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चीते तो आएंगे, लेकिन घास के मैदान कहां से लाएंगे?

चीते को भारत लाने का पहला प्रयास अगस्त से शुरू हुआ है। लेकिन, भारत में विलुप्त हो चुका यह फुर्तीला जीव जो अफ़्रीक़ा के घास वाले चरागाहों में पाया जाता है, यहां आबाद हो सकेगा?
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तस्वीर साभार: अफ़्रीक़ा के एक देश मलावी के पर्यटन मंत्रालय की साइट से।

सात दशक पहले भारत में पूरी तरह विलुप्त हो चुके चीते को वापस लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। यदि प्रयास सफल रहा तो आने वाले दिनों में चीते भारतीय धरती पर पैर रखेंगे, लेकिन सवाल है कि क्या वे यहां अच्छी तरह से बस पाएंगे? यदि हां तो कैसे? इसका तर्कपूर्ण जवाब अभी किसी ने नहीं दिया है। हमारे देश में घास के चरागाहों की कमी, मानव-वन्यजीवों के बीच बढ़ता संघर्ष और चीतों के लिए भोजन की अनुपलब्धता जैसे कारणों के चलते इस दिशा में कई स्तरों पर चुनौतीपूर्ण स्थितियां बनी हुई हैं।

चीते को भारत लाने और बसाने का विचार वर्ष 2009 में सामने आया था। लेकिन, वन्यजीव क्षेत्र के कई जानकारों का मत था कि जानवरों के लिए नए और पूरी तरह से अलग आवासों में बसने की संभावना कम होती है। इसलिए, सोचा गया कि यदि चीते को भारत में लाया जाए तो कहां से लाया जाए और कहां रखा जाए। इन्हीं विमर्शों के बीच भारत का अपनी देश की धरती पर चीतों को लाने का सपना उस समय साकार नहीं हो सका था। लेकिन, लगभग एक दशक बीत जाने के बाद नवंबर, 2021 में चीते को भारत लाने के अभियान ने एक बार फिर इस दिशा में गति पकड़ी है।

इस अभियान की पृष्ठभूमि में जाएं तो पांच साल पहले इस तरह का प्रयोग सफल सिद्ध हो चुका है। बता दें कि अफ्रीका महाद्वीप के देशों में चीतों को लाकर उन्हें संरक्षित करने का प्रयोग किया जाता था। पूर्वी अफ्रीकी देश मलावी में 1980 के दशक के अंत तक चीता विलुप्त हो गया था। लेकिन, फिर वर्ष 2017 में दक्षिण अफ्रीका से चार चीतों को मलावी में लाया गया था। अब वहां 24 चीते हैं। इसी प्रयोग से प्रेरित होकर चीतों को अफ्रीका महाद्वीप से भारत लाने का निर्णय लिया गया है।

भारत में चीता संरक्षण के लिए कई जगहों का चयन किया गया है। पहले चरण में आठ चीतों को कुनो राष्ट्रीय उद्यान में लाया जाएगा, जो कि मध्य-प्रदेश में मिश्रित वन और घास के मैदान के 730 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इसके बाद अगले चरण में मध्य-प्रदेश के नौरादेही वन्यजीव अभयारण्य और राजस्थान के जैसलमेर जिले के शाहगंज में भी चीतों को लाया जाएगा। इसका उद्देश्य सुरक्षित आवासों में चीतों का प्रजनन और चीतों के उचित प्रबंधन के माध्यम से उनकी संख्या में वृद्धि करना है।

चीतों को पांच साल के लिए दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया और अन्य अफ्रीकी देशों से भारत में आयात किया जाएगा। चीता संरक्षण के लिए बनाई गई कार्य-योजना में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि वे इस अवधि के दौरान जीवित रहने या प्रजनन करने में विफल रहते हैं तो ऐसी स्थिति में एक वैकल्पिक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा, या फिर पूरे कार्यक्रम की ही समीक्षा की जा सकती है। यदि लगा कि कार्यक्रम बंद किया जा सकता है तो कार्यक्रम को बंद कर दिया जाएगा। इनमें से प्रत्येक चीते में जीपीएस संबंधित 'हाई फ्रीक्वेंसी रेडियो कॉलर' लगे होंगे।

