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चुनावी संदेश: सिर्फ़ हिंदुत्व की राजनीति को रोकने से ही कामयाब होगा विपक्ष

यह साफ है कि सॉफ्ट हिंदुत्व का इस्तेमाल करना या चुनाव में हार का डर भाजपा के प्रतिद्वंद्वियों की सफलता सुनिश्चित नहीं कर सकता है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। | फ़ोटो साभार: The Wire

भारतीय जनता पार्टी की गुजरात में अभूतपूर्व जीत, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की चेहरा बचाने वाली जीत, और दिल्ली नगर निगम के चुनावों में आम आदमी पार्टी की जीत के साथ-साथ कई उपचुनाव से चार सुझाव निकल कर आते हैं, जो 2024 के लोकसभा चुनावों की लड़ाई को आकार दे सकते हैं। ये कारक हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सर्वोपरिता, भाजपा के वोट-बैंक का अत्यधिक लचीलापन, जिसे सॉफ्ट हिंदुत्व नहीं तोड़ सकता है, और न ही विपक्ष, विशेष रूप से कांग्रेस में चुनाव का डर इसे हरा सकता है।

पहला, विपक्ष का कोई भी नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और करिश्मे की बराबरी नहीं कर सकता है। यह जानते हुए कि भारत में चुनाव तेजी से राष्ट्रपति प्रकृति के बनते जा रहे हैं, मोदी ने भाजपा को एक बढ़त दिलवाई है जिससे उसके प्रतिद्वंद्वी को इस बढ़त को कुंद करना मुश्किल हो रहा है। यह वह कारक है जिसने 2014 और 2019 में भाजपा के अभियान की अगुवाई की थी, जो हिंदुत्व और विकास का एक संयोजन होगा, एक ऐसा शब्द जिसके विभिन्न वर्गों के लिए अलग-अलग अर्थ हैं।

विपक्ष अभी भी उच्च मुद्रास्फीति दर, सिकुड़ते नौकरी बाजार और तेजी से घटते जीवन स्तर की बात करता है। कई लोगों के लिए, हालांकि, विकास मोदी द्वारा किए जा रहे कल्याणकारी उपाए है, इसमें कोई संदेह नहीं है कि पिछली व्यवस्थाओं के मौजूदा मॉडल को ही यहां उधार लिया गया है, लेकिन यह मिथक बनाया गया कि उनकी शासन शैली अद्वितीय है। मोदी सरकार ने प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करते हुए एक बेहतर वितरण तंत्र विकसित किया है।

फिर भी, यह सब नागरिकों को राज्य से अलग खुद के जीवन में सुधार करने की ओर नहीं ले जाता है। वास्तव में, वे राज्य पर और भी अधिक निर्भर हो रहे हैं। और निर्भरता कृतज्ञता को जन्म देती है।

कुछ लोगों के लिए, विकास का मतलब बड़े और तेज़ राजमार्गों से है, ज़रूरी नहीं कि बेहतर स्वास्थ्य सेवा या शिक्षा का बुनियादी ढाँचा हो – उस पर भारत को महान बनाने का लगातार वादा किया जाता है। भारत की महानता का गाना और गहराएगा क्योंकि भाजपा भारत के जी-20 नेतृत्व का इस्तेमाल मोदी को विश्व नेताओं में अग्रणी नेता के रूप में चित्रित करने के लिए करेगी। यह एक पहेली है कि दुनिया भर में भारत के बढ़ते स्टॉक में नागरिक अपने लिए क्या लाभ देखते हैं, यह कल्पना है या वास्तविक। शायद क्रिकेट के मैदान में भारत के कारनामों को देखकर उन्हें जो गर्व महसूस होता है, वह उनके उत्साह से मेल खाता है।

हिंदुत्व की धधकती आग, लोगों को मोदी की विफलता से अंधा कर देती है। हिंदुत्व पूरे साल मुखर रहता है, हर चुनाव से ठीक पहले नहीं। तरीका अब आठ साल पुराना है-मुसलमानों को निशाना बनाना, मस्जिद-मंदिर के मुद्दों को उठाना, पुराने समय के मुस्लिम शासकों को राक्षसरूपी करार देना, मुस्लिम पर्सनल लॉ पर सवाल उठाना, अंतर-धार्मिक जोड़ों को परेशान करना, उनके खिलाफ हिंसा की धमकी देने वाली बेतरतीब टिप्पणियां, रैलियों के सामने  बुलडोजर खड़ा करना आदि इसमें शामिल है। 

