इको-एन्ज़ाइटी: व्यासी बांध की झील में डूबे लोहारी गांव के लोगों की निराशा और तनाव कौन दूर करेगा
सत्तर के दशक में देहरादून में यमुना नदी पर लखवाड़-व्यासी बहुद्देश्यीय परियोजना ने कागजों में जन्म लिया था। वर्ष 1972 में कालसी-चकराता विकासखंड के लोहारी समेत कई गांवों का तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार के साथ ज़मीन अधिग्रहण को लेकर समझौता हुआ। इस समझौते में किसानों ने लिखा था “भविष्य में सरकार हमारी सारी कृषि भूमि लेती है तो हमें ज़मीन के बदले ज़मीन ही दी जाए। सरकार को ज़मीन देने के बाद हम भूमिहीन नहीं होंगे”।
वर्ष 1972 से 2022 के तकरीबन 50 वर्षों तक इस परियोजना से प्रभावित ग्रामीण डर, तनाव और अनिश्चितता के साए में जीते रहे। समझौते पर दस्तखत करने वाले लोग धरती से विदा हो गए। 1992 में रोकी गई परियोजना 2014 में फिर से बहाल हो गई। जिन लोगों को अपनी ज़मीनें छोड़नी थी, पुश्तैनी घर छोड़ने थे, अपने खेत-जंगल छोड़ने थे, आर्थिक मोर्चे के साथ-साथ, उनमें भावनात्मक और मानसिक स्तर पर भी संघर्ष शुरू हो गया।
महानगरों की बिजली-पानी की जरूरत पूरी करने के लिए जिन परिवारों की ज़मीनें-जड़ें व्यासी बांध की कृत्रिम झील में डुबो दी गईं, वे मानसिक तौर पर आहत महसूस कर रहे हैं। पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, आपदा, बांध, विस्थापन, मानसिक सेहत पर भी असर डालता है। फरवरी में आई इंटर गवरमेंट पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में भी ये बात स्पष्ट तौर पर कही गई है।
रिपोर्ट कहती है कि चरम मौसमी घटनाओं के प्रभावों में मानसिक सेहत भी शामिल है। तीव्र मौसमी घटनाओं के चलते होने वाले विस्थापन से हम इसका आकलन कर सकते हैं। जलवायु से जुड़े मानसिक सेहत के खतरे को कम करने के लिए मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक लोगों की पहुंच बनाना जरूरी है।
आईपीसीसी की रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन का मानसिक सेहत पर असर हाईकॉन्फिडेंस में दर्शाया गया है
सदमा
70 के दशक में ‘भूमिहीन नहीं होंगे’ लिखकर गए लोगों की मौजूदा पीढ़ी ने पूर्वजों की धरती खो दी। गेहूं-जौ-बाजरा उगाने वाले कई किसान परिवार भूमिहीन हो गए।
साल के घने जंगलों, ऊंचे पहाड़ों और यमुना की गोद में बसा एक भरपूर उपजाऊ गांव विकास परियोजना की बलि चढ़ गया। 7 अप्रैल 2022 को देहरादून पुलिस-प्रशासन, पीएसी की मौजूदगी में, लोहारी गांव को खाली कराने पहुंचा। लोग अपने ही गांव से पुलिस बल की मौजूदगी में निकाले जा रहे थे। उनके शादी-त्योहार के सामूहिक बर्तनों पर बुलडोज़र चले। बरसों की मेहनत से बने और पुरखों की स्मृतियों से जुड़े जौनसारी शैली के लकड़ी के घर 24 घंटे में लकड़ी के ढेर में तब्दील हो गए। इससे उपजी पीड़ा ने गांववालों के मन पर गहरा आघात किया। भविष्य को लेकर बनी अनिश्चितता, ‘अब कहां जाएंगे’, ‘क्या करेंगे’, ‘कैसे खाएंगे’ से जुड़ा डर जेहन पर हावी है।
लोहारी गांव के कई परिवार व्यासी बांध की झील किनारे सरकारी प्राइमरी स्कूल में रह रहे हैं। इनमें से कई अब भूमिहीन हैं। यहां से वे अपने जलमग्न गांव को देख सकते हैं। बची-खुची ज़मीन की देखरेख कर सकते हैं।
यहां मौजूद उम्रदराज महिलाओं के चेहरे पर गहरी हताशा झलकती है। युवा महिलाएं अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। पुरुष एक किनारे समूह में शांत बैठे हैं। गांव से निकाले जाने, मांगे पूरी न होने, पुनर्वास न होने और भविष्य की अनिश्चितता को लेकर उनमें सरकार के प्रति गहरी नाराजगी है।
गांव से हटने के बाद बच्चों-बुजुर्गों की देखरेख में लगी ज्यादातर महिलाएं खुले में बर्तन धोने और खाना पकाने जैसे कार्य करती मिलीं। कई लोगों ने खुद को डिप्रेशन का शिकार बताया।
40 वर्ष की रेखा चौहान की इस दौरान तबियत बिगड़ी। वह कहती हैं “हमारा खेत-खलिहान मकान सब चला गया। अब हमारे पास रहने की जगह नहीं है। अपने 3 बच्चों को रिश्तेदारों के यहां रहने भेजा है। जब वे गांव खाली करा रहे थे तो मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था। डिप्रेशन हो रहा था। तबीयत बिगड़ी। हमें बेघर कर दिया”।
