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वाहवाही करते कॉर्पोरेट को भी तीव्र आर्थिक वृद्धि का भरोसा नहीं

एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ अप्रैल-जून 2022 की तिमाही के मुक़ाबले अप्रैल-जून 2023 में कॉर्पोरेट पूंजी निवेश 6.2% गिरकर जीडीपी का 12.3% ही रह गया। यह गत दशक का निम्नतम स्तर है।
economic growth
प्रतीकात्मक तस्वीर।

खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके मंत्री, सांसद व कार्यकर्ताओं के साथ ही बहुत से कॉर्पोरेट सीईओ और उनके नियंत्रण वाले कॉर्पोरेट मीडिया के विश्लेषकों को भी मौजूदा सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था के उत्कृष्ट प्रबंधन की वाहवाही व भविष्य में तीव्र वृद्धि की भविष्यवाणियां करते देखा जा सकता है। किंतु क्या इन कॉर्पोरेट को अर्थव्यवस्था संबंधी अपनी इन प्रशंसात्मक बातों पर सचमुच भरोसा है? इस बात को कैसे जाना जा सकता है?

कोई भी कारोबारी अर्थव्यवस्था की दिशा के बारे में वास्तव में क्या सोचता है इसे जानने का सबसे जांचा परखा तरीका है इस बात का पता करना कि वह अपनी पूंजी कहां लगा रहा है। पूंजी का मुख्य गुण है कि यह पुरानी कहानियों के कंजूसों-मक्खीचूसों के धन की तरह कभी काहिल पड़ी नहीं रहती और इसे लगातार अधिकतम संभव मुनाफा चाहिए होता है। अतः किसी भी पूंजीवादी कारोबारी के आर्थिक आकलन को जानने का सर्वोत्तम तरीका उसके पूंजी निवेश की गति व दिशा का पता करना है। अर्थात हमें जानना होगा कि क्या ये कॉर्पोरेट भारत में औद्योगिक निवेश बढ़ा रहे हैं और कितना, क्योंकि अगर इन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती और इसमें तीव्र वृद्धि का वास्तव में भरोसा हो तो ये निश्चित ही अपनी संचित पूंजी का उत्पादक निवेश बढ़ा रहे होंगे। आइए इस संबंध में विभिन्न स्रोतों से मिली सूचनाओं पर नजर डालते हैं।

मोतीलाल ओसवाल के आर्थिक विश्लेषकों की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल-जून 2022 की तिमाही के मुकाबले अप्रैल-जून 2023 में कॉर्पोरेट पूंजी निवेश 6.2% गिरकर जीडीपी का 12.3% ही रह गया। यह गत दशक का निम्नतम स्तर है। मुद्रास्फीति की दर के साथ देखें तो यह गिरावट और भी बड़ी है। अर्थव्यवस्था में कुल पूंजी निवेश में कॉर्पोरेट पूंजी निवेश का हिस्सा देखें तो यह मात्र 41.2% है जबकि कोविड पूर्व यह 50% से ऊपर हुआ करता था।

भारतीय अर्थव्यवस्था में इस समय निवेश में वृद्धि का मुख्य हिस्सा सरकार की ओर से आ रहा है। राष्ट्रीय आम चुनाव और कुछ राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव इसका प्रमुख कारण हैं। इन चुनावों के मद्देनजर अर्थव्यवस्था में कृत्रिम तेजी के लिए सरकारें इंफ्रास्ट्रक्चर में पूंजी निवेश बढा रही है जिसके लिए वित्तीय बाजारों से बड़ा कर्ज जुटाया जा रहा है। रायटर्स की रिपोर्ट है कि भारतीय बैंक इस वर्ष के छह महीने पूरे होने से पहले ही इंफ्रास्ट्रक्चर बांड से इतना कर्ज जुटा चुके हैं जितना उन्होंने पिछले पूरे वर्ष में जुटाया था। नतीजा है कि अप्रैल-जून तिमाही में ही 2022 की तुलना में 2023 में केंद्र सरकार का निवेश 45% तो राज्य सरकारों का निवेश 65% बढ़ा है जबकि परिवारों (सरकार व कॉर्पोरेट को छिड़कर शेष सब) मात्र 13% बढ़ा है।

