना शुरू कर दिया है। सभी इलाकों में लोगों के घरों में पानी घुस गया है। आवागमन पूरी तरह से ठप है। बड़ी संख्या में लोग घर छोड़ने के लिए मजबूर हो गए हैं। पिछले दो-तीन दिनों से पलायन का सिलसिला तेज हो गया है। कुछ लोग अपने घरों का सामान लेकर रिश्तेदारों और परिचितों के यहां जा रहे हैं।

बुनकरों के हिस्से में आई बाढ़ की तबाही

गंगा और वरुणा नदी में आई बाढ़ की वजह से शहर के दर्जन भर मोहल्लों में लूम और करघों की धड़कन बंद हो गई हैं। हालत यह है कि बुनकरों को अब दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुहाल हो गया है। घरों में पानी घुसने से बिजली की सप्लाई के साथ-साथ करघे और लूम खामोश हो गए हैं। नक्खीघाट की शकीला के घर में करीब एक फीट तक पानी भर गया है। शकीला के घर में जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं बचा है। करीब पांच फीट पानी भर जाने की वजह से आसपास के कुछ लोग यहां से पलायन कर चुके हैं। शकीला बताती हैं, "घर में पानी भर जाने की वजह से रोजी-रोटी के लाले पड़ गए हैं। पेट के लिए उधार लेकर काम चला रहे हैं।"

वरुणा नदी के किनारे किराये के मकान में रहने वाली सबीना अपने चार बच्चों को लेकर खुले आसमान के नीचे रहने पर विवश है। सबीना का पति बुनकर है। आश्रय की तलाश में भटक रही इस महिला की मदद के लिए न प्रशासन आगे आ रहा है, न सियासी दल। दरअसल वह वोट बैंक नहीं है। वह कहती है, "हम बिहारी हैं। बनारस की वोटरलिस्ट में हमारा नाम नहीं है, इसलिए हमारी कहीं सुनवाई नहीं हो रही है। कोई मदद के लिए आगे नहीं आ रहा है।"

नक्खीघाट पुल पर कई दिनों से मेला लग रहा है। सैकड़ों लोगों का हुजूम बाढ़ से होने वाली तबाही का मंजर देखने के लिए जुट रहा है। एनडीआरएफ की टीम वरुणा नदी में लगातार गश्त कर लोगों को सतर्क रहने की हिदायत दे रही है। हिदायतनगर के जावेद अख्तर बताते हैं, "हर तीन साल में ऐसी भीषण बाढ़ आती है। इससे पहले साल 2013, 2016 और 2019 में ऐसी ही भयानक बाढ़ आई थी। पिछली मर्तबा बाढ़ की वजह से करीब एक महीने तक कारख़ाना बंद रहा, जिसकी वजह से हमारी बरसों की बनाई गृहस्थी उजड़ गई थी।"

सिधवा इलाके के नवाब अंसारी बताते हैं, "गंगा ने रौद्र रूप धारण किया तो अचानक वरुणा भी फुंफकार मारने लगी। कुछ ही घंटों में हमारे साथ-साथ पड़ोसियों की सारी गृहस्थी डूब गई। लूम और करघों पर चढ़ीं साड़ियां काली पड़ गई हैं। यह बात हमारी समझ में नहीं आ रही है कि नुकसान की भरपाई कैसे हो पाएगी?"

नक्खीघाट पर प्रशासन ने तीन नावों की व्यवस्था की है। लोग इन्हीं नावों से अपने घर आ-जा रहे हैं, लेकिन स्थिति भयावह है। लोग दाने-दाने के लिए तरस रहे हैं। नाव से अपने घर की तरफ जा रही महिला बुनकर अजीजुन्निशा ने शिकायत करते हुए कहा, "पहले बाढ़ आती थी तो इलाके के स्कूल और मदरसों में अस्थायी आश्रय घर बनाया जाता था। इस बार भी प्रशासन ने वादा किया था, लेकिन राहत हमारे नसीब में नहीं है। लूम बंद होने से हम दाने-दाने के लिए मोहताज हो गए हैं।"