लोहारी गांव में रह रही रेखा वर्मा की ये पांचवी पीढ़ी थी। उनकी कोई ज़मीन नहीं थी। गांव के तीज-त्योहार, शादी-ब्याह में पति ढोल बजाते थे। गांव से रेखा का नाता भी उतना ही गहरा था जितना ज़मीन रखने वालों का। भूमिहीन होने के चलते उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला।
गांव से विस्थापन की प्रक्रिया में रेखा की तबीयत खराब हुई। वह बताती हैं “मुझे बार-बार बेहोशी आ रही थी। बहुत घुटन हो रही थी। किसी से बात करने का मन नहीं है। मेरे पति बीमार रहते हैं। अब हमारे पास कोई ठिकाना नहीं। मैंने अपनी गाएं जंगल में छोड़ दीं। सरकार ने हमारे साथ ये क्या कर दिया”।
लोहारी की गुड्डी तोमर बेहद कमजोर आवाज में कहती हैं “मेरी आंखों की नींद उड़ गई है। ब्लड प्रेशर बहुत नीचे आ गया है। हमें भविष्य की चिंता सता रही है। हमारे बच्चों का क्या होगा? सरकार ने हमारे लिए कोई व्यवस्था नहीं की”।
प्रशासन की मौजूदगी में अपना गांव-घर बिखरता देख रणवीर चौहान ने आत्महत्या की कोशिश तक की। वह बताते हैं “पूर्वजों के बनाए मकान को हमने अपने कंधों पर लकड़ियां ढो-ढो कर संवारा था। घर टूटता देख मुझसे रहा नहीं गया। हमारी यही मांग है कि पूरे गांव को एक जगह बसा दो। हम बिखरें नहीं”।
गांव की आशा कार्यकर्ता सुचिता तोमर को आपदा जैसे हालात में लोगों को संभालने की ग्राम स्तर पर ट्रेनिंग भी मिली है। वह बताती हैं “बांध-बिजली के लिए बनाई गई झील में अपने घरों-खेतों को डूबते देख कर लोग बिल्कुल ही टूट गए। उन्हें गहरा मानसिक आघात लगा। सब परेशान हैं कि अब तक खेत से निकला अनाज खा रहे हैं लेकिन कल कहां से खाएंगे। कुछ लोगों की तबीयत बिगड़ने पर अस्पताल भी ले जाया गया। लोगों के सामने जीवनयापन का कोई ज़रिया नहीं बचा है”।
वह ये भी बताती हैं कि झील के किनारे स्कूल में खुले में खाना पकाने से भी कई लोग बीमार हुए। तेज़ हवा से भोजन में धूल-मिट्टी के कण जा रहे हैं। जिससे कई लोगों को डायरिया हुआ। लेकिन उनके पास रहने का कोई और विकल्प नहीं है।
झील बनाने के लिए यमुना नदी के किनारे बदले गए इकोसिस्टम का असर यहां मौजूद लोगों के जीवन पर पड़ा है।
जलवायु परिवर्तन और मानसिक सेहत
लोहारी गांव के लोगों की आर्थिक, मानसिक, भावनात्मक क्षति की वजह बांध परियोजना के चलते होने वाला विस्थापन है। इस बांध परियोजना का उद्देश्य बढ़ती आबादी की बिजली-पानी से जुड़ी मांग पूरा करना है। जिसके लिए यमुना नदी के आसपास पूरे इको-सिस्टम को बदला गया है। इसका असर स्थानीय मानवीय इको-सिस्टम पर भी पड़ा है।
संयुक्त राष्ट्र की वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट रिपोर्ट 2020 के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते कई देशों को पानी की भीषण किल्लत का सामना करना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के चलते वर्षभर पानी की उपलब्धता में बदलाव होने की आशंका है। इन्हीं आशंकाओं से निपटने के लिए लखवाड़-व्यासी जैसी बड़ी बहुद्देश्यीय परियोजनाएं तैयार की जा रही हैं।
लोहारी गांव की तरह देशभर में लाखों लोग प्राकृतिक आपदाओं की मार या जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए बनाई जा रही विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापित हो रहे हैं। इसका असर उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति के साथ मानसिक सेहत पर भी है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ नेशनल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेस (निमहान्स) में सामुदायिक मनोचिकित्सा इकाई के प्रमुख और सेंटर फॉर डिज़ास्टर मैनेजमेंट में कंसलटेंट प्रोफेसर सी. नवीन कुमार कहते हैं “जिस जगह हम सदियों से रह रहे हैं, वहां से हमारे भावनात्मक मूल्य जुड़े होते हैं। विस्थापित किया जाना, फिर नए घर, रोजगार और बच्चों के स्कूल का इंतज़ाम जैसे कार्य करने होते हैं। ये सभी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं”।
