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महामारी काल और स्वास्थ्य सुविधाओं तक महिलाओं की कम पहुंच

संस्थान ने अपनी तमाम जांच-परिणाम के बाद ये सुझाव दिया है कि गर्भवती महिलाएं जरूर टीका लगवाएं। हालांकि सरकार ने क्लीनिकल ट्रायल के आंकड़ों की कमी का हवाला देते हुए गर्भवती महिलाओं के टीकाकरण की अब तक अनुमति नहीं दी है।
महामारी काल और स्वास्थ्य सुविधाओं तक महिलाओं की कम पहुंच
Image courtesy : ThePrint

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान यानी ICMR के अनुसार भारत में कोरोना की दूसरी लहर महिलाओं खासकर गर्भवती महिलाओं  के लिए अधिक घातक साबित हुई है। संस्थान ने अपने एक अध्ययन का हवाला देते हुए बुधवार, 16 जून को बताया कि गर्भवती और प्रसूता (शिशुओं को जन्म देने वाली) महिलाएं कोरोना वायरस महामारी की दूसरी लहर में पहली लहर की तुलना  कहीं अधिक प्रभावित हुईं और इस साल इस श्रेणी में लक्षण वाले मामले तथा संक्रमण से मृत्यु की दर भी अपेक्षाकृत अधिक रही है। अब सवाल ये उठता है कि जब पहली लहर में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन इस बारे में आगाह कर चुका था तो सरकार द्वारा समय रहते इसके लिए उचित कदम क्यों नहीं उठाए गए।

आपको बता दें कि ICMR ने भारत में महामारी की पहली लहर (एक अप्रैल, 2020 से 31 जनवरी, 2021 तक) और दूसरी लहर (एक फरवरी, 2021 से 14 मई तक) के दौरान गर्भवती और शिशुओं को जन्म देने वाली महिलाओं से संबंधित संक्रमण के मामलों की तुलना की है। ICMR के मुताबिक दूसरी लहर में लक्षण वाले संक्रमण के मामले 28.7 प्रतिशत थे जबकि पहली लहर में यह आंकड़ा 14.2 प्रतिशत था। गर्भवती महिलाओं और प्रसव के बाद महिलाओं में संक्रमण से मृत्यु दर 5.7 प्रतिशत थी जो पहली लहर में 0.7 की मृत्यु दर से अधिक रही।

ICMR  का सुझाव गर्भवती महिलाएं जरूर टीका लगवाएं

संस्थान ने अपनी तमाम जांच-परिणाम के बाद यह सुझाव दिया है कि गर्भवती महिलाएं जरूर टीका लगवाएं। हालांकि सरकार ने क्लीनिकल ट्रायल के आंकड़ों की कमी का हवाला देते हुए गर्भवती महिलाओं के टीकाकरण की अब तक अनुमति नहीं दी है। इस बारे में टीकाकरण पर राष्ट्रीय तकनीकी परामर्श समूह (एनटीएजीआई) विचार-विमर्श कर रहा है। जबकि  विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) पहले ही टीकाकरण की सिफारिश कर चुका है। ऐसे में  फिर सवाल उठता है कि आखिर महिलाओं के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ क्यों किया जा रहा है।

गौरतलब है कि इससे पहले भी कई एक्सपर्ट्स इस लहर में गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों पर कोविड के ज्यादा असर को लेकर चिंता जाहिर कर चुके हैं। जानकारों ने माना है कि दूसरी लहर का डबल म्यूटेंट वायरस गर्भवती महिलाओं के लिए घातक है। कोरोना संक्रमित महिलाओं को डिलीवरी में नॉन कोविड महिलाओं से ज्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।

क्या कारण है महामारी में बढ़ती समस्या का?

पीजीआई चंडीगढ़ में गायनेकोलॉजिस्ट रहीं डॉ. हरप्रीत कौर बताती हैं कि इस बार गर्भवती महिलाओं में कॉम्प्लिकेशन पहले के मुकाबले ज्यादा देखने को मिल रहे हैं। जो कोरोना से संक्रमित हैं उन्हें और ज्यादा दिक्कत आ रही है क्योंकि उनमें बीमारी के कारण इम्यूनिटी कम हो जाती है इसलिए उन्हें ऑक्सिजन की जरूरत के साथ-साथ अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत पड़ रही है। सबसे ज्यादा कॉम्प्लिकेशन अबॉर्शन के या अर्ली डिलीवरी (जल्दी बच्चा पैदा होना) के केस में सामने आ रहे हैं। पहले कोरोना की वजह से गर्भवती महिलाओं के रेगुलर चैकअप में दिक्कतें जरूर आ रहीं थी लेकिन मौत के आंकड़ें बहुत कम थे लेकिन इस बार गर्भवती महिलाओं की मौत के मामले कहीं ज्यादा देखने को मिले हैं। इसके अलावा नवजात बच्चों में भी कमज़ोरी लो ब्लड शुगर जैसी कई दिक्कतें देखने को मिली हैं। कोविड संक्रमण के बाद उन्हें आईसीयू और वेंटिलेटर की जरूरत तक पड़ी है।

