दो टूक: सड़क से संसद तक ‘लोकतंत्र’ का ख़ात्मा!

‘‘देश की सड़कें जब गूंगी या सूनी हो जाती हैं तो उस देश की संसद आवारा हो जाती है।’’
—डॉ. राममनोहर लोहिया
डॉ. राम मनोहर लोहिया का यह कथन उस दिन और सही साबित होता है जब लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभ संसद भवन में 19 दिसम्बर, 2024 को जो देखने को मिला। संसद भवन में जो कुछ भी हुआ वह कोई अचानक घटित नहीं हुआ। इससे पहले सड़कों पर नागरिक समाज (ट्रेड यूनियन, किसान आन्दोलन, छात्र संगठन, टीचर अन्य) के साथ ऐसा ही होता रहा है, जिसकी आंच अब संसद के द्वार तक पहुंच गई है। पहले हाशिये पर पड़े मजदूरों, आदिवासियों, किसानों के विरोध प्रदर्शनों पर पुलिसिया बर्बरता की कहानी आती थी। उसके बाद छात्रों के जुलूसों, प्रदर्शनों पर पुलिसिया बर्बरता होने लगी। उसके बाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों, डाक्टरों, बुद्धिजिवियों पर पुलिसिया बर्बरता देखने को मिला, जिसमें हम डॉ. विनायक सेन से लेकर स्टेन स्वामी, गौतम नवलखा, सुधा भरद्वाज, सोमा सेन जैसे नाम को रख सकते हैं। समाज के हर तबके पर राज्य का आतंक इतना व्यापक हो गया कि कुछ मुट्ठी भर लोग ही सड़कों पर नजर आते हैं, जिसका परिणाम है कि यह दमन का यह आलम संसद तक जा पहुंचा है।
नये भारत में पुलिसिया डंडे के साथ-साथ आरएसएस से जुड़े संगठन-बजरंग दल, एबीवीपी, विश्व हिन्दू परिषद, हिन्दू सेना जैसे दलों को खुलेआम छूट मिल गई है। एबीवीपी की गुंडागर्दी हम देश के अलग-अलग विश्वविद्यालय में देख चुके हैं, जिसमें हम कर्नाटक के उन छात्र गुंडों को कैसे भूल सकते हैं जब एक अकेली हिजाब पहने लड़की को कॉलेज गेट पर घेर लिया गया था या हम जेएनयू के साबरमती हॉस्टल हो या दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज की घटना को कैसे भूल सकते हैं। सीएए, एनआरसी के समय आरोप लगा कि पुलिस के साथ सादी वर्दी में आरएसएस से जुड़े हुए लोग छात्रों को पीट रहे थे। यह सब बात 2024 से पहले की है। अब तो नये भारत में ‘सबका साथ-सबका विकास’ वाले प्रधानमंत्री का तीसरा कार्यकाल चल रहा है। अब सादी वर्दी हो या वर्दी में कोई अन्तर नहीं है। हम तो देख सकते हैं कि यूपी के ककरौली में वर्दीधारी पुलिस अफसर दो महिलाओं के सामने पिस्तौल ताने हुए खड़ा है। संसद जिसे लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है, जहां पर प्रवेश करने से पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी केवल नतमस्तक ही नहीं हुए, वहां वो दंडवत होकर मत्था टेकते हैं। लोकतंत्र का मन्दिर है तो मन्दिर में निश्चित ही संत होंगे। इन संतों का नजारा हम 19 दिसम्बर को देखे, जिनके हाथ में डंडे लगे पोस्टर थे। आखिर इन संतां के हाथ में डंडे वाले पोस्टर और मन्दिर के अन्दर ‘विपक्षी सांसदों’ या यों कह सकते हैं कि ‘शूद्रों’ (क्योंकि सत्ता पक्ष उनको लोकतंत्र में विघ्न डालने वाला मानता है) को रोकने का जुनून कहां से आया। इसके लिए हमें डेढ़ माह पीछे 7 नवम्बर, 2024 को चित्रकूट के हनुमान मंदिर परिसर जाना होगा, तब आपको संसद भवन परिसर की बात समझ में आयेगी।
पंडित रामकिंकर उपाध्याय के जन्मशताब्दी समारोह में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि ‘‘संतों के काम में आने वाली बाधाओं को संघ के स्वयंसेवक ‘डंडा’ लेकर दूर करेंगे। इसी शब्द का अनुपालन लोकतंत्र के ‘मन्दिर’ में आज के ‘संत’ कर रहे थे।
भारत कुछ सालों में दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बन जायेगी, जिसका दावा बहुत जोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है। भारत की जनता की बढ़ती आत्महत्या और कम होती खुशियांं का रिकॉर्ड दिन-पर-दिन खराब होते जा रहे हैं। भारत की बढ़ती जीडीपी का लाभ कुछ मुट्ठी भर लोग ले रहे हैं। जिस दिन संसद भवन परिसर में हंगमा चल रहा था, उसी दिन (19 दिसम्बर, 2024) जनसत्ता में खबर छपी कि गाजियाबाद के शालीमार गार्डेन में कर्ज में डूबे व्यवसायी दम्पति ने फंदे से लटक कर आत्महत्या कर ली। यह जगह संसद भवन परिसर से 21 कि.मी. की दूरी पर है। भारतीय अर्थव्यवस्था के चमकते सितारे अडानी जी हैं, जिनके विज्ञापनों को भी देखकर लगता है कि वही भारत हैं। भाजपा के राज्य सभा सांसद अलफोंस तो 11 फरवरी, 2022 को संसद में कह चुके हैं कि अम्बानी, अडानी की पूजा होनी चाहिए। अमेरिका में भ्रष्टाचार के आरोप हो या हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट की चर्चा, अगर संसद में उठायेंगे तो आप संसद के काबिल नहीं माने जायेंगे। इसको राष्ट्रधर्म और सनातन का तड़का लगाकर आपको राष्ट्रद्रोही, अधर्मी की तमगा मिलेगा ही।