नीति
भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 में यह व्यवस्था की गई है कि ज़मीन अधिग्रहण करने की सूरत में गांव को बुनियादी ढांचे जैसे सड़क, साफ पानी, पंचायत घर, पशुओं के लिए चारागाह समेत परिवारों की सभी मूलभूत आवश्यकताएं पूरी करनी होगी ताकि विस्थापन से जुड़े सदमे (trauma) को कम किया जा सके। लोहारी गांव के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। सरकार के मुआवजे से लोग संतुष्ट नहीं हैं और उनके पुनर्वास से जुड़ी मांगें पूरी नहीं हुई। प्रशासन जो व्यवस्था कर रहा है, स्थानीय लोग उसे व्यावहारिक नहीं बताते। बिना पुनर्वास के ही गांव जलमग्न हो गया।
नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाइमेट चेंज एंड ह्यूमन हेल्थ- 2018 जलवायु परिवर्तन के सेहत पर पड़ने वाले प्रभाव और उससे निपटने के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं को मज़बूत किए जाने की बात करता है। लेकिन इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के मानसिक सेहत पर पड़ने वाले असर पर ठोस तरीके से कुछ नहीं कहा गया है।
एनसीडीसी मॉड्यूल जलवायु परिवर्तन से जुड़ी मुश्किलों के चलते मानसिक सेहत पर पड़ने वाले असर इको-एंजाइटी और क्लाइमेट डिस्ट्रेस की बात करता है।
जबकि एनसीडीसी (नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल) ने जलवायु परिवर्तन और मानसिक सेहत को लेकर ट्रेनिंग मॉड्यूल निकाला है। इस मॉड्यूल के मुताबिक तीव्र मौसमी घटनाओं, पर्यावरणीय वजहों से विस्थापन का मानसिक सेहत पर विपरीत असर पड़ता है। जिससे निराशा बढ़ाना, आत्महत्या की दर बढ़ना, नशे की ओर झुकाव बढ़ना जैसे नतीजे देखे गए हैं।
इसे इको-एन्ज़ाइटी या क्लाइमेट डिस्ट्रेस का नाम दिया गया है। ऐसे लोग पैनिक अटैक, अनिद्रा और obsessive thinking यानी जुनूनी सोच के शिकार बन सकते हैं। इस मॉड्यूल में वर्ष 2013 की उत्तराखंड आपदा, गुजरात भूकंप जैसी तीव्र प्राकृतिक घटनाओं से गुजरने वाले लोगों की मानसिक सेहत पर विपरीत असर को दर्ज किया गया है।
ऐसी स्थितियों में ज़िला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम अहम होते हैं। इन हालात में बच्चों-बुजुर्गों, विकलांग और हाशिए पर जीने वाले तबके को ख़ासतौर पर मदद की जरूरत होती है।
किसे परवाह है!
जलवायु परिवर्तन और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर पिछले 5 वर्षों से कार्य कर रहे वकील ऋषभ श्रीवास्तव कहते हैं “आमतौर पर हाशिए पर रहने वाला तबका जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। वे लोग आपके पास मेंटल हेल्थ सपोर्ट के लिए नहीं आएंगे। ऐसे समय में सरकार को उन्हें मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाएं और मेंटल हेल्थ फर्स्ट एड देनी चाहिए”।
लेकिन लोहारी गांव विस्थापन, चमोली आपदा, पिछले वर्ष नैनीताल में आई आपदा और इस तरह की कई आपदाओं में राज्य सरकार की तरफ से मानसिक सेहत के लिहाज से कोई सकराकात्मक दखल नहीं दिया गया। न ही इस बारे में कोई जागरुकता दिखाई देती है।
मुश्किल ये है कि उत्तराखंड में मानसिक सेहत मुहैया कराने का बुनियादी ढांचा ही अभी पूरी तरह तैयार नहीं है। 2019 में मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण गठित करने की स्वीकृति मिली थी लेकिन अभी तक ये प्राधिकरण पूरी तरह अस्तित्व में नहीं आया है। न ही ज़िले स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य रिव्यू बोर्ड तैयार हुए हैं।
राज्य में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं की संख्त कमी के बीच लाखों लोग स्वास्थ्य के इस महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित हैं।
लोहारी गांव से निकाले गए परिवारों के बीच खड़े होकर ये बात बेहद शिद्दत के साथ महसूस होती है।
(This reporting has done under the Essence media fellowship on mental health issues)
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