डॉ हरप्रीत ते मुताबिक सरकार ने अभी तक प्रेग्नेंट और ब्रेस्ट फीडिंग महिलाओं के लिए टीके को हां नहीं कहा है। ऐसे में इन महिलाओं के लिए खतरा और बढ़ जाता है। अभी तक ऐसी कोई विशेष रिपोर्ट नहीं आई जिसमें टीके को गर्भवती महिलाओं के लिए हानिकारक बताया गया हो इसलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी कह दिया है कि अगर गर्भवती महिलाओं को कोविड का अत्यंत खतरा हो और अगर उन्हें अन्य बीमारियां हैं तो उन्हें टीका लगाया जाना चाहिए। आईसीएमआर ने भी अब तो टीके को जरूरी बता दिया है। ऐसे में अब सरकार के ऊपर है कि वो क्या आगे क्या निर्णय लेती है।

महिलाओं की पहुंच से स्वास्थ्य सुविधाएं दूर

मालूम हो कि इस महामारी से पहले भी ज्यादातर भारतीय महिलाओं की पहुंच से स्वास्थ्य सुविधाएं दूर ही थीं। कई रिपोर्ट्स में यह साफ बताया गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भी भारतीय महिलाएं भेदभाव की शिकार हैं। रूढ़िवादी सोच के चलते महिलाएं कई बार अपनी स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में बता तक नहीं पातीं।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक संयुक्त अध्ययन में पाया गया कि भारत में लैंगिक आधार पर भेदभाव की वजह से महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। शोधकर्ताओं ने 2016 में जनवरी से लेकर दिसंबर तक एम्स में इलाज कराने आए 23,77,028 मरीजों के रिकॉर्ड का अध्ययन किया था। इस अध्ययन में पाया गया कि सिर्फ 33 प्रतिशत महिलाओं को ही स्वास्थ्य सेवा मिल पाती है। वहीं, पुरुषों में यह दर 67 प्रतिशत है।

महिलाओं को उचित स्वास्थ्य देखभाल नहीं मिल पाती

महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली और नई दिल्ली में सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी के अनुसार कम लिंगानुपात एक ऐसा सामाजिक पहलू है जिसकी वजह से महिलाओं को उचित स्वास्थ्य देखभाल नहीं मिल पाती है।

रंजना कहती हैं कि भारतीय समाज की मनोदशा की वजह से महिलाएं घर के अंदर काफी धैर्य बनाए और चुप्पी साधे रहती हैं। हमारे देश में महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रमुखता नहीं दी जाती है कोई भी महिलाओं के इलाज में पैसा खर्च नहीं करना चाहता है। यह दोनों तरीकों से काम करता है। एक यह कि ज्यादातर समय महिलाएं अपने स्वास्थ्य के बारे में चुप रहती हैं। दूसरी यह कि उनकी परवरिश ऐसी होती है कि वे शर्मीली बन जाती हैं और शर्मीलापन या कम आत्मसम्मान की वजह से वे इलाज कराने के लिए खुलकर कह नहीं पाती हैं।

मालूम हो कि एक ओर सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर सरकार का खर्च काफी कम है तो वहीं 75% स्वास्थ्य देखभाल बुनियादी ढांचा केवल शहरी क्षेत्रों में मौजूद है। ऐसे में ग्रामीण महिलाओं के लिए इन तक पहुंच और मुश्किल हो जाती है। जाहिर है देश में सबको सुरक्षित जीवन ने का अधिकार है और स्वास्थ्य सुविधाओं तक सबकी पहुंच आसान करना सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन सरकार इस जिम्मेदारी को कितनी बखूबी निभा रही है, इसकी सारी पोल इस महामारी के दौर में खुल चुकी है।

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