बनारस शहर ही नहीं, ग्रामीण इलाकों में भी गंगा, वरुणा और गोमती नदियां तबाही मचा रही हैं। पिंडरा इलाके के कोइराजपुर, चमाव, भगतुपुर, दासेपुर, गोसाईपुर, करोमा के अलावा रामेश्वर, पसीपुर, पांडेयपुर, तेंदुई, सत्तनपुर समेत दर्जनों गांवों में सैकड़ों एकड़ फसल जलमग्न हो गई है। बनारस का इकलौता आईलैंड ढाब पूरी तरह टापू बन गया है। बाढ़ का पानी इस आईलैंड पर बसे 35 हजार लोगों से लिए मुसीबत का सबब है। बनारस के दर्जनों गांवों में बाढ़ का पानी निचले इलाकों में घुसकर तबाही मचा रहा है। जिले में करीब साठ गांव बाढ़ की चपेट में हैं। हालांकि बनारस के कलेक्टर कौशल राज शर्मा दावा करते हैं कि बाढ़ से निपटने के लिए बनारस में चाक-चौबंद व्यवस्था है। प्रभावित लोगों को आश्रय देने के लिए बाढ़ राहत चौकियां खोल दी गई हैं। बाढ़ग्रस्त इलाकों में नावों के प्रबंध किए गए हैं। घर-घर भोजन और राशन भी पहुंचाया जा रहा है।

बनारस में बाढ़ से तबाही क्यों?

बनारस में इतनी बारिश नहीं हुई है कि नदियां उफना सकें, लेकिन पहाड़ों से आने वाला पानी यहां आफत मचा रहा है। बाढ़ से उपजी तबाही के लिए बनारस के पत्रकार प्रदीप कुमार सीधे तौर पर मोदी-योगी सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं। वह कहते हैं, '' गंगा छिछली हो गई है। नदी का सामान्य बहाव भी बाढ़ की शक्ल अख्तियार कर लेता है। बनारस की गंगा और वरुणा जीवन की धमनियां हैं। नदियों में गाद (शील्ट) भरने की वजह से बाढ़ विनाशकारी हो जाती है। हर दूसरे-तीसरे साल ऐसी स्थिति पैदा होती है। भाजपा सरकारें नदियों के साथ क्रूर व्यवहार कर रही हैं, इसलिए स्थितियां ज्यादा जटिल हैं।''

प्रदीप कहते हैं, ''हम चाहे जितनी भी सावधानी बरत लें, ऐसी आपदा आएगी ही। गंगा-वरुणा को फिर से ज़िंदा करने की ज़रूरत है। मुमकिन समाधान के बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है।"

बनारस के नदी विशेषज्ञ प्रोफेसर बीडी त्रिपाठी ने कहा, "बनारस में ज़मीन पहले से ही कम है। लोग कई पीढ़ियों से नदियों के किनारे रहते आ रहे हैं। लोगों को इन जगहों से हटाना आसान काम नहीं है। वो तुरंत नेताओं के पास चले जाएंगे और विरोध प्रदर्शन होने लगेंगे। जिन जगहों पर लोग बरसों से रहे हैं, उन्हें वहां से हटाना ठीक नहीं होगा। उन्होंने कहा, ''गंगा और वरुणा नदियों के किनारे बड़ी संख्या में धार्मिक स्थल हैं। यह एक संवेदनशील मुद्दा है जिसे बेहद संजीदगी और सतर्कता से देखने की ज़रूरत है।"

प्रो.त्रिपाठी का मानना है कि बाढ़ प्रभावित इलाकों में भवन निर्माण के लिए इजाजत कतई नहीं दी जानी चाहिए। नदियों के रास्ते से अतिक्रमण हटाया जाना चाहिए और एक 'कन्ज़र्वेशन ज़ोन' बनाया जाना चाहिए। इसकी शुरुआत उन आवासों और कारखानों को हटाकर करनी चाहिए जो नदियों को दूषित करते हैं। बनारस में रेत की तस्करी धड़ल्ले से हो रही है। इसे रोका नहीं गया तो इसके ख़तरनाक नतीजे होंगे।"

ऐसे ही चलता रहा तो...!