या, जैसा कि गृह मंत्री अमित शाह ने गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले कहा था कि उन्होने 2002 के गुजरात दंगों के दौरान "दंगाइयों" (मुसलमान पढ़ें) को कैसे सबक सिखाया गया था, जो समुदाय पीड़ित था और उसे राज्य सरकार द्वारा छोड़ दिया गया था। या उन लोगों को रिहा किया गया जिन्होंने एक मुस्लिम महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया और उसके परिवार के सदस्यों को मार डाला, जैसा कि बिलकिस बानो मामले में हुआ था। और फिर, चुनाव परिणाम घोषित होने और भाजपा की जीत के बाद, इसका श्रेय मोदी के विकास के दृष्टिकोण को दिया जाता है। 

पक्का हिन्दू वोट बैंक

दूसरा, हिंदुत्व, विकास के बजाय, यह सुनिश्चित करता है कि भाजपा के वोट-बैंक को अपूरणीय क्षति न पहुंचे। 15 साल तक इस पर नियंत्रण रखने के बाद वह दिल्ली में एमसीडी चुनाव हार गई, लेकिन उसका वोट-शेयर 36.08 प्रतिशत से बढ़कर 39.09 प्रतिशत हो गया है। हिमाचल प्रदेश में कांटे की टक्कर में, जहां कांग्रेस ने 35 के बहुमत के निशान से चार अधिक सीटें जीतीं, भाजपा का वोट-शेयर कांग्रेस से सिर्फ 0.9 प्रतिशत कम था। अगर आम आदमी पार्टी  ने हिमाचल प्रदेश का दामन नहीं छोड़ा होता तो शायद कांग्रेस लड़खड़ा जाती। गुजरात में, भाजपा ने कांग्रेस के पिछले रिकॉर्ड को तोड़ दिया, जिसने 1985 में 149 सीटें हासिल कीं थी और 52.5 प्रतिशत वोट हासिल किए थे, जो कि कई निर्वाचन क्षेत्रों में त्रिकोणीय लड़ाई वाले राज्य में एक आश्चर्यजनक उपलब्धि थी।

चूँकि किसी भी दल के द्वारा भाजपा के वोट-बैंक में पर्याप्त सेंध लगाने की संभावना बहुत कम है, इसलिए विपक्ष को यह सुनिश्चित करना होगा कि गैर-भाजपा वोटों में दरार न आए।

लेकिन विपक्षी दलों का आपस में लड़ने का लंबा इतिहास रहा है। उदाहरण के लिए, क्या आप और कांग्रेस के बीच दिल्ली में गठबंधन करना संभव है? यह पूछा जा सकता है कि आप कांग्रेस को तीन सीटें क्यों दें? जवाब: आप को दिल्ली में लोकसभा की एक भी सीट जीतनी बाकी है। क्या कांग्रेस यह दावा करेगी कि वह एक राष्ट्रीय पार्टी है और चार से कम सीटों से संतुष्ट नहीं हो सकती है? इसके विपरीत, क्या कांग्रेस आप को गुजरात में साथ ला सकती है, जहां उसके नेता अरविंद केजरीवाल भी लोकसभा चुनाव में अपना भाग्य आजमाना चाहेंगे?

विपक्ष नारकीय रूप से खंडित है। बिहार में कुरहानी विधानसभा सीट पर उपचुनाव जनता दल (यू) और राष्ट्रीय जनता दल ने साथ मिलकर लड़ा था। फिर भी जद (यू) 3,649 वोटों से हार गई, जबकि विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) ने 10,000 वोट छीने। क्या जद(यू)-राजद को वीआईपी को अपने साथ नहीं लेना चाहिए, भले ही वह जीत से अधिक सीटों की मांग कर सकता है? खतौली विधानसभा उपचुनाव लड़ने के लिए एक बार फिर राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी पार्टी साथ आए। रालोद ने 22,143 मतों से सीट जीती। यदि बहुजन समाज पार्टी मैदान में होती, तो संभावना थी कि यह भाजपा के मुक़ाबले बड़े पैमाने पर दलित वोटों को लिया होता, क्योंकि वे आम तौर पर सपा और रालोद को वोट देने के लिए अनिच्छुक होते हैं।

चुनावी गणित की पेचीदगियों को समझने के लिए विपक्ष के पास सिर्फ 14 महीने बचे हैं। 

सॉफ्ट हिंदुत्व इसका कोई जवाब नहीं है

अपने वोट-शेयर को बनाए रखने की भाजपा की क्षमता इस विश्वास को झुठलाती है कि सॉफ्ट  हिंदुत्व, हिंदुत्व का जवाब हो सकता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप नेता अरविंद केजरीवाल ने पिछले तीन वर्षों में भाजपा द्वारा मुसलमानों को आदतन प्रताड़ित किए जाने पर चुप्पी साधे रखी, उन्हें डर था कि वह हिंदू वोट खो देंगे। उसी समय, उन्होंने अपनी हिंदू पहचान का ढिंढोरा पीटा, यह विश्वास जताते हुए कि हिंदुत्व के मतदाता भाजपा को छोड़ देंगे। उन्होंने 2020 के दंगों से प्रभावित वार्डों में और उन क्षेत्रों में भी कई सीटों को खो दिया, जो नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ लंबे समय तक विरोध करते रहे। अपने तमाम हथकंडों से बीजेपी ने अपना वोट बैंक बढ़ाया। 

