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उभर रही है नई विश्व अर्थव्यवस्था

सबसे दिलचस्प और शायद सबसे अधिक संभावना इस बात की है कि चीन और सभी ब्रिक्स राष्ट्रों का समूह एक नई विश्व अर्थव्यवस्था के निर्माण और उसके रखरखाव का काम करेगा।
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उभरती नई व्यवस्था हमेशा पुरानी के भीतर खौफ़ पैदा करती है और उसे प्रेरित भी करती है। इतिहास विपरीतताओं की एकता है। जो नया है, उसकी तीव्र अस्वीकृति खुद ही इसके उत्साहपूर्ण उत्सवों के साथ टकराती है। उभरती हक़ीक़त के मद्देनज़र पुरानी व्यवस्था को दूर धकेल दिया जाता है। उभरती नई विश्व अर्थव्यवस्था ऐसे ही विरोधाभासों से भरी हुई है। चार प्रमुख घटनाक्रम ऐसे हैं जो उनकी परस्पर क्रिया को रेखांकित करते हैं।

पहला, नवउदारवादी वैश्वीकरण का रास्ता अब पुराना हो चला है। आर्थिक राष्ट्रवाद नया सगुफा है। यह पिछली व्यवस्था का ही एक नया उलटफेर है। पूंजीवाद ने ऊंचे लाभ कमाने के मक़सद से अपने पुराने केंद्रों (पश्चिमी यूरोप, उत्तरी अमेरिका और जापान) के मुक़ाबले, तेजी उन जगहों पर निवेश किया: जहां श्रमबल बहुत सस्ता था; बाजार तेजी विकसित हो रहे थे; पारिस्थितिक बाधाएँ कमजोर या अनुपस्थित थीं; और सरकारों ने पूंजी के तेजी से संचयन को बेहतर सुविधा प्रदान की थी। इन निवेशों के ज़रिए पूंजीवाद अपने पुराने केंद्रों में बड़ा मुनाफा वापस ला रहा था, जिससे इनके शेयर बाजारों में उछाल आया और इस तरह उनकी आय और संपत्ति की असमानताएं चौड़ी हो गईं (चूंकि सबसे अमीर अमेरिकियों के पास बड़ी मात्रा में प्रतिभूतियां इकट्ठी हो गई थी)।

1960 के दशक के बाद आर्थिक विकास और भी तेजी से हुआ, और पूंजीवाद के नए बड़े केंद्र (चीन, भारत और ब्राजील) बन गए। पुराने केंद्रों से आई पूंजी इन बाज़ारों में तेजी आई और काफी अधिक वृद्धि हुई। पूंजीवाद की गतिशीलता ने पहले अपने उत्पादन को इंग्लैंड से यूरोपीय महाद्वीप में स्थानांतरित किया था और फिर उत्तरी अमेरिका और जापान में स्थानांतरित कर दिया था। पूंजीवाद की लाभ की भूखी गतिशीलता 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत के दौरान इसे एशिया और उसके पार ले गई। 

सिद्धांत और व्यवहार दोनों में, नवउदारवादी वैश्वीकरण ने पूंजीवाद द्वारा नए बाज़ार में प्रवेश करने को उचित ठहराया। इसने, दुनिया भर में निजी और राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों दोनों के लिए मुनाफ़ा कमाया और इनका बड़ा विकास किया। लेकिन इस प्रक्रिया ने वैश्वीकरण के अन्य पहलुओं को कम करके आंका या अनदेखा किया: जिसमें इस कारण (1) अधिकांश देशों के भीतर आय बढ़ी लेकिन धन की असमानता भी बढ़ी; (2) उत्पादन, पूंजीवाद के पुराने केंद्रों से नए केंद्रों में आ गया; और (3) पुराने केंद्रों की तुलना में नए केंद्रों में उत्पादन और बाजारों में तेज वृद्धि हुई। इन बदलावों ने पुराने केंद्रों के समाजों को हिलाकर रख दिया। वहाँ मध्य वर्ग कम होता गया और सिकुड़ता गया, क्योंकि अच्छी नौकरियाँ तेजी से पूँजीवाद के नए केंद्रों में चली गईं। पुराने केंद्रों के नियोक्ता वर्ग ने अपनी सामाजिक स्थिति को बनाए रखने के लिए अपनी शक्ति और धन का इस्तेमाल किया। वास्तव में, वे नए केंद्रों से मिलने वाले अधिक मुनाफे से अमीर हो रहे थे। 