जाने-माने पर्यावरणविद और गंगा विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर यूके चौधरी बाढ़ को 'नदी के पेट में बन रही रेत के गोले' से जोड़ते हैं। न्यूज़क्लिक के लिए बातचीत में वह कहते हैं, "बाढ़ का अर्थ है उल्टी होना। यदि आपने जरूरत से ज्यादा खा लिया हो या आपका पेट ताकत के साथ बांध दिया गया हो तो आप उल्टी कर सकते हैं। इसी तरह से जब नदी को तटबंधों में बांध दिया जाता है तो उसके पेट में रेत और गाद का स्तर लगातार बढ़ता रहता है। बनारस में बाढ़ इसलिए आ रही है, क्योंकि नदी के पेट पर कोई ध्यान नहीं दे रहा।"

शहरीकरण और अनियंत्रित निर्माण से नदियों को हो रहे नुकसान का जिक्र करते हुए प्रो. चौधरी कहते हैं, "हालात यह हैं कि नदी के पेट में निर्माण कार्य चलते रहते हैं। यहां तक कि सूखे मौसम में लोग फ्लड प्लेन में और धारा के बीच तक में घर बना रहे हैं। बनारस में वरुणा और असी नदी को लोगों ने निर्माण करके घेर लिया है। ऐसे में नदी का पेट साफ कैसे रहेगा? जब नीचे रेत और गाद जमा होगी तो ऊपर बाढ़ आएगी ही। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वाराणसी जिला प्रशासन साल भर बाढ़ से निपटने की तैयारियों पर ध्यान नहीं देता। आखिर में जब बाढ़ आती है तब लोग सड़कों पर टेंटों में रहने को मजबूर हो जाते हैं।"

जर्नलिस्ट गुरु प्रोफेसर अनिल उपाध्याय का मानना है कि अगर यही हालत रही तो बनारस में कभी बाढ़, तो कभी सूखा देखने को मिलेगा। इस शहर से गुजरने वाली नदियों को इसकी मनमर्जी से बहने से कोई नहीं रोक सकता। यूं तो खांटी बनारसी हमेशा से बाढ़ में तैरना जानता था। तैरने वाला यह समाज आखिर डूबने की कगार पर क्यों हैं? मोदी सरकार ने गंगा की जो दुर्गति की है उससे लगता है कि अब बाढ़ के आने से कभी नहीं रोका जा सकता है। इस शहर की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यहां बाढ़ को भले ही टाला नहीं जा सकता, लेकिन बेहतर प्रबंधन से आम जनजीवन पर पड़ने वाले बाढ़ के प्रभावों को कम जरूर किया जा सकता है।"

प्रो. अनिल के मुताबिक पानी के साथ बड़े-छोटे पत्थर, रेत और बड़ी मात्रा में तलछट या गाद भी नीचे आती है। ऐसे में बाढ़ को रोकने का प्रयास लोगों के जीवन में बड़ी मुश्किलें पैदा कर सकता है। वो कहते हैं, "अगर किसी बाढ़ पीड़ित से सत्तारूढ़ दल का कोई राजनेता यह वादा करे कि वह बाढ़ को 'पूरी तरह' खत्म कर देगा तो तात्कालिक तौर पर वह और बाकी जनता बहुत खुश हो सकती है। लेकिन इस तरह के सभी वादे सिर्फ इनकी व्यक्तिगत राजनीति को चमकाने के लिए किए जाते हैं। सरकार के उदासीन रवैये और वोट बैंक की राजनीति ने बनारस में बाढ़ की समस्या को नौकरशाही और राजनीति के हाथों की कठपुतली में बदल दिया है। जब से भाजपा सरकार सत्ता में आई है तब से उसने बाढ़ राहत के तहत बंटने वाले पैसे और सामान को भी वोट बटोरने की राजनीति का एक हिस्सा बना लिया है। नेताओं और अफसरों का काम बाढ़ से चल रहा है तो इस भीषण समस्या का समाधान कोई भला क्यों ढूंढेगा?"

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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