इन्हीं तमगों लेकर जब देश के नागरिक समाज सड़क पर उतरता था, तो कांग्रेस शासन काल से ही उन लोकतांंत्रिक जगहों को कम किया जाने लगा। पहले जहां इन विरोध प्रदर्शनों की जगह बोट क्लब हुआ करती थी। उसको खत्म कर दिया गया, लाल किला, फिरोजशाह कोटला के विरोध प्रदर्शन के स्थान को नागरिक समाज से छीन लिया गया, यहां तक कि जंतर मंतर को भी छीन लिया गया। लोकतंत्र की परम्परा को जिन्दा रखने के लिए 100 मीटर की जगह को खुले जेल के रूप में रूपांतरित कर अब शिफ्टों में (तीन घंटे के लिए) कड़ी शर्तों के साथ विरोध प्रदर्शन करने की इजाजत दी जाती है।
जब सड़क की आवाजों को कुचल दिया गया है, तो अब तो संसद की बारी है। आज जो सांसद डंडे लगी तख्तियों को लेकर दूसरे सांसदों को संसद में जाने से रोक रहे हैं, उनकी भी बारी आयेगी। उन नौकरशाहों और दमनकारी पुलिस-प्रशासन की भी बारी आयेगी, जो इस दमन में साथ दे रहे हैं। इसके लिए वह सीरिया से सीख सकते हैं कि विद्रोही जब दमिश्क तरफ बढ़ रहे थे, तो 58 सालों से शासन करने वाला परिवार दमिश्क छोड़ रूस भाग गया। वे जानते थे कि जनता की हर आवाज को बूटों तले रौंदा गया है। उनके ईशारे पर दमन करने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों को खोजा जा रहा है।
लोकतंत्र जितना अधिक समय का होता है उतना परिपक्व होना चाहिए और उसे जनता के नजदीक होना चाहिए। भारत का ‘लोकतंत्र’ परिपक्व होने की जगह बूढ़ा होता जा रहा है, जिसे कमजोर ताकत के कारण अपनी जनता और सांसदों से ही डर लगने लगा है। वह जनता को और उसके प्रतिनिधियों को दूर और दूर करता जा रहा है। ‘लोकतंत्र’ को 75 साल में बोट क्लब से जंतर-मंतर के 100 मीटर के खुले जेल में पहुंचा दिया गया, तो क्या 100 वर्ष होते-होते इसको संसद भवन से भी दूर कर दिया जायेगा? हमें एक आत्मनिर्भर, लोकतांत्रिक और जनवादी भारत के निर्माण के लिए संसद से सड़क तक की आवाज को सुनना होगा। जनता पर दमन बंद करना होगा। स्कूलों-कॉलेजों में वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा देना होगा। फ्री शिक्षा, फ्री स्वास्थ्य और लोगों को न्याय देना होगा। इसके लिए विधायिका-कार्यपालिका- न्यायपालिका पर सरकारी दबाव नहीं देना होगा। मीडिया को भी बिना पक्षपाती हुए सही खबर लोगों तक पहुंचानी होगी। जिस दिन लोगों की आवाज बंद हो गई, उस दिन मीडिया को भी दलाली और विज्ञापन मिलना बंद हो जायेगा, क्योंकि सब कुछ अदानी और अडानी जैसे पूंजीपतियों की हाथ में होगी और उसके लिए उसे किसी मीडिया की जरूरत नहीं है। लोगों की मजबूरी होगी कि उसके मालों को खरीदें और उनकी बात को सुनें। लोकतंत्र को बनाने और बचाने के लिए जनता के हर तबके के लोगों को आगे आना होगा और खासकर देश की 85 प्रतिशत मेहनतकश जनता का रोल महत्वपूर्ण होगा। पुलिस-प्रशासन, न्यायपालिका, विधायिका में बैठे लोगों को मार्टिन नीमोलर की निम्नलिखित कविता को याद रखना होगा। अगर यही होता रहा तो सबका नम्बर एक दिन आयेगा। अपनी बारी का इंतजार करें।
पहले वे आये कम्युनिस्टों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।
फिर वे आये ट्रेड यूनियन वालों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था।
फिर वे आये यहूदियों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।
फिर वे मेरे लिए आये
और तब तक कोई नहीं बचा था
जो मेरे लिए बोलता।
-मार्टिन नीमोलर
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)
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