बैंक ऑफ बड़ौदा की जून में प्रकाशित ऐसी ही एक रिसर्च रिपोर्ट कॉर्पोरेट पूंजी निवेश की 5 साल की अवधि (2017-18 से 2022-23) के रुझान में धीमी गति दिखाती है। इसमें 3,420 कंपनियों की फिक्स्ड पूंजीगत संपत्तियों व जारी पूंजीगत कार्यों के अध्ययन से पाया गया कि इनकी औसत वृद्धि दर मात्र 4.9% रही जबकि इस दौरान अर्थव्यवस्था की आंकिक या नॉमिनल वृद्धि दर 9.8% थी। इसका अर्थ है कि अर्थव्यवस्था में मौजूदा दामों पर जितनी वृद्धि दिख रही है कंपनियां अपने उत्पादक निवेश में उतनी वृद्धि भी नहीं कर रही हैं। अगर दामों में वृद्धि के साथ तुलना कर प्रभावी निवेश वृद्धि दर देखें तो वह संभवतः शून्य या नकारात्मक है।

सवाल उठता है कि कॉर्पोरेट पूंजी निवेश क्यों नहीं बढ़ा रहे हैं? असल में कॉर्पोरेट पूंजी निवेश तभी करते हैं जब वे अपने उत्पादन को बेचकर उस पर मुनाफे को वापस नकद पूंजी में बदल पाएं अर्थात उनके उत्पादों के लिए अर्थव्यवस्था में प्रभावी मांग हो। पूंजी निवेश में कमी संकेत देती है कि कॉर्पोरेट मालिकों-प्रबंधकों को अर्थव्यवस्था में प्रभावी मांग में वृद्धि का विश्वास नहीं है अर्थात उन्हें नहीं लगता कि उनके उत्पादित माल की बिक्री बढ़ेगी। इसे समझने के लिए हमें अर्थव्यवस्था में निजी उपभोक्ता व्यय के आंकड़ों को देखना होगा।

कोविड महामारी के पहले 2014-15 से 2018-19 के 4 सालों में इस निजी उपभोक्ता खर्च की औसत सालाना वृद्धि दर 11.5% थी जिसमें महंगाई की भूमिका औसत 4.1% सालाना थी। किंतु तत्पश्चात 2018-19 से 2022-23 में इसमें सालाना 10.1% की दर से ही वृद्धि हुई जिसमें महंगाई दर की भूमिका औसत 5.8% की है। साफ है कि कुल बिक्री में नेट वृद्धि 7.4% से घटकर 4.3% ही रह गई है अर्थात उपभोक्ता खर्च बढ़ने की रफ्तार धीमी पड़ गई है। इस दौरान भारतीय आबादी के बड़े हिस्से के रोजगार व आय में गिरावट के आंकड़े लगातार सामने आते रहे हैं अतः हम उन्हें यहां नहीं दोहराएंगे। किंतु वही उपभोक्ता खर्च में वृद्धि की राह में सबसे बड़ी अड़चन हैं यह समझना मुश्किल नहीं है।

उपभोक्ता खर्च अर्थात बाजार में प्रभावी मांग न बढ़ने से किसी कॉर्पोरेट को अपने उत्पादन की क्षमता बढ़ाने की लालसा पैदा होना संभव नहीं है क्योंकि फिलहाल जितनी मांग है वह उनकी पहले से मौजूद उत्पादन क्षमता से ही पूरी हो रही है। क्रिसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार एकमात्र सीमेंट ही ऐसा उद्योग है जिसके कारखानों की क्षमता का मौजूदा उपयोग 70% पिछले दशक के उच्चतम स्तर पर है अन्यथा सभी उद्योगों में जितनी उत्पादन क्षमता पहले से ही मौजूद है उसका बड़ा हिस्सा अनुपयुक्त ही पड़ा हुआ है। रिजर्व बैंक की रिपार्टें भी अर्थव्यवस्था में उत्पादक क्षमता के उपयोग की नीची दर की पुष्टि करती हैं। यदि ऐसी स्थिति में कोई उद्योगपति नया कारखाना लगाए या मौजूदा कारखाने की उत्पादन क्षमता बढ़ाए तो उसे इस पूंजी निवेश पर हानि होगी क्योंकि वह पूंजी खपा देने के बाद भी बिक्री न बढने से उसका उपयोग नहीं कर पायेगा। और कोई भी कॉर्पोरेट हानि के लिए पूंजी निवेश नहीं करता।