लेकिन वे अकेले ऐसे नेता नहीं हैं जिन्होंने सॉफ्ट हिंदुत्व कार्ड खेलने की कोशिश की है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने खुद को जनेऊ वाले शिव भक्त होने का दावा किया और विशेष रूप से 2017 के गुजरात चुनाव से पहले एक मंदिर से दूसरे मंदिर जाते रहे। कांग्रेस ने 2012 में 61 सीटों की तुलना में 77 सीटों पर जीत हासिल की थी और उसे 41.44 प्रतिशत वोट मिले थे, जो 2012 की तुलना में सिर्फ 2.51 प्रतिशत अधिक थे। 2012 में 47.85 प्रतिशत से 2017 में 49.05 प्रतिशत। मध्य प्रदेश में, कांग्रेस के दिग्गज कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने नव-धर्मांतरितों के उत्साह के साथ नरम हिंदुत्व कार्ड खेला। उन्होंने राज्य को इतने कम मार्जन से जीता था कि कमलनाथ के मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही इसके पतन की उलटी गिनती शुरू हो गई थी।

डर 

तीसरा, विपक्ष खुद इस बात से सहमत नहीं है कि वह भाजपा को हरा सकता है। इस तथ्य को राहुल गांधी खुद सशक्त बनाते हैं, जिन्होंने हिंदुत्व कार्ड को रद्द करने में बड़ी देर लगाई और मोदी की ध्रुवीकरण की राजनीति को चुनौती देने, एक सामाजिक समूह को दूसरे के खिलाफ खड़ा करने के अपने स्पष्ट संदेश के साथ भारत जोड़ो यात्रा शुरू की है। राहुल का यह एक उल्लेखनीय प्रयास रहा है। इसने निश्चित रूप से उनकी छवि बदल दी है।

फिर भी उन्हें चुनाव हारने के अपने डर को त्यागना होगा, जो गुजरात विधानसभा चुनावों को नजरअंदाज करने के उनके फैसले से स्पष्ट है। क्या वह पोरबंदर से अपनी यात्रा शुरू नहीं कर सकते थे, जहां महात्मा गांधी का जन्म हुआ था और जिन्होंने अभिजात वर्ग की पार्टी को जनता की पार्टी में बदल दिया था? ऐसा कहा जाता है कि वह यात्रा को चुनावों से अलग करना चाहते थे, शायद यह सोचकर कि एक हार उस संदेश को कमजोर कर देगी जो वह देना चाहते थे। लेकिन कांग्रेस की हार से यह संदेश कमजोर पड़ गया है.

यात्रा का रूट राहुल के डर की गवाही देता है. उन्होंने केरल में 18 दिन बिताए, जहां बीजेपी के पास अब तक जीतने का कोई मौका नहीं है। केरल या तो कांग्रेस के साथ जाता है या वाम दलों के साथ, जो त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में भाजपा का समर्थन नहीं करेंगे। इसके विपरीत, उन्होंने मध्य प्रदेश में सिर्फ 12 दिन बिताए, जहां इसकी राजनीतिक द्विध्रुवीयता कांग्रेस को मौका देती है। निश्चित रूप से, कांग्रेस संभावित सहयोगियों की कीमत पर अपनी सीटों की संख्या और वोट-शेयर को बढ़ाना चाह सकती है। लेकिन इससे विपक्ष के भाजपा से मुकाबला करने के लिए गठबंधन बनाने की संभावना कम हो जाती है, जिसके वोट-शेयर में ज़्यादा गिरावट नहीं देखी गई है।

राहुल गांधी भले ही चलते रहें, लेकिन उनका लाभ तब तक सीमित रहेगा जब तक कि उनकी पार्टी एक मजबूत संगठन नहीं बनाती है, जिसके सदस्य 2024 के चुनाव तक दिन-रात पसीना बहाते हों। ठीक यही काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समर्थित भाजपा करती है। लेखक-कार्यकर्ता अच्युत याग्निक ने इस लेखक को दिए एक साक्षात्कार में गुजरात में सेवादल की अदृश्यता की ओर इशारा किया था। सेवा दल को कांग्रेस के लिए काम करना चाहिए क्योंकि संघ के कार्यकर्ता भाजपा के लिए काम करते हैं। राहुल के प्रयास से 2024 के बाद दीर्घावधि में लाभ मिलेगा, लेकिन फिर, जैसा कि कीन्स ने कहा, "लंबे समय में हम सभी मर चुके होंगे।"

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Election Message: Opposition Alliance Only Check on Hindutva’s Expansion

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