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क्यों यह कहना गलत है कि अर्थव्यवस्था के बुरे हाल के लिए सरकार नहीं सिर्फ कोरोना जिम्मेदार है?

अर्थव्यवस्था के ऐसे बुरे हाल के पीछे कोरोना का बहुत बड़ा हाथ रहा। इस तर्क से किसी को कोई परेशानी नहीं है। लेकिन इसका दोष सरकार को नहीं दिया जाना चाहिए, सरकार से सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए। यह बिल्कुल गलत है।
अर्थव्यवस्था
Image courtesy: Times of India

हमारे लोकतंत्र के बहुत सारी परेशानियों में से एक अहम परेशानी यह भी है कि इसमें संवाद बंद हो गया है। दो विपरीत मत के लोग पूरी तरह से विपरीत बात करते हुए एक दूसरे की दीवार को तोड़ने की बजाए उसे तीखा करने में लगे रहते हैं। इसकी वजह से मतों का ध्रुवीकरण बड़ी आसानी से होता रहता है।

अर्थव्यवस्था जमीन के नीचे धंस चुकी है। पिछले साल के मुकाबले इस साल की पहली तिमाही में भारत की जीडीपी -23.9 फ़ीसदी दर्ज की गई। अर्थव्यवस्था से जुड़े मैन्युफैक्चरिंग से लेकर माइनिंग तक सभी क्षेत्रों में नकारात्मक दर दर्ज की गई। अर्थव्यवस्था के ऐसे बुरे हाल के पीछे कोरोना का बहुत बड़ा हाथ रहा। इस तर्क से किसी को कोई परेशानी नहीं है।

लेकिन कुछ तर्क ऐसे भी उठ रहे हैं कि कोरोना की वजह से दुनिया की सभी अर्थव्यवस्थायें गिरी हैं। भारत एक बड़ी अर्थव्यवस्था है और अगर कोरोना की वजह से इसकी स्थिति दुनिया के दूसरे मुल्कों की अपेक्षा थोड़ी और बुरी हुई तो इसका हो हल्ला क्यों? यह तो होना तय था।

चलिए एक लिहाज से यह मान लिया जाए कि तालाबंदी की वजह से सारी दुकानें, सारे रास्ते अर्थव्यवस्था को चलाने वाले सारे तरीके बंद हो गए थे। इसलिए अर्थव्यवस्था को नापने वाले पैमानों का गिरना तय था तो इस पर भी सहमत हुआ जा सकता है।

लेकिन जब यह कहा जाए कि अर्थव्यवस्था में ऐसा होना तय था और इसका दोष सरकार को नहीं दिया जाना चाहिए। सरकार से सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए। जो सरकार पर दोष मढ़ रहे हैं, उनका मकसद सरकार के खिलाफ प्रोपेगेंडा रचना है तो तर्क की यह पद्धति पूरी तरह से गलत है।

जैसे ही तर्क पद्धति में सरकार आ जाती है वैसे यह तर्क पद्धति पूरी तरह से गलत हो जाती है। महामारी की वजह से अर्थव्यवस्था में गिरावट के एक जायज बिंदु के साथ यह नाजायज निष्कर्ष पेश किया जाता है किसके लिए सरकार को दोष नहीं दिया जाना चाहिए। अब आप पूछेंगे कि यह नाजायज क्यों हैं?