इन चीतों को आठ हजार 405 किलोमीटर का सफर तय करके व्यावसायिक या निजी विमान के जरिये अफ्रीका से भारत लाया जाएगा। इससे पहले वर्ष 1970 के आसपास ईरान से एशियाई चीतों को भारत लाने का प्रयास किया गया था, लेकिन ईरान से लाये गए चीतों के लिए भारत की जलवायु अनुकूल न होने के कारण तब प्रयोग विफल हो गया। उसके बाद वर्ष 2000 में हैदराबाद में 'सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी' ने ईरान से एशियाई चीतों का क्लोन बनाने का प्रस्ताव रखा, लेकिन यह प्रस्ताव भी असफल रहा। फिर केंद्र सरकार के निर्देश पर वर्ष 2009 में देहरादून में 'इंडियन वाइल्ड लाइफ सोसाइटी' और 'वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया' ने चीते को अफ्रीका से भारत लाने का प्रस्ताव तैयार किया। इस तरह, एक दशक बाद एक बार फिर भारत में चीतों को लाने का रास्ता साफ हुआ है।

हालांकि, वर्ष 2009 में भी चीता आयात करने से संबंधित फैसले का विरोध किया गया था और वर्ष 2012 में यह विवाद सुप्रीम-कोर्ट तक पहुंच गया था। फिर वर्ष 2020 में सुप्रीम-कोर्ट ने केंद्र सरकार को विदेश से चीते भारत में लाने की इजाजत दे दी। अब सारी कागजी कार्रवाई पूरी हो चुकी है। लेकिन, मुश्किल यह है कि अभी भी चीतों के संरक्षण और पुनर्वास को लेकर संदेह बना हुआ है।

संदेह की वजह यह है कि कई वन्यजीवों और पक्षी जिनका निवास-स्थान घास के मैदान हैं, ये घास के मैदान भारत से गायब हो गए हैं। वहीं, कई विशेषज्ञों का आरोप है कि वन्यजीवों और पक्षियों के संरक्षण या पुनर्वास को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता है। यही वजह है कि ऐसे में जहां चीतों के पुनर्वास को लेकर खुशी जाहिर की जा रही है तो वहीं इसके बंदोबस्त पर भी सवालिया निशान लग रहे हैं।

दलील दी जा रही है कि विकास परियोजनाओं के कारण भारत में घास के मैदान गायब हो गए हैं। ऐसे में पूछा यह जा रहा है कि घास के बड़े मैदानों के बिना चीतों के संरक्षण और पुनर्वास की योजना कैसे संचालित की जा सकती है। यदि इस दौरान चीते मरते हैं तो सीधे तौर पर इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा। हालांकि, कहा यह भी जा रहा है कि भारत में चीतों का संरक्षण और पुनर्वास उसी क्षेत्र में किया जाएगा जहां वे एक समय भारत में रहते थे। लेकिन, इन क्षेत्रों में मुगल और साथ ही ब्रिटिश-काल के दौरान बड़े पैमाने पर अवैध शिकार के कारण भारत से चीते विलुप्त हो गए थे।

अतीत में मुगल बादशाह चीतों को पाला करते थे। ऐसा वे काले हिरण के शिकार के लिए करते थे। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1900 के बाद से भारत में चीतों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। आजादी के बाद वर्ष 1948 में वर्तमान छत्तीसगढ़ के पूर्व महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने भारत में अंतिम तीन एशियाई चीतों का शिकार किया था। इस प्रकार से भारत में चीते पूरी तरह विलुप्त हो गए। अब इस पृष्ठभूमि में यह देखने की उत्सुकता है कि क्या विदेशों से लाए गए चीते भारत में जीवित रहेंगे और फिर क्या उनकी जनसंख्या में वृद्धि होगी और भारत में एक बार फिर से चीतों की दहाड़ सुनाई देगी।

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