इसके अतिरिक्त ऐसी कोई संभावना भी नजर नहीं आती कि यह निजी उपभोक्ता खर्च भविष्य में जल्द बढ़ने वाला है जिसकी उम्मीद में कॉर्पोरेट अपना पूंजी निवेश बढ़ाएं। हाल में प्रकाशित रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक परिवारों (सरकार व कॉर्पोरेट को छोड़कर शेष) की नेट वित्तीय संपत्ति अर्थात कर्ज आदि देनदारी चुकाने के बाद उनके पास बैंक जमा, बीमा पॉलिसी, म्यूचूअल फंड, वगैरह में जितना पैसा है वह 2022-23 में कुल जीडीपी का मात्र 5.1% ही बचा है जबकि एक वर्ष पहले 2021-22 में यह जीडीपी का 7.2% था। मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के बडे प्रशंसक एसबीआई के मुख्य अर्थशास्त्री सौम्यकांति घोष का तर्क है कि इन लोगों ने बडे पैमाने पर संपत्ति खरीदी है इसलिए वित्तीय बचत घट गई है। पर अन्य विश्लेषक इससे सहमत नहीं हैं। असल में इसका अर्थ है कि परिवारों की कुल बचत घटती जा रही है क्योंकि आय के मुकाबले जीवन चलाने का खर्च अधिक तेजी से बढ़ रहा है। बचत में इस कमी के कारण देश के अधिकांश लोगों का जीवन असुरक्षित होता जा रहा है और वो इस बचत से जितना मुमकिन हो उतने अधिक समय तक काम चलाने के लिए जितना कम हो सके उतना ही खर्च कर रहे हैं। वे अपने खर्च को अत्यंत जरूरी चीजों तक सीमित कर रहे हैं।

फिलहाल हमारे देश की मात्र 10% आबादी की वित्तीय हालत ही ऐसी है कि वह उपभोक्ता खर्च बढ़ा सके। शेष सबकी स्थिति बढ़ती बेरोजगारी व गिरती प्रभावी आय की वजह से पहले से बदतर हो गई है। मोबाइल फोन, कारों से लेकर दैनंदिन उपयोग की आवश्यक वस्तुओं की बिक्री के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। बहुत वर्षों बाद मोबाइल फोन की बिक्री गिरने लगी है। उसमें भी देखें तो 30 हजार रुपये से अधिक कीमत के महंगे फोन जिन्हें अमीर लोग खरीदते हैं उनकी बिक्री बढ़ रही है। आई फोन के लिए अमीर लोग लाइन लगाए हैं। किंतु 10 हजार रुपये से कम कीमत के सस्ते फोन की बिक्री में तेज गिरावट आई है। इसी प्रकार 10 लाख रुपये से अधिक कीमत की महंगी कारें तो खूब बिक रही हैं मगर 5 लाख रुपये से कम कीमत की सस्ती कारों की बिक्री ठप हो गई है। यहां तक कि बिस्कुट, तेल, साबुन, आदि सामान्य जरूरत की चीजों में भी कंपनियों को छोटे सस्ते पैक निकालने पड़ रहे हैं क्योंकि पुराने पैक कीमतें बढ़ जाने से नहीं बिक रहे हैं। रोजमर्रा की जरूरत के उपभोक्ता सामान बेचने वाली कंपनियों की रिपोर्ट है कि उनके वित्तीय रिपोर्टों में दिखाई जा रही बिक्री वृद्धि का कारण महंगाई है न कि कुल नग की बिक्री में वृद्धि। अर्थात उतने ही नग माल बिक पा रहा है किंतु कीमत अधिक होने से रुपये में बिक्री बढ़ती नजर आ रही है। किंतु उतने ही नग के उत्पादन की क्षमता तो पहले से ही कंपनियों के पास मौजूद है। अगर कुल नग की बिक्री में वृद्धि नहीं हो रही है तो वे नए कारखाने क्यों लगाएं? या कारखानों की उत्पादन क्षमता क्यों बढ़ाएं?

फिर सभी कॉर्पोरेट जानते हैं कि यह सरकार कुछ खास मोनोपॉली कॉर्पोरेट के पक्ष में कहां तक जा सकती है और खास तौर पर अपनी आलोचना करने वालों से कितनी बदले की भावना रखती है। इस वजह से भी कोई कॉर्पोरेट, खास तौर पर तुलनात्मक रूप से छोटे कॉर्पोरेट, सरकार की खुलकर आलोचना करने के लिए तैयार नहीं है। अतः सार्वजनिक मंचों पर सभी कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था की बुनियाद बहुत मजबूत है और वह सबसे तेज वृद्धि वाली अर्थव्यवस्था बन गई है। किंतु इन बयानों के बावजूद उन्हें खुद अर्थव्यवस्था की बुनियाद पर इतना भरोसा नहीं कि वे अपनी पूंजी को उत्पादक निवेश में लगाएं। इसके बजाय सभी पूंजी का वित्तीयकरण कर रहे हैं और सट्टेबाजी से अर्जित मुनाफे में अपना हिस्सा बढाने का प्रयास कर रहे हैं। अतः उत्पादक पूंजी निवेश के बजाय भारतीय वित्तीय पूंजी बाजारों में सट्टेबाजी बढ़ती ही जा रही है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

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