नाजायज इसलिए है क्योंकि अर्थव्यवस्था केवल महीने दो महीने की बात नहीं होती और अर्थव्यवस्था का मतलब केवल जीडीपी आंकड़े भी नहीं होते। कोशिश यह रहती है कि एक लंबे समय में एक ऐसा माहौल बने जिसमें संसाधनों का ऐसा बंटवारा हो ताकि हर एक व्यक्ति की जरूरतें पूरी हो पाए।

इसमें यह भी शामिल है कि लोगों के पास इतने संसाधन और पैसे तो हों ताकि अचानक उनके जीवन में कोई बड़ी गड़बड़ी आए तो उसको वह संभाल ले। जैसे कोरोना जैसी महामारी से मजबूरी में बंद हुए सभी कामकाज के बाद भी सभी लोग ठीक से रह पाए। ऐसा माहौल बनाने की जिम्मेदारी एक लोकतंत्र में सरकार की होती है।

माहौल ऐसा बना है जिसमें कुछ लोगों के पास इतनी संपदा है कि वह बिना काम किए सालों साल बड़े मजे से गुजार सकते हैं और बहुतेरों के पास इतनी कम संपदा है कि उन्हें हफ्ते भर काम न मिला तो अपनी जिंदगी गुजारने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। कई लोगों की नौकरियां चली गई और कई लोगों ने अपनी जान गवा दिए।

यहां पर आप यह भी सवाल पूछ सकते हैं कि जब मालिक का काम ही नहीं चल रहा हो तब तो नौकरी जाना तय है। इसमें सरकार की क्या गलती? यह सवाल भी ठीक है लेकिन पेंच यही है कि किसी देश के अंदर काम से कमाई की ऐसी प्रकृति हो जिसमें 2 महीने काम ना करने पर  मालिक यह कहकर नौकरी से निकाल दे की उसकी कमाई नहीं हो पा रही है और काम करने वाला इसलिए मुश्किल में आ जाए कि उसकी बचत इतनी नहीं है कि वह 2 महीने ठीक से जिंदगी जी पाए तो इसका साफ मतलब है कि उस देश की सरकार के अंदर चल रही अर्थव्यवस्था से बना माहौल बहुत सारे लोगों के लिए शोषणकारी माहौल है।

और यह माहौल एक बीमारी की तरह है जो किसी सरकार के अंदर बनती और चलती रहती है। इसे दूर करना भी सरकार की जिम्मेदारी है। इसलिए यह तर्क पूरी तरह से नाजायज है कि महामारी की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था गड्ढे के नीचे गई है, लोगों की नौकरियां गई हैं और लोगों को जीवन जीने के लिए मजबूरी का सामना करना पड़ा है तो इसके लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है। जबकि असल सच्चाई यह है कि इस गिरे हुए अर्थव्यवस्था में परेशान हो रहे लोगों के लिए सरकार की ही अंतिम तौर पर सबसे अधिक जिम्मेदारी है।

अब थोड़ा दूसरी तरीके से भी इसी बात को समझते हैं। अगर भारत की अर्थव्यवस्था बहुत अच्छी होती तो सरकार द्वारा दिए गए 20 लाख करोड़ रुपये की आर्थिक पैकेज का कुछ ना कुछ तो जरूर फायदा होता। 20 लाख करोड़ रुपये में से दो से तीन लाख करोड़ रुपए सीधे लोगों तक पहुंचाए गए होंगे और 18 लाख करोड़ रुपये लोन मेला के तौर पर बांट दिया गया।

इस लोन मेला का फायदा भारत की अर्थव्यवस्था को तभी पहुंचता जब सबके पास इतनी क्षमता होती कि वह लोन लेने के लिए खुद को तैयार कर पाए। लोगों ने लोन भी नहीं लिया। इसका मतलब यह है कि एक तो महामारी और ऊपर से महामारी के अंदर रह रहे लोगों की ऐसी दशा कि उन्हें उबारने के लिए जो कोशिश की गई वह भी पूरी तरह से फेल हो गई। अगर यह बात है तो सरकार को दोष क्यों न दिया जाए?