हालाँकि, पूंजीवाद के पुराने केंद्रों में अधिकतर कर्मचारियों के लिए नवउदारवादी वैश्वीकरण विनाशकारी साबित हुआ। क्योंकि इन पुराने केन्द्रों के मालिकों/नियोक्ता न केवल बढ़ते मुनाफे को हड़प लिया, बल्कि कर्मचारियों की कीमत पट पूंजीवाद के पुराने केंद्रों के पतन की लागत को भी वसूल कर लिया था। व्यापार और अमीरों के कर में कटौती की गई, वास्तविक मजदूरी या तो घटी या ठहर गई(जो इमिग्रेशन के कारण भी हुआ), सार्वजनिक सेवाओं में "ख़र्च" में कटौती की जाने लगी, और बुनियादी ढांचे की उपेक्षा ने व्यापक असमानता पैदा की।

पूंजीवादी पश्चिम का मजदूर वर्ग इस भ्रम में था कि नवउदारवादी वैश्वीकरण उनके लिए भी लाभदायक होगा। पूरे यू.एस. में बढ़ते मजदूर आंदोलन, जैसे फ्रांस और ग्रीस में बड़े पैमाने पर विद्रोह प्रदर्शन हो रहे हैं और वैश्विक दक्षिण में वाम राजनीति की तरफ झुकाव ने  नवउदारवादी वैश्वीकरण और इसके राजनीतिक और वैचारिक नेताओं के प्रति एक अस्वीकृति का माहौल तैयार किया। इसके अलावा, पूंजीवाद को ही हिलाया जा रहा है, उस पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं और उसे चुनौती दी जा रही है। नए-नए तरीकों के माध्यम से पूंजीवाद से परे जाने की परियोजनाएँ फिर से ऐतिहासिक एजेंडे पर हैं, जबकि यथास्थिति के अन्यथा ढोंग करने के प्रयासों के बावजूद यह प्रक्रिया जारी है।

दूसरा, हाल के दशकों में, नवउदारवादी वैश्वीकरण की तीव्र होती समस्याओं ने पूंजीवाद को सम्झौता/समायोजन करने पर मजबूर किया है। जैसा कि नवउदारवादी वैश्वीकरण ने पूंजीवाद के पुराने केंद्रों में जन समर्थन खो दिया, सरकारों ने अपनी ताक़तों को मजबूत किया और पूंजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए और अधिक आर्थिक हस्तक्षेप किए। संक्षेप में, नवउदारवाद का स्थान अब आर्थिक राष्ट्रवाद ने ले लिया है। नए केंद्रों का नुस्खा एक ऐसी प्रणाली बनाना था जिसमें निजी उद्यमों का एक बड़ा क्षेत्र (निजी व्यक्तियों द्वारा स्वामित्व और संचालित) राज्य के स्वामित्व वाले और उसके अधिकारियों द्वारा संचालित राज्य उद्यमों के एक बड़े क्षेत्र के साथ सह-अस्तित्व में आ जाए। ज्यादातर निजी पूंजीवादी व्यवस्था (जैसे कि यू.एस. या यूके) या ज्यादातर राज्य पूंजीवादी व्यवस्था (यूएसएसआर की तरह) के बजाय, चीन और भारत जैसी जगहों ने हाइब्रिड व्यवस्था का निर्माण किया। मजबूत राष्ट्रीय सरकारों ने आर्थिक विकास को बढ़ाने लिए सह-अस्तित्व वाले बड़े निजी और राज्य उद्यमों को बढ़ाव दिया। 