जीडीपी के आंकड़े ही बता रहे हैं कि कृषि की स्थिति अच्छी रही है। लेकिन इसका मतलब क्या क्या कृषि की स्थिति अच्छी हो गई? अगर इन्हीं आंकड़ों की व्याख्या करें तो निष्कर्ष यह निकलता है कि इस तिमाही में एक किसान ने जितना कमाया उससे अधिक खर्च किया। वरिष्ठ पत्रकार अनिंदो चक्रवर्ती क्विंट के अपने आर्टिकल मे इस बात को एक उदाहरण से समझाते हैं। मान लीजिए कि एक औसत किसान ने साल 2019 के इसी तिमाही में ₹10000 कमाया था। साल 2020 के आंकड़े यह कहते हैं कि किसानी में इस साल की कीमत की आधार पर 5.7 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है। तो इसका मतलब है कि किसान ने इस तिमाही में ₹10570 कमाया होगा। लेकिन इसके साथ महंगाई में दर पिछले साल की अपेक्षा 8 .1 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है। यानी ₹10000 की वास्तविक कीमत इस साल ₹10810 हो गई। यानी किसान को पिछले साल जितना सामान खरीदने के लिए अभी भी इस साल की तिमाही में ₹10570 की हुई कमाई से ₹240 अधिक खर्च करने पड़ेंगे। जिसका साफ मतलब है कि पूरा दोष केवल करो ना महामारी पर नहीं दिया जा सकता है। अर्थव्यवस्था  की इस तरह का शोषणकारी माहौल बनाने में सरकार का भी हाथ है।

अर्थशास्त्री जॉयदीप बरुआ स्क्रॉल पर लिखते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था साल 2016-17 से हर तिमाही में गिरते आ रही है। सरकार ने पैमाने बदलकर आंकड़ों का कुछ हेरफेर किया फिर भी अगर देखा जाए तो साल 2018 की हर तिमाही के बाद से लेकर अब तक की हर तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट आई है।

साल 2018-19 के पहले तिमाही में भारत की अर्थव्यवस्था में जीडीपी ग्रोथ रेट 8.2 फ़ीसदी थी। तब से हर तिमाही में कम होते हुए साल 2019 के पहले तिमाही में भारत की जीडीपी 3.2 फ़ीसदी रह गई। जबकि तब भी ऐसे तमाम खबर आ रहे थे जो यह बता रहे थे कि आंकड़ों में हेरफेर कर भारत की अर्थव्यवस्था की सही तस्वीर नहीं बताई जा रही है।

भारत के पूर्व चीफ इकोनामिक एडवाइजर अरविंद्र सुब्रमण्यम ने तो बाकायदा इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिखकर यह बताया था कि भारत की अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में गिरावट है और स्थिति सरकार द्वारा बताए जगह रहे आंकड़ों से भी बहुत अधिक बदतर है। बहुत सारे अर्थशास्त्री तभी कह रहे थे कि भारत की अर्थव्यवस्था कॉन्ट्रक्शन के दौर में पहुंचना निश्चित है। अगर भारत की अर्थव्यवस्था पहले से मजबूत होती तो भारत को कारोना जैसी बड़ी परेशानी में मजबूती से खड़ा रह पाती।

अगर भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से करोना में रह गई है तो इसका दोष सरकार को क्यों ना दिया जाए? क्यों ना यह कहा जाए कि भारत के मौजूदा चीफ इकोनामिक एडवाइजर पूरी तरह से गलत हैं कि भारत के लोगों की बदहाली का सारा जिम्मा corona का है।

ऐसे तमाम तर्क हैं जो यह साबित करते हैं कि अर्थव्यवस्था के बुरी हालत के लिए सरकार का पल्ला झाड़ना पूरी तरह से गलत है। लेकिन फिर भी जो असली सवाल है वह यह है कि क्या भारतीय समाज अर्थव्यवस्था के एक ऐसे मॉडल में पल बढ़ रहा है कि वह सबको गरिमा पूर्ण जिंदगी दे पाए? क्या सरकार का कर्तव्य केवल इतना है कि वह खाद्य वितरण प्रणाली के जरिए लोगों तक 2 जून की रोटी पहुंचा कर अपने कामों से पल्ला झाड़ ले?

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