निजी और राज्य उद्यम दोनों का अपसी सह-अस्तित्व "पूंजीवादी" लेबल के लायक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि दोनों ही नियोक्ताओं और कर्मचारियों के संबंधों के इर्द-गिर्द व्यवस्थित होते हैं। निजी और राज्य उद्यमों/प्रणालियों दोनों में, नियोक्ता का छोटा सा वर्ग कर्मचारियोन के बड़े हिस्से पर हावी होता है और उन्हे नियंत्रित करता है। आखिरकार, गुलामी भी अक्सर सह-अस्तित्व वाले निजी और राज्य उद्यमों को प्रदर्शित करती है जो परिभाषित मास्टर-गुलाम संबंध को साझा करते हैं। इसी तरह, सामंतवाद में निजी और राजकीय उद्यम स्वामी-दास संबंध वाले थे।

पूंजीवाद नदारद नहीं होता है सिर्फ रूप बदलता है। अब यह नियोक्ता-कर्मचारी संबंध के आसपास संगठित निजी और राज्य उद्यमों में प्रदर्शित हो रहा है। इस प्रकार, हम राज्य पूंजीवाद को समाजवाद से नहीं जोड़ सकते हैं। उत्तरार्द्ध में, एक अलग, गैर-पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली कार्यस्थलों के नियोक्ता-कर्मचारी संगठन, एक लोकतांत्रिक कार्यस्थल सामुदायिक संगठन के पक्ष में कर्मचारी सहकारी समितियों के रूप में विस्थापित करती है। उस अर्थ में समाजवाद के प्रति बदलाव भी आज एक नई विश्व अर्थव्यवस्था के गठन के आस-पास उथल-पुथल का एक संभावित परिणाम है।

चीन में राज्य-निजी हाइब्रिड का संगम उल्लेखनीय रूप से उच्च और स्थायी जीडीपी और वास्तविक-मजदूरी विकास दर हासिल कर रहा है जो पिछले 30 वर्षों से जारी है। यह सफलता हर जगह आर्थिक राष्ट्रवाद को एक मॉडल के रूप में पेश करती है। अमेरिका में भी, चीन के साथ प्रतिस्पर्धा बड़े पैमाने पर सरकारी हस्तक्षेप का बहाना बन जाती है। टैरिफ युद्ध- जिसने घरेलू करों को बढ़ाया - राजनेताओं ने इसका बड़े जोश के साथ समर्थन किया गया जो अन्यथा अहस्तक्षेप विचारधारा वाले नेता थे। यही बात सरकार द्वारा संचालित व्यापार युद्धों पर लागू होती है, सजा देने या उन पर प्रतिबंध लगाने के लिए सरकार विशिष्ट निगमों को लक्षित करती है, पूरे उद्योगों को सरकारी सब्सिडी देने के साथ, चीन विरोधी आर्थिक चालें भी इसमें शामिल हैं। 

तीसरा, हाल के दशकों में, यू.एस. साम्राज्य चरम पर था लेकिन अब उसका पतन शुरू हो गया है। इस प्रकार यह हर दूसरे साम्राज्य (ग्रीक, रोमन, फ़ारसी और ब्रिटिश) के जन्म, विकास, पतन और मृत्यु के क्लासिक पैटर्न पर जा रहा है। पिछली शताब्दी में और विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी साम्राज्य ब्रिटिश साम्राज्य से उभरा था और उसकी जगह ले ली थी। इससे पहले, 1776 में और फिर 1812 में, ब्रिटिश साम्राज्य ने एक स्वतंत्र अमेरिका  पूंजीवाद को विकसित होने से रोकने के लिए सेना का सहारा लिया था और असफल रहा था। उन विफलताओं के बाद, ब्रिटेन ने अमेरिका के साथ अपने संबंधों में एक अलग रास्ता अपनाया था। अपने उपनिवेशों में कई और युद्धों के बाद और 19वीं और 20वीं शताब्दियों में प्रतिस्पर्धी उपनिवेशवाद के कारण, ब्रिटेन साम्राज्य अब खत्म की तरफ था। 

सवाल यह है कि क्या अमेरिका ने ब्रिटेन के साम्राज्यवादी पतन से कोई सबक सीखा है या सीख भी सकता है। या क्या यह अपनी वैश्विक दादागिरी को बनाए रखने के लिए सैन्य साधनों की आजमाइश करता रहेगा, जो साधन लगातार और खतरनाक रूप से घटते जा रहे है? आखिरकार, कोरिया, वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक में अमेरिकी युद्ध हार गए थे।  अब चीन ने मध्य पूर्व में प्रमुख शांतिदूत की जगह अमेरिका से छीन ली है। सर्वोच्च वैश्विक मुद्रा के मामले में अमेरिकी डॉलर के दिन ढलने लगे हैं। हाई-टेक उद्योगों में अमेरिकी वर्चस्व को पहले ही चीन के हाई-टेक उद्योगों ने साझा कर लिया है। यहां तक कि प्रमुख अमेरिकी कॉर्पोरेट सीईओ जैसे कि एप्पल के टिम कुक और यू.एस. चैंबर ऑफ कॉमर्स अमेरिका और चीन के बीच अधिक व्यापार और निवेश प्रवाह का लाभ चाहते हैं। वे बाइडेन प्रशासन द्वारा चीन पर निर्देशित राजनीतिक रूप से बढ़ती शत्रुता को निराशा की दृष्टि से देखते हैं।

चौथा, अमेरिकी साम्राज्य ऊपर उठाने के बाद अब पतन की तरफ है। क्या चीन उभरता हुआ नया दादा है? क्या यह अमेरिकी साम्राज्य की विरासत को हासिल करेगा जैसे अमेरिका ने इसे ब्रिटेन से हासिल किया था? या कोई बहुराष्ट्रीय नई विश्व व्यवस्था उभर कर आएगी और एक नई विश्व अर्थव्यवस्था को आकार देगी? सबसे दिलचस्प संभावना शायद इस बता की है कि  चीन और सारे ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) देशों का समूह एक नई विश्व अर्थव्यवस्था के निर्माण और रखरखाव का काम करेगा।

यूक्रेन युद्ध ने ब्रिक्स गठबंधन को मजबूत किया है और संभावनाओं को पहले ही बढ़ा दिया है। कई अन्य देशों ने ब्रिक्स ढांचे में प्रवेश के लिए आवेदन किया है या जल्द ही आवेदन करेंगे। साथ में, उनके पास विश्व आर्थिक विकास के लिए एक नई धुरी बनने के लिए जनसंख्या, संसाधन, उत्पादक क्षमता, कनेक्शन और संचित एकजुटता है। क्या उन्हें वह भूमिका निभानी थी, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से लेकर अफ्रीका, यूरोप और दक्षिण अमेरिका तक दुनिया के शेष हिस्सों को अपनी विदेशी आर्थिक और राजनीतिक नीतियों पर पुनर्विचार करना होगा। उनका आर्थिक भविष्य आंशिक रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि वे पुराने और नए विश्व आर्थिक संगठनों के बीच प्रतिस्पर्धा को कैसे नेविगेट करते हैं। इनका भविष्य इसी तरह इस बात पर निर्भर करता है कि सभी राष्ट्र जो नवउदारवादी/वैश्वीकरण पूंजीवाद और राष्ट्रवादी पूंजीवाद दोनों के आलोचक और पीड़ित हैं, कैसे इसके साथ सामजस्य बिठाते हैं।

रिचर्ड डी. वोल्फ़ मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय, एमहर्स्ट में अर्थशास्त्र के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं, और न्यू यॉर्क में न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी के अंतर्राष्ट्रीय मामलों में स्नातक कार्यक्रम में अतिथि प्रोफेसर हैं।

यह लेख स्वतंत्र मीडिया संस्थान की एक परियोजना, इकोनॉमी फॉर ऑल द्वारा तैयार किया गया है।

मूल रुप से अंग्रेजी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

The Emerging